Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 12
________________ आत्मशिक्षामावना कोई दिन रांक तु अवतस्यो, करतो औरज सेव ॥ ३६ ॥ कोई दिन कोडी परिवर्यो, को दिन नहीं को पास । को दिन घर घर एकलो, भमे सही ज्युं दास ॥ ४० ॥ को दिन सुखासन पालखी, जेठमची चकडोल । | रथपाला आगल चले, नित नित करत कलोल ॥ ४१ ॥ को दिन कूर कपूर तुं, भावत नहीं लगार । को दिन रोटी कारणे, भमतो घर घर बार ॥ ४२ ॥ हीर चीर अंग पहेरियां, चुआ चंदन बहु लाय । सो तन जतन करत यौ, क्षिण मांही विघटाय ॥ ४३ ॥ सात गोखे त शोभतो, कामिनी भोग विलास । रहेणो ही वनवास ॥ ४४ ॥ इक दिन ओही आवशे, रूपे देवकुमार सम, देख मोहे नर नार । सो नर खिण एक मां वली, बलि-जलि होवे छार ।। ४५ ।। जे विन्द घडिय न जावती, सो वरसां सो जाय । ते वल्लभ विसरी गयो, ओरहि सं चित लाय ॥ ४६ ॥ देखत सब जुग जातुही, थिर न रही सवि कोय । इस्युं जाणी भलुं कीजिये, हियड़े विमासी जोय ॥ ४७ ॥ सुरपति सवि सेवा करे, राय राणा नर नार । आयु होते आतमा, जातां देखत नर अंधा हुवा, जे मोहे भण्या गण्या मूरख वली, नरनारी बाल गोपाल ॥ ४६ ॥ न लागे वार ॥ ४८ ॥ विंट्या बाल | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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