Book Title: Jain Jagaran ke Agradut
Author(s): Ayodhyaprasad Goyaliya
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ-लोकोदय-ग्रन्थमाला - हिन्दी-ग्रन्थाद १२ जैन-जागरणके अग्रदूत बीसवीं शताब्दी के दिवंगत और वयोवृद्ध प्रमुख दिगम्बर जैन कार्यकर्त्ता के संस्मरण एवं परिचय अयोध्याप्रसाद गोयलीय भारतीय ज्ञानपीठ का शी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ग्रन्थ- माला-सम्पादक और नियामक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन एम. ए., डालमियानगर प्रकाशक, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस प्रथम संस्करण ३००० जनवरी १९५२ लागतमात्र मूल्य रुपये मुद्रक, देवताप्रसाद गहमरी ! ससार प्रेस, काशीपुरा, वनारस Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत श्री जैन ती די ידיים 0771-25820 सदर बाजार, राम- 112001 के साजन्य से. "की जाग उठती है अक्सर इन्ही फलानोसे |" पुस्तक प्रतिष्ठान सतीबाजार, रायपुर (Roj अयोध्याप्रसाद गोयलीय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय तालिका [ त्याग और साधनके पावन प्रदीप ] संस्मरण लेखक १. ० सीतलप्रसाद जैनधर्म-प्रेमकी सजीव प्रतिमा सस्मरण इस युग समन्तभद्र जीवन - झाँकी अमर विभूति २. बाबा भगीरथ वर्णी निर्भीक त्यागी निस्पृही एक स्मृति पूज्य बाबाजी ३. क्षुल्लक गणेशप्रसाद वरणी ६. भूचा पावन चरणरज जीवन-रेखा अणोरणीयान् महतो महीयान् ४. आत्मार्थी श्री कानजी महाराज काठियावाडके रत्न आत्मार्थी श्री कानजी महाराज ५. ब्रह्मचारिणी चन्दावाई बापूका आशीर्वाद शत-शत प्रणाम प्रथम दर्शन माँ श्री सती- तेज पीहर - सासरेकी शोभा हमारे कुलकी गौरव सर सेठ हुकमचन्द्र गोलीय साहू शान्तिप्रसाद श्री राजेन्द्रकुमार जैन श्री कामताप्रसाद जैन क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी गोयलीय पृष्ठ ૪ * ५६ प० परमानन्द जैन शास्त्री श्री खुशालचन्द्र गोरावाला ६३ to कैलाशचन्द्र शास्त्री प० कैलाशचन्द्र शास्त्री १८ १६ २८ २६ ४६ गोयलीय ६८ प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला ६ε प० कैलाशचन्द्र शास्त्री दय गोयलीय गोयलीय ६२ ६३ my मोहनदास कर्मचन्द्र गाधी १०० श्री कन्हैयालाल प्रभाकर १०१ श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य १०७ श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ११७ श्री छोटेलाल जैन १३० १३२ १३३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक पृष्ट [ तत्त्वज्ञानके आलोक-स्तम्भ ] संस्मरण ७. गुरु गोपालदास वरैया मेरी तीर्थयात्रा गोयलीय १४० उनकी सीख महात्मा भगवानदीन १४५ परिचय पं० नाथूराम प्रेमी १५० आजन्म नहीं भूल सकता क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी १६३ ८. परिडत उमरावसिंह न्यायतीर्थ उनका वरदान गोयलीय १६६ मेरे गुरु प० कलागचन्द्र शास्त्री १७२ ६. पण्डित पन्नालाल बाकलीवाल जैन समाजके विद्यासागर श्री धन्यकुमार जैन १८६ १०. पण्डित ऋपभदास ___ गदडीमे लाल बाबू सूरजभान वकील १६२ ११. परिडत महावीरप्रसाद धर्म-स्नेहसे ओत-प्रोत गोयलीय १६८ १२. परिडत अरहदास क्या खूब आदमी थे गोयलीय २०४ सेवाभावी