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भागा एकदम लंका; लेकिन तब तक यहां सब खतम हो गया। वह गया लंका, उसको हटाने का यह उपाय था। वह गया लंका, तब तक राम को सीता वरी गई।
एक गांव में रामलीला हुई। अब रावण को पता तो था, यह तो नाटक ही था, असली तो था नहीं। पता तो था ही कि क्या होता है। वह कुछ गुस्से में था, मैनेजर के खिलाफ था। वह असल में चाहता था राम बनना और उसने कहा कि तू रावण बन। उसने कहा, अच्छा देख लेंगे, वक्त पर देख लेंगे! जब बाहर गोहार मची, स्वयंवर के बाहर, कि रावण तेरी लंका में आग लगी है, तो उसने कहा 'लगी रहने दो। आज तो सीता को वर कर ही घर जाएंगे!' और उसने उठ कर धनुष-बाण तोड़ दिया धनुष-बाण रामलीला का। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई कि अब करना क्या! तो जनक बूढ़ा आदमी, पुराना उस्ताद था! उसने कहा,' भृत्यो! यह मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण कौन उठा लाया? गिराओ पर्दा, असली धनुष लाओ।' धक्के दे कर उस रावण को निकाला, वह निकलता नहीं था। वह कहे कि ले आओ, असली ले आओ।
तुम जीवन में ऐसे ही नाहक धक्कम धुक्की कर रहे हो। पूरब की मनीषा ने जो गहरे सूत्र खोजे उनमें एक है कि जीवन एक अभिनय है, नाटक है, लीला है-इसे गंभीरता से मत लो। जो वह करवाए, कर लो। जो वह दिखलाए, देख लो। तुम अछूते बने रहो, तुम कुंआरे बने रहो। और तब तुम्हारे जीवन में कोई श्रम न होगा, क्योंकि कोई तनाव न होगा। कर्म तो होगा, श्रम न होगा। श्रम न होगा, कर्म होगा इसका अर्थ हुआ कर्म तो होगा कर्ता न होगा। जब कर्ता होता है तो श्रम होता है, तब चिंता होती है। अब कर्ता तो परमात्मा है, हार-जीत उसकी है, सफलता-असफलता उसकी है। तुम तो सिर्फ एक उपकरण-मात्र हो, निमित्त-मात्र। सब चिंता खो जाती है।
'इस संसार में चिंता से दुख उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह सुखी और शांत है। सर्वत्र उसकी स्पृहा गलित है। और वह चिंता से मुक्त है।
चिंतया जायते दुःखं नान्यथैहेति निश्चयी तया हीन: सुखी शांत: सर्वत्र गलित स्पृहः
चिंतया दुःखं जायते-चिंता से दुख....| चिंता पैदा होती है कर्ता के भाव से। जैसे ही तुम स्वीकार कर लेते हो कि मैं कर्ता नहीं हूं फिर कैसी चिंता? चिंता है कर्ता की छाया। तुम चिंता तो छोड़ना चाहते हो, कर्तृत्व नहीं छोड़ना चाहते। तुम रहना तो चाहते हो कर्ता, कि दुनिया को दिखा दो कि तुमने यह किया, यह किया, यह किया; कि इतिहास में नाम छोड़ जाओ कि कितना काम तुमने किया! लेकिन तुम चाहते हो, चिंता न हो। यह असंभव की तुम मांग करते हो। जितना बड़ा तुम्हारा कर्तृत्व होगा, उतनी ही चिंता होगी। जितना बड़ा तुम्हारा अहंकार होगा, उतनी ही तुम्हारी चिंता होगी। निश्चित होना हो तो निरहंकारी हो जाओ। लेकिन निरहंकारी का अर्थ ही होता है, एक ही अर्थ होता है कि तुम कर्ता मत रहो। तुम जगह दे दो परमात्मा को-उसे जो करना है करने दो। तुम्हारे हाथ उसके भर रह जाएं; तुम्हारी आंखें उसकी आंखें हो जाएं; तुम्हारी देह में वह विराजमान हो जाए, तुम मंदिर हो जाओ। उसे करने दो जो करना है।