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आत्मशिक्षा भावना
आथ सारु विवसाय करी, फरि चाल्या निज वाट ॥ १८ ॥ तिम भव भमतां सवि मल्या, कुटुंब जोड़ि जो हाट । पुण्य पाप विवसाय करी, जो ऊतरिये घाट ॥ १६ ॥ इम कुटुंब मल्युं कारिम, माय अने वलि ताय । बंधू भगिनि भारजा, को केहनो न कहाय ॥ २० ॥ नव नव नाटक त वली, नाच्यो करि बहु रूप | नाटक एवं नाचिये, जो छुटे भव कूप ॥ २१ ॥ उत्तम कुल नरभव लही, पामि धर्म जिनराय । प्रमाद मूकी कीजिये, खिण लाखीणो जाय ॥ २२ ॥ जिस कीजे तिसुं पाईये, करे तैसा फल जोय । सुख दुख आप कमाइये, दोष न दीजे कोय ॥ २३ ॥ दोष दीजे निज कर्म ने, जिण नवि कीधो धर्म । धर्म बिना सुख नवि मले, ए जिनशासन मर्म ॥ २४ ॥ वावी कूरी कोदरी, तो क्युं लुणीये शाल । पुण्य विना सवि जीवड़ा, आशा आल पंपाल ॥ २५ ॥ आयु पोती आतमा, कोइ नवि राखणहार | इन्द्र चन्द्र जिनवर वली, गया सवि निरधार ॥ २६ ॥ मोहोटा मोट न कीजिये, न कीजे मोहोटी बात । कोडी अनंत में वेचियो, त्यारे किहां गइ जात ॥ २७ ॥ आप सरूप विचार तुं, जो हुई हियड़े ज्ञान | करणी हवी कीजिये, जिम वाधे जग वान ॥ २८ ॥
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