श्री रूपचन्द्र गार्गीय १३. पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार पथ-चिह्न श्री कन्हैयालाल प्रभाकर • २०० यह तपस्वी गोयलीय १४. परिडत नाथूराम प्रेमी मेरा सद्भाग्य श्री जैनेन्द्रकुमार २४० मेरे दादा स्व० हेमचन्द्र मोदी २४५ स्मरणाध्याय आचार्य पं० सुखलाल संघवी २६४ २०५ २२५ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ २६० २६९ [नवचेतनाके प्रकाशवाह ] संस्मरण लेखक १५. वावू सूरजभान वकील पूजनीय बापूजी श्री नाथूराम प्रेमी जैन-जागरणके दादा भाई श्री कन्हैयालाल प्रभाकर २८३ १६. बाबू दयचन्द्र गोयलीय मुसीवतका साथी महात्मा भगवानदीन मूक साधक श्री माईदयाल जैन १७. कुमार देवेन्द्रप्रसाद श्रद्धाञ्जलि श्री गुलाबराय एम० ए० ३०२ परिचय श्री अजितप्रसाद जैन वकील ३०६ १८. वैरिस्टर जुगमन्दिरलाल जैनी जिन-वाणी-भक्त श्री अजितप्रसाद वकील ३२२ १६. श्री अर्जुनलाल सेठी एक मीठी याद गोयलीय ३२६ अधूरा परिचय गोयलीय ३४२ और भी गोयलीय सेठीजीके दो पत्र गोयलीय और अगर मर जाइये ... महात्मा भगवानदीन ३७३ २०. बैरिस्टर चम्पतराय 'उन्हे मरना नहीं आता गोयलीय ३८२ जीवन-झांकी श्री बनवारीलाल स्याद्वादी ३६१ वे और उनका मिशन श्री कामताप्रसाद ४०० २१. श्री ज्योतिप्रसाद जैन वे मुझे अक्सर याद आते है ? श्री कन्हैयालाल प्रभाकर ४२२ २२. श्री सुमेरचन्द्र एडवोकेट गोयलीय ४३० २३. वाबू अजितप्रसाद वकील स्वलिखित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक संस्मरण ४५.२ १५.६ ८६० ४६६ કર गोयलीय ४८४ गोयलीय ४८८ ४३८ २४. बाबू सूरजभान मालव-क्रान्तिके दूत श्री कौगलप्रसाद जैन वह देवता नहीं, मनुष्य था श्री दौलतराम मित्र २५. महात्मा भगवानदीन तप-त्यागको मूर्ति गोयलीय महात्माजी श्री जैनेन्द्रकुमार . [श्रद्धा और समृद्धिके ज्योति-रत्न ] २६. राजा हरसुखराय गोयलीय २७. सेठ सुगनचन्द्र २८. राजा लक्ष्मणदास महासभाके जन्मदाता श्री गुलाबचन्द्र टोग्या उनके उत्तराधिकारी २६. सेठ माणिकचन्द्र श्री नाथूराम प्रेमी ३०. महिलारत्न मगनवाई गोयलीय ३१. सेठ देवकुमार ५० हरनाथ द्विवेदी ३२. सेठ जम्बूप्रसाद श्री कन्हैयालाल 'प्रभाकर' ५१६ ३३. सेठ मथुरादास टडैया श्री हुकमचन्द्र बुखारिया ५३० ३४. सर मोतीसागर श्री कन्हैयालाल प्रभाकर ५४१ ३५. रा०व० जुगमन्दरदास गोयलीय ३६. रा०व० सुल्तानसिंह वाग्रेसके मूक सेवक यह भव्य व्यक्तित्व ३७. सर सेठ हुकमचन्द्र राज-ऋषि पूज्य काकाजी सेठ हीरालाल ५४५, गोयलीय श्रीमती कुथा गोयलीय ५८५ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय १. इस प्रथम भागमे पहली पीढीके उन दि० जैन कुलोत्पन्न २६ दिवगत और ८ वर्तमान वयोवृद्ध महानुभावोके सस्मरण एवं परिचय दिये गये है, जो वीसवी शताब्दीके लगभग प्रारम्भसे लोकोपयोगी कार्यों अथवा जैनसमाजके जागरणमें किसी-न-किसी रूपमे सहयोग देते रहे है। २ दूसरी पीढीके उन प्रमुख, व्यक्तियोका परिचय जो १९२० के आस-पास कार्य-क्षेत्रमें आये, द्वितीय भागमे दिया जायगा। पहली पीढ़ीके साथ द्वितीय पीढीको विठाना उपयुक्त नही समझा गया । ३ यूं तो न जाने कितने त्यागी, विद्वान्, सुधारक, लोकसेवक, साहित्यिक, दानवीर और मूक साधक जनसमाजमें हुए और