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कल्याणकारिणी क्रिया
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शुभचिन्तक ने उसे दोनों पात्र दोनों हाथों में थमा दिये और चेतावनी दी"देखो, अपने दाहिने हाथ में रहे हुये पात्र की बड़ी सावधानी से रक्षा करना । अगर तुम ऐसा करते रहोगे तो तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन निश्चित और सुख से ओत-प्रोत रहेगा।"
बंधुओ ! आपको जानने की जिज्ञासा होगी कि उन दोनों पात्रों में क्याक्या था और मनुष्य ने किस पात्र की रक्षा की ? समाधान इसका यह है कि उस अज्ञात हितैषी ने जो दो पात्र मानव के हाथ में थमाए थे, उनमें से दाहिने हाथ वाले पात्र में सत्य भरा था और दूसरे में सुख । पात्रदाता का अभिप्राय यह था कि अगर सत्य की रक्षा की जाएगी तो सुख के लिए प्रयत्न करना ही नहीं पड़ेगा। वह स्वयं ही मानव के पास बना रहेगा । अत: सत्य को उसने मनुष्य के दाहिने हाथ में थमाया और उसकी सुरक्षा के लिये चेतावनी भी दे दी।
मानव ने उस महान् आत्मा की बात मान ली और अपनी यात्रा पर रवाना हो गया। चलते-चलते जब वह थक गया तो उसने एक स्थान पर दोनों पात्र सावधानी से रख दिये और समीप ही लेट गया तथा गहरी निद्रा में सो गया।
आप जानते हैं कि इस संसार में फरिश्ते और शैतान दोनों ही रहते हैं। मानव के दुर्भाग्य से वहाँ अचानक एक शैतान का आगमन हुआ और उसने चुपचाप दोनों पात्रों का स्थान बदल दिया। अर्थात् दाहिने हाथ वाला पात्र बाँये हाथ की ओर तथा बाँये हाथ वाला दाहिने हाथ की ओर रख दिया।
बेचारा मानव जब उठा तो उसने पुनः अपने क्रमानुसार रखे हुये पात्र उठाए तथा मार्ग पर अग्रसर हो गया। किन्तु फिर हुआ क्या ? अपने हितैषी को दिये हुये वचन के अनुसार वह दाहिने हाथ वाले पात्र की रक्षा तो जी जान से करता रहा और बांये हाथ वाले पात्र की उपेक्षा । आज भी वह यही कर रहा है । अर्थात् सुख की तो रक्षा करता है और सत्य की उपेक्षा। पर सत्य के अभाव में उसे किसी भी प्रकार का सुख हासिल नहीं होता। अपार वैभव और सोने-चांदी के अम्बार भी उसे आत्मिक शांति एवं सतुष्टि प्रदान नहीं कर पाते । इसलिये सच्चे सुख के अभिलाषी प्राणी ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं:--
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्वं पूषन्नपावृणु सत्य धर्माय दृष्टये ।।
-ईशावास्योपनिषद् सत्य का मुह स्वर्ण पात्र से ढका हुआ है । हे ईश्वर, उस स्वर्ण पात्र को तू उठा दे जिससे सत्य धर्म का दर्शन हो सके ।
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