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कालम्बनमित्यर्थः । एकस्मिन्नालम्बने चिन्तानिरोधः । चलं चित्तमेव चिन्ता, तन्निरोधस्तस्यैकत्रावस्थापनमित्यर्थः ॥” (९-२७)
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" एकाग्र " = एक + अग्र = एकाग्र शब्द में अग्र से आलम्बन अर्थ अभिप्रेत है । एक शब्द संख्यावाची है । एक ही आलम्बन रूप जो विषय है वह एकाग्र - एकालम्बन कहलाता है । ऐसे एक विषयरूप आलम्बन में चिन्ता का निरोध करना । यहाँ चलचित् को चिन्ता कहा है, और उसके निरोध-रोकनेपूर्वक एक विषयपर स्थिरतापूर्वक की स्थापना को ध्यान कहा है । यहाँ चिन्ता ध्यानादि क्या है यह देखें
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चलचित्त के प्रकार
थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चलं तयं चित्तं । तंज भावणा वा अणुपेहा वा अहवा चिंता ॥ २ ॥
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ध्यानशतक ग्रन्थ की दूसरी गाथा में स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो स्थिर अध्यवसाय है वही ध्यान है। तथा जो चंचल अध्यवसाय है वह चित्त है । ऐसा चित्त भावनारूप अनुप्रेक्षारूप तथा चिंतास्वरूप ३ प्रकार का कहा गया है । यहाँ भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता के ३ प्रकार बताकर मन को इनमें रखने घुमाने का संकेत किया है । अनन्त विषयों में घूमते-भटकते रहनेवाले इस मन को भावित करने के लिए भावनादि है । आयुर्वेद शास्त्र में एक औषध को आंवले के रस में बार-बार घूटने के लिए कहा है उससे वह औषध भावित बनती है । संस्कारित बनती है । २१ बार आंवले का रस चढाने औषधको २१ बार आंवले के रस में घूंटनी - रखनी चाहिए। जिससे औषध की प्रकृति में परिवर्तन हो सके। और गुण करने की शक्ति बढ़ सके । कस्तूरी के साथ किसी वनस्पति को एक रात बंद डिब्बी में रखने से वह वनस्पति दूसरे दिन कस्तूरी की सुगंध से प्लावित होती है । संस्कारित होती है । ठीक उसी तरह — इस चंचल चित्त को बार-बार ज्ञान - दर्शन – चारित्र आदि का पुट देने से, अनित्यादि १२ भावनाओं तथा मैत्री आदि ४ भावनाओं के द्वारा बार-बार इस मन को सुसंस्कारित करने से वह पवित्र तथा शान्त बनकर ध्येयरूप परमात्मा के ध्यान में एकाकार बन सकता है । तथा भावयोग में ये १६ भावनाएँ संवर स्वरूप हैं । अतः अशुभ कर्मों का आत्मा में प्रवेश को रोकती हैं। मन को शुभ भाव में प्रवृत्तीशील बनाकर शुद्ध की तरफ ले जाती है ।
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सद्धर्मध्यानसंधानहेतवः श्री जिनेश्वरैः ।
मैत्रीप्रभृतयः प्रोक्ताश्चतस्त्रो भावनाः पराः ॥
आध्यात्मिक विकास यात्रा