है, किन्तु उन सभीका परिचय पाना, लिखना, लिखाना किसी भी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नही। यह महान कार्य तो समूचे समाजके सहयोगसे ही सम्भव हो सकता है। ज्ञानपीठ तो एक प्रथाका उद्घाटन कर रहा है। अब यह समाजके लेखकोका कर्तव्य है कि वे जिनके बारेमें जानकारी रखते है, उनके सम्बन्धमे लिखें और इस प्रथाको अधिकाधिक विकसित करें। सुरुचिपूर्ण सस्मरणोका 'ज्ञानोदय' सदैव स्वागत करेगा। ४ हम कव तक इतिहासके अभावका रोना रोते रहेगे? हमारे पूर्वजोका इतिहास जैसा चाहिए वैसा उपलब्ध नहीं है, तो न सही। हमे नये इतिहासका निर्माण तो अविलम्ब प्रारम्भ कर ही देना चाहिए । जो हमारी समाजकी विभूतियाँ हमारे देखते-देखते ओझल हो गई, या आज भी जिनका दम गनीमत है, उनका परिचय तो शीघ-से-शीघ्र लिख ही डालना होगा। अन्यथा जो उलाहना आज हम अपने पूर्ववर्ती Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय लेखकोको देते रहे है, वही उलाहना आगेकी पीढी हमे देनेको मजबूर होगी। ५. हमे खेद है कि इन महानुभावोके सम्बन्धमे अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी कुछ नही दिया जा सका-डिप्टी चम्पतराय, पं० चुन्नीलाल, प० बालमुकन्द, जैनी जीयालाल, जनी ज्ञानचन्द, तीर्यभक्त लाल देवीसहाय, ला० शिब्बामल, ला० जगन्नाथ जौहरी, पं० मेवाराम रानीवाले, वा० ऋपभदास वकील, वा० प्यारेलाल वकील, प० वृजवासी लाल, जिनवाणीभक्त ला० मुराद्दीलाल, रायबहादुर पारसदास । ____. पुस्तकमे कई महानुभावो का परिचय कतई अधूरा है। हम 'उनका विस्तारसे परिचय देना चाहते थे। लेकिन उनके कुटुम्बियो, समकालीन सहयोगियो-मित्रोको अनेक पत्र लिखने पर भी सफलता नहीं मिली। यहाँ तक कि कई व्यक्तियो की तो जन्म-मरण की तिथियां भी विदित न हो सकी, और जो मिली भी वे बेतरतीब । कही, जन्मसमय तिथि-सवत्का उल्लेख है तो मृत्यु-समय तारीख सन् का । ____७ एक-दो को छोडकर प्राय सभी चित्र पुराने पत्र-पत्रिकाओंने लेकर नये सिरेसे उनका डिजाइन कराके व्लाक बनवाये है। यदि चित्र सुन्दर मिलते तो ब्लाक भी उतने ही आकर्षक होते । क चित्र तो 'मिल ही नहीं सके। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक जलती मशाल है। "जन जागरणके अग्नदूत” नामकी एक पुस्तक ज्ञानपीठ प्रका शित कर रहा है। उसमें आपके भी कुछ लेख ले रहा हूँ। जानता हूँ इसमें कोई ऐतराज तो आपको हो ही नहीं सकता, इसलिए यह सिर्फ इत्तला है।" श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीयका बहुत दिन हुए यह पत्र मिला, तो सचमुच मैने इसे एक मामूली इत्तला ही माना और यह इत्तला बस मेरे दिमागको जरा यो ही छूकर रह गई, पर ज्यो-ज्यो पुस्तकके छपे फर्मे मेरे पास आते गये, मै रसमें डूवता गया-जैसे अनेक वार हरकी पैडियाँ उतरकर ब्रह्मकुण्डमें नहाया हूँ, और आज जब यह पुस्तक पूरी हो रही है, तो मुझे लगता है कि रोज-रोज छपकर हमारे हाथो आनेवाली पुस्तकोकी तरह यह कोई पुस्तक नहीं है, यह तो एक जलती मगाल है। ___ जलती मशाल जो हमारे चारो ओर फैले और हमें पूरी तरह घेरकर खडे हुए भूतोकी भीड-से अँधेरेको चीरकर हमें राह दिखाती है। राह, जिसपर हमारे पैर हमें हमारी मजिलकी ओर लिये चलें