Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- १७४-१७७
अपने शल्य से दुःखी, माया और दंभ से किए गए शल्य-पाप छिपानेवाला वो अपने शल्य प्रकट करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता । शायद कोई राजा दुश्चरित्र पूछे तो सर्वस्व और देह देने का मंजूर हो । लेकिन अपना दुश्चरित्र कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकता । शायद राजा कहे कि तुम्हें समग्र पृथ्वी दे दूं लेकिन तुम अपना दुश्चरित्र प्रकट करो । तो भी कोई अपना दुश्चरित्र कहने के लिए तैयार न हो । उस वक्त पृथ्वी को भी तृण समान माने-लेकिन अपना दुश्चरित्र न कहे । राजा कहे कि तेरा जीवन काट देता हूँ इसलिए तुम्हारा दुश्चरित्र कहो । तब प्राण का क्षय हो तो भी अपना दुश्चरित्र नहीं कहते । सर्वस्व हरण होता है, राज्य या प्राण जाए तो भी कोई अपना दुश्चरित्र नहीं कहते । मैं भी शायद पाताल-नरक में जाऊंगा लेकिन मेरा दुश्चरित्र नहीं कहँगा। सूत्र - १७८-१७९
जो पापी-अधम बुद्धिवाले एक जन्म का पाप छिपानेवाले पुरुष हो वो स्व दुश्चरित्र गोपते हैं । वो महापुरुष नहीं कहलाते । चरित्र में सत्पुरुष उसे कहा है कि जो शल्य रहित तप करने में लीन हो । सूत्र - १८०-१८३
आत्मा खुद पाप-शल्य करने की ईच्छावाला न हो और अर्धनिमिष आँख के पलक से भी आधा वक्त जितने काल में अनन्त गुण पापभार से तूट जाए तो निर्दभ और मायारहित का ध्यान, स्वाध्याय, घोर तप और संयम से वो अपने पाप का उसी वक्त उद्धार कर सकते हैं । निःशल्यपन से आलोचना करके, निंदा करके, गुरु साक्षी से गर्दा करके उस तरह का दृढ़ प्रायश्चित्त करे जिससे शल्य का अन्त आ जाए । दूसरे जन्म में पूरी तरह उपार्जन किए और आत्मा में दृढ़ होकर क्षेत्रीभूत हुए, लेकिन पलक या अर्ध पलक में क्षण-मुहूर्त या जन्म पूरा होने तक जरुर पापशल्य का अन्त करनेवाला होता है। सूत्र - १८४-१८५
वो वाकई सुभट है, पुरुष है, तपस्वी है, पंड़ित है, क्षमावाला है, इन्द्रिय को वश में करनेवाला, संतोषी है। उसका जीवन सफल है । वो शूरवीर है, तारीफ करने के लायक है । पल-पल दर्शन के लायक है कि जिसने शुद्ध आलोचना करने के लिए तैयार होकर अपने अपराध गुरु के पास प्रकट करके अपने दुश्चरित्र को साफ बताया है। सूत्र- १८६-१८९
हे गौतम ! जगत में कुछ ऐसे प्राणी-जीव होते हैं, जो अर्धशल्य का उद्धार करे और माया, लज्जा, भय, मोह के कारण से मृषावाद करके अर्धशल्य मन में रखे । हीन सत्त्ववाले ऐसे उनको उससे बड़ा दुःख होता है। अज्ञान दोष से उनके चित्त में शल्य न उद्धरने के कारण से भावि में जरुर दुःखी होगा ऐसा नहीं सोचते । जिस तरह किसी के शरीर में एक या दो धारवाला शल्य-काँटा आदि घूसने के बाद उसे बाहर न नीकाले तो वो शल्य एक जन्म में, एक स्थान में रहकर दर्द दे या वो माँस समान बन जाए । लेकिन यदि पापशल्य आत्मा में घूस जाए तो, जिस तरह असंख्य धारवाला वज्र पर्वत को भेदता है उसी तरह यह शल्य असंख्यात भव तक सर्वांग को भेदता है सूत्र-१९०-१९२
हे गौतम ! ऐसे भी कुछ जीव होते हैं जो लाख भव तक स्वाध्याय-ध्यान-योग से और फिर घोर तप और संयम से, शल्य उद्धार कर के दुःख और क्लेश से मुक्त हुए फिर से दुगुने-तीगुने प्रमाद के कारण से शल्य से पूर्ण होता है । फिर कईं जन्मान्तर बाद तप से जला देनेवाला कर्मवाला शल्योद्धार करने के लिए सामर्थ्य पा सकता है। सूत्र-१९३-१९६
उस प्रकार फिर से भी शल्योद्धार करने की सामग्री किसी भी तरह पाकर, जो कोई प्रमाद के वश में होता है वो भवोभव के कल्याण प्राप्ति के सर्व साधन हर तरह से हार जाता है । प्रमादरूपी चोर कल्याण की समृद्धि लँट लेता है । हे गौतम ! ऐसी भी कुछ जीव होते हैं कि जो प्रमाद के आधीन होकर घोर तप का सेवन करने के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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