और राहजिसपर हमारे दिल-दिमाग दूर तक साफ-साफ देख सकें ! एक घना अँधेरा है, जो हमें चारो ओरसे घेरे खडा है। वह अंधेरा है-'आज' के मोहका । हम हर बातमें 'आज' को कलसे अधिक महत्त्व देते है । अधिक महत्त्व देना कोई बुरी बात नहीं, अनहोनी घटना भी नहीं; क्योकि हमारी आँखें देखती ही है, हमारे सामनेकी चीज-न पीछे, न बहुत आगे, पर हम आजके इस मोहमें कलकी उपेक्षा करते है । ____ कल जो कल बीत चुका और कल, जो कल आयेगा। एक कल, जिसने अपनेको मिटाकर, खपाकर हमारे आजकी नीव रक्खी और एक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक जलती मशाल है कल, जो अपनेको छिपाये, गुमनाम रक्खे, हमारे जीवनमहलके गुम्बदोपर स्थापित करनेके लिए सोनेके कलश गढ़े जा रहा है । 25 नीव जिसके विना अस्तित्व नही और कलन, जिसके बिना व्यक्तित्व नही, तो 'कल' हो है, जो हमारी सम्पूर्णताकी रचनाएँ अपनी सम्पूर्णताका आत्मार्पण किये जा रहा है और उसके ही द्वारा रचित है वह सम्पूर्णता हमारी, जिसके गर्वमें, दर्पमें और भुलावेमें पडे हम उसकी उपेक्षा करें ! कल जो कल बीत चुका और कल, जो कल आयेगा ! X X X एक घना अँधेरा है, जो हमे चारों ओरसे घेर खडा है । यह अंधेर है- आजकी उपेक्षाका । हम हर बातमें कलके गीत गाते हैं, कलके सपन देखते है । कल : जो बीत गया, और कल, जिसका अभी कोई अस्तित्व नही । कलके गीत और कलके सपने कोई बुरी बात नही, क्योंकि स्मृतियो का आधार है कल और कल्पनाओका आगार है कल, पर हम कल और कलके मोहमें आजकी उपेक्षा करते है । X X . X आजका मोह, कलकी उपेक्षा, एक अंधेरा ! कलका मोह, आजकी उपेक्षा, दूसरा अँधेरा || फिर स्वस्थता कहाँ है ? प्रकाश कहाँ है ? स्वस्थता और प्रकाश जीवनके व्यापक तत्त्व है । स्वस्थता, तो फिर सम्पूर्ण स्वस्थता और प्रकाश तो वस प्रकाश ही प्रकाश । एकागिता अन्धकार हैं, समन्वय प्रकाश । एकान्तवादी दृष्टिकोण है अन्धकार और अनेकान्तवादी दृष्टिकोण है प्रकाश | 1 हम कल थे, हम आज हैं, हम कल होगे और यो हमारा अस्तित्व कलसे कलतक फैला है । एक कल हमारी वायी मुट्ठीमें, एक दायीमें और हमारे सांस आजकी हवामें । हम देखें पीछे, हम जियें आज, हम वढें आगे | पीछे देखने का अर्थ है जीवनके अनुभव, आज जीनेका अर्थ है जीवनकी साधना, आगे बढनेका अर्थ है जीवनकी सिद्धिका विश्वास 1 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत जीवनके अनुभव, जीवनकी साधना, जीवनकी सिद्धि, इनमें किसी एककी भी उपेक्षाका अर्थ है खण्डित जीवन और खण्डित जीवन निश्चय ही खण्डित देहसे वडी विडम्बना है। ___ यह पुस्तक हमें जीवनकी इस विडम्बनासे बचाती और जीवनकी स्वस्थ राह दिखाती है। हम उनका अभिनन्दन करे, जो कल आजका निर्माण कर गये, हम इस तरह जियें कि कलके निर्माता हो और यही मैं कहता हूँ-रोज-रोज छपकर हमारे हाथो आनेवाली पुस्तकोकी तरह यह कोई पुस्तक नहीं, यह तो एक जलती मशाल है । ___ पुरानोकी स्मृतिका अभिनन्दन, हमारे लिए कोई नई बात नहीं। हमारा ही राष्ट्र तो है, जिसने जीवितोके प्रति श्रद्धाके साथ मृतकोका श्राद्ध करनेकी महान् प्रथाका आविष्कार किया और हमी तो है, जिनके आँगनमें प्यारकी स्मृति ताजमहल वन, ससारका सातवां आश्चर्य हो गई । पुरानोकी स्मृतिका अभिनन्दन, हमारे लिए कोई नई बात नहीं, पर हमी तो है, जिनका इतिहास दूसरोका अन्दाज बनकर जी रहा है और हमी तो है, जिनके पास, अपने शहीदोकी एक सूची तक नही । पुरानी वात मै नही कहता, यही १८५७ से १९४७ तकके स्वतन्त्रता-युद्धमें बलि हुए शहीदोकी सूची १८५७, जब घने अधकारमें पड़े-सोते राष्ट्रके जीवनमें गैरतकी पहली पौ फटी और १९४७; जब कुलमुलाते, करवट बदलते राष्ट्रके जीवनमें स्वतन्त्रताका सूर्योदय हुआ। ४३ साल वे, और ४७ साल ये । गैरतसे आजादी तकके नये जागरणके पथचिह्न, जो कुछ हमारे चलते परो रौदे गये और कुछ समयकी हवासे धुंधले पड चले। हम लापरवाही और प्रमादका मद पिये पडे रहे और अपनी घडीको भी उसकी खूराक न दे, गतिहीन रक्खें, पर समयकी गतिका रोकना तो हमारे वश नही | और कौन-सा कायर है, जिसे समयकी गतिने धुंधला कर मिटा न दिया? तो हम चाहें या न चाहें, समयकी हवा नये जागरण Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक जलती मशाल है १३ के इन असुरक्षित घुंघले पथचिह्नोको धुन्दकी तरह उड़ाने में चूकेगी नही | और ये पथचिह्न ही तो है, जो भविष्यमें हमारे नये जागरणके इतिहासनिर्माणका बल होगे । 'जैन - जागरणके अग्रदूत' अपनी दिशामें इन धुंधले और मिटे जा रहे पथचोको श्रद्धासे, श्रमसे, सतर्कतासे समेटकर सेफम रस लेनेका ही एक मौलिक प्रयत्न है और यह प्रयत्न अपनी जगह इतना सफल रहा है कि 'आज' उसका मान करनेमें चूक भी जाये, तो 'कल' उसका सम्मान कर स्वयं अपनेको कृतार्थ मानेगा । X x X इस प्रयत्नकी मौलिकतापर हम एक नज़र डालते चलें । हम सक्रान्तिकालसे गुजर रहे है, जब बहुत कुछ पुराना टूट रहा है और नया वन रहा है। हर आदमी निर्माता नही होता और टूटफूटकी अव्यवस्थाएँ घबरायासा रहता है । अव्यवस्थाकी इसी घबराहटमें आज हम जी रहे हैं और इस स्थितिमें नही है कि अपने जागरणका इतिहास लिखनेको पलोयी मार बैठें ! उधर समयकी हवा पुराने पथचिह्नाके खण्डहरोका मलवा साफ करनेमें तेजी से लगी है, तो आज जो अनिवार्य है, वह यही कि हम अपने-अपने हिस्सेकी स्मृतियोका चयन कर लें । इस चयनमें इतिहासका ठोस होगा, तो काव्यकी तरलता भी । यह ठोस भविष्यमें इतिहासका ईट-चूना, तो यह तरलता उसे जोडनेकी प्रेरणा और यो दोनो ही अत्यन्त उपयोगी | यह पुस्तक, यह जलती मशाल, इस चयनका महत्त्व बताती, उसका तरीका सिखाती और नये जागरणके भिन्न-भिन्न क्षेत्रो साधकोको हाँक लगाती है । मेरा विश्वास है कि यह हाँक कण्ठकी नही, हृदयकी हैं और कानो तक ही नही, दिलोकी गुफाओ तक गूंजेगी ! X X X यहाँ जो लेख है, वे जीते-जागते लेख है और 'वकालतन' नही, जनता की अदालत में 'असालतन' आनेवालोमें है । वे न उनकी कलमके आँसू Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरण अन्त है. लेकर भाग जल है और न उन झोठीनी कगह, जो दिनो नो नो नो नोगे ना मानते है। उनकी कलमके करिश्मे है. जो अपने ही दुलन रोते और अपने ही नबनें हमने है। यही गरण है कि नोतर पनी तनवीसमें रंगांकी मन ही नही हल्ली हो, नावनागेनी ना हर जगह मन्त्री हुई है। हां, उन्नं कुछ कहनेकी अनिरंत्र में नहीं जो जन्मन लिए नहीं, मेटन देखकर अन्नमारीमें मज्ञानेने लिए ही मिना खरीदने है। जानता हूँ ज्ञानपीना साधनमानदण्ड उनकी प्यानले लिए नी पोल है, पर ने अपनी निजारिता आगर उसे न्यो ! अरब इन बचनने नाली श्री गोपनीयके लिए या कहूँ, जो मदा सानोनी उपेना जर, नायनाने ही पीछे पागल रहा मान जिनके निर्माण में ब्रह्माने पनगत कर गायरल दिन. निना माल और सपूतकी नेत्रावृतिको एक ही जगह मेन्टिन कर दिया। हमारे ही बीत्र है, वे जो वनं गाना बनाते है और हमारे ही वौत्र है, वेजो नन्दिरोगनिगंग करने है, परन्ग इन पुन्नका निमांग धर्मगाला लोर नन्दिरने निनांग कम पवित्र है। कन्हयालाल मिन्न 'अनार सहारनपुर, १८ दिनम्बर १९५१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ हमारे यहाँ तीर्थद्वरोका प्रामाणिक जीवन-चरिन नहीं, आचायोंके कार्य-कलापको तालिका नहीं, जैन-संघके लोकोपयोगी कार्योकी सूची नहीं; जैन-सम्राटो, सेनानायको, मत्रियोके बल-पगनम और गागनप्रणालीका कोई लेखा नही, साहित्यिकों एव कवियोका कोई परिचय नहीं। और-तो-और, हमारी आँखोके सामने कल-परसो गुजरनेवाली विभूतियोका कही उल्लेख नही, और ये जो दो चार बडे-बूढे मौतकी चौखटपर खडे है। इनसे भी हमने इनके अनुभवोको नहीं सुना है, और शायद भविष्यमे दस-पांच पीढीमें जन्म लेकर मर जानेवालो तकके लिए परिचय लिखनेका उत्साह हमारे समाजको नही होगा। प्राचीन इतिहास न सही, जो हमारी आंखोके सामने निरन्तर गजर रहा है, उसे ही यदि म बटोरकर रख सके, तो शायद इसी बटोरनमें कुछ जवाहरपारे भी आगेकी पीढीके हाथ लग जाएँ । इनी दृष्टि से बीती ताहि विसार देशागेकी सुध लेहि नीतिके अनुसार सस्मरण लिखनेका डरते-डरते प्रयास किया। डरतेडरते इसलिए कि प्रथम तो मै सस्मरण लिखनेकी कलासे परिचित नही । दूसरे अत्यन्त सावधानी बरतते हुए भी यत्र-तत्र आत्म-विनापनकी गन्ध-सी आने लगी । नीसिखुआ होनेके कारण इस गन्धको निकालनेमे समर्थ न हो सका। तीसरे मेरा परिचय क्षेत्र भी अत्यन्त सकुचित और सीमित था। फिर भी साहस करके दो-एक संस्मरण, परोको भेज दिये। प्रकाशित होनेपर ये अनसँवरी टेढी-मेढी रेखाएँ भी अपनोको पसन्द आई, और उन्हीके आग्रहपर ये चन्द सस्मरण और लिखे जा सके। .इन सस्मरणोको ज्ञानपीठकी ओरसे पुस्तकाकार प्रकागित करनेको वात उठी तो मुझे स्वय यह प्रयत्न अधूरा और छिछोरापन-सा मालूम देने लगा। "इन्ही महानुभावोके संस्मरण क्यो प्रकागित किये जाये, अमुक-अमुक महानुभावोके सस्मरण भी क्यो न प्रकाशित किये जाये ?" यह स्वाभाविक प्रश्न उठना लाजिमी था। लोकोदय-ग्रन्थमालाके विद्वान् Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत १६ और यशस्वी सम्पादक भाई लक्ष्मीचन्द्रजीकी सम्मति से निश्चय हुआ कि ये सस्मरण निम्नलिखित चार भागोमे प्रकाशित किये जाये --- प्रथम भाग में - पहली पीढीके उन दिवगत और वर्तमान वयोवृद्ध दि० जैन कुलोत्पन्न विशिष्ट व्यक्तियोके सस्मरण एव परिचय दिये जायें जो वीसवी शताब्दी के पूर्व या प्रारम्भमे समाज सेवाकी ओर अग्रसर हुए । द्वितीय भाग में दूसरी पीढीके उन महानुभावोका उल्लेख रहे, जो १६२० के बाद कार्य-क्षेत्रमें आये । तृतीय- चतुर्थ भाग - श्वेताम्बर - स्थानकवासी जैन प्रमुखोके परिचय १९०१ से १९५२ तकके दिये जाये । इस निर्णयके अनुसार प्रथम भागकी जो तालिका बनी, उन सबपर किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखा जाना कतई असम्भव और उपहासास्पद प्रतीत हुआ । अत निश्चय हुआ कि प्रत्येक व्यक्तिका सस्मरण एव परिचय सम्वन्धित और अधिकारी महानुभावोसे लिखाये जायें और afar -से-अधिक जानकारी दी जाय, ताकि पुस्तक इतिहास और जीवनीका काम भी दे सके । जितना मैं लिख सकता था, मैने लिखा, अनुनय-विनय करके जितना लिखवा सकता था, लिखवाया । जीवन चरित्रो, अभिनन्दन ग्रन्थो और पत्र-पत्रिकाओसे जो मिल सका, चयन किया । मेरे निवेदनको मान देकर - 1 महात्मा भगवानदीनजी, भाई प्रभाकरजी, श्री खुगालचन्द्रजी गोरावाला, प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य प० नेमिचन्द्रजी, प० नाथूराम जी प्रेमी, प० रूपचन्द्रजी गार्गीय, श्री कौशलप्रसादजी, गुलाबचन्द्रजी टोया, प० हरनाथ द्विवेदी, श्री हुकमचन्द्रजी बुखारिया, श्रीमती कुन्या देवी जैनने सस्मरण एव परिचय भेजने की कृपा की है । इन्हीके लेखो से पुस्तक में निखार आया है, और इन्हीके सौजन्यसे पुस्तक अपने वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति कर सकी है । ढालमियानगर ( बिहार ) श्र० प्र० गोयलीय ५ जनवरी १९५२ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S सीतलप्रसाद जी जन्म दीक्षा स्वर्गवास - ब्रह्मचार Gorg -- लखनऊ १८७६ ई० सोलापुर १६११ ई० लखनऊ १० फरवरी १६४२ ई० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-प्रेमकी सजीव प्रतिमा - - सर सेठ हुकमचन्द्र पूज्य ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीको हम जैनधर्मके सच्चे महात्मा | मानते है। धर्मकी वे एक सजीव मूर्ति थे। उनकी धार्मिक निष्ठा और लगनके कारण हमारी उनपर महान् श्रद्धा थी, और हम उनके प्रति बहुत पूज्य बुद्धि रखते थे। जव-जब वे इन्दौर पधारते हमें उनके दर्शन करके अत्यन्त खुशी होती थी; और एक दिन तो अवश्य उनके साथ जीमते थे। वे एक महापुरुष थे। स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके साथ उनकी मेरी पहिली भेट हुई थी। उनके अन्तिम दर्शन मुझे रोहतकमे हुए। रोहतकमें वे अस्वस्थ थे और विशेषकर उनके स्वास्थ्यको पूछनेके लिए और उनके दर्शन करनेके लिए हम रोहतक गये थे। चूंकि उस महान् आत्मामे हमारी अत्यन्त पूज्य बुद्धि थी। ___ जब-जब वे हमसे मिलते थे, तब-तव जैन विश्वविद्यालयकी स्थापनाके लिए अवश्य प्रेरणा करते थे । इस सम्बन्धमे उनकी वडी दृढ लगन और भावना थी । यह उनकी साधना अपूर्ण रह गई। -वीर, ८ अप्रैल, १९४४ - - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण - गोयलीय सन् १३ या १४ की बात है, मैं उन दिनों अपनी ननिहाल (कोमीकलां, मथुरा) की जैन पाठशालामे पढा करता था । वालवोध तीनरा भाग घोटकर पी लिया गया था और महाजनी हिसावमे कमाल हासिल करनेका असफल प्रयत्न जारी था। तभी एक रोज एक गेरुआ वस्त्रधारी -- हाथमे कमण्डलु और वगलमे चटाई दवाये कसवेके १०-५ प्रमुख सज्जनोंके नाथ पाठशाला में पधारे । चाँद घुटी हुई चोटीके स्थानपर यूं ही १०-५ रत्तीभर वाल, नाकपर चश्मा, सुडौल और गौरवं शरीर, तेजसे दीप्त मुखाकृति देख हम सब सहम गये । यद्यपि हाथमे उनके प्रमाण-पत्र नही था, फिर भी न जाने कैसे हमने यह भाँप लिया कि ये कोरे बाबाजी नहीं, बल्कि बाबू वावाजी है | साधु तो रोजाना ही देखनेगे आते थे, बल्कि आगे बैठने के लालचमे हम खुद कई वार रामलीलाओमे साधु बन चुके थे, परन्तु कितावी पाठके सिवा सचमुचके जीते जागते साधु भी जैनियोंमें होते हैं, इस विलुप्त पुरातत्त्वका साक्षात्कार अनायाम उसी रोज हुआ । में आज यह स्मरण करके कल्पनातीत आनन्द अनुभव कर रहा हूँ कि बचपनमे मैंने जिस महात्माके प्रथमवार दर्शन किये, वे इस युगके समन्तभद्र ० सीतलप्रसादजी थे । विद्यार्थियोकी परीक्षा ली । देव-दर्शन और रात्रि भोजन त्यागका महत्त्व भी समझाया । दो-एक रोज रहे और चले गये, मगर अपनी एक अमिट छाप मार गये । जीवनमे अनेक त्यागी और साधु फिर देखनेको मिले, मगर वह वात देखनेमे न आई । "तुलसी कारी कामरी, चढौ न दूजौ रंग ।" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन-जागरणके अग्रदूत . . सैकडो पढे हुए पाठ भूल गया। जोरेको वजाय सौंप और धनियेके वजाय अजमायन लानेकी मैने अक्सर भूल की। पर न जाने क्यो ७० सीतलप्रसादजीको जो पहलीवार देखा तो फिर न भूला। उस बोरिया नशींका' दिलीमें मुरीद हूँ। जिसके रियाज़ों जुहदमें एरिया न हो । --अज्ञात सन् १९१६ मे रौलटऐक्ट विरोधी आन्दोलनके फलस्वरूप अध्ययन के बन्धनको तोडकर सन् २० मे मै दिल्ली चला आया। उसी वर्ष ब्रह्मचारीजीने दिल्लीके धर्मपुरेमे चातुर्मास किया। भूआजीने रातको आदेश दिया कि प्रात काल ५ वजे ब्रह्मचारीजीको आहारके लिए निमन्त्रण दे आना, निमन्त्रण विधि समझाकर यह भी चेतावनी दे दी कि "कही ऐसा न हो कि दूसरा व्यक्ति तुमसे पहले ही निमन्त्रण दे जाय और तुम मुंह ताकते ही रह जाओ।" ब्रह्मचारीजीके चरणरज पडनेसे घर कितना पवित्र होगा, आहार देनेसे कौन-सा पुण्य वन्ध होगा, उपदेश-श्रवणसे कितनी निर्जरा होगी और कितनी देर सवर रहेगा--यह लेखा तो भूआजीके पास रहा होगा, मगर अपनेको तो वचपनमे देखे हुए उन्ही ब्रह्मचारीजीके पुन दर्शनको लालसा और निमन्त्रण देनेमे पराजयकी आशकाने उद्विग्न-सा कर दिया, बोला "यदि ऐसी बात है तो मैं वहाँ अभी जा बैठता हूँ, अन्दर किसीको घुसते देखूगा तो उससे पहले मै निमन्त्रण दे दूंगा।" भूमाजी मेरे मनोभावको न समझ कर स्नेहसे वोली-"नही, वन्ने । (दूल्हा) अभीसे जानेकी क्या जरूरत है । सवेरे-सवेरे उठकर चले जाना।" १ बोरिया अथवा चटाई पर बैठा हुआ वपस्वी। २ व्रत और 'त्यागमे । ३ बनावटको गन्ध । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत उसी उत्पवर्ग मैने अ० जीका भाषण पहले-पहल गुना । यह सीगादे ढंगगे गग्न भाषागे वोगन गे-जो भी उनके भाषणको गुनता, वह प्रभावित पविना न गला । उनको गर्ने हिन्दीमें ही बोलने मुना। ni, जब गो: अंग्रेजी-माना नाम बीन-चीलगं अगंजी भी बोलने जाते । जनमाणमें आध्यात्मिा पट मनी भी। या अध्यात्ममय थे-माने नयां करने जोर आमगुमा ग्न यस और दारोगो देने पे। स्टागे उसोने नातुर्माग frया भागी गन्मानी आग्में जना गायंजना न्यायान आ| विषय ना 'सार' | मझे मकान भा-या अनुमान नगर गाउपार पर बोला हा, पर जन-गिलान्तली आयात्मिानागो जननापे नम्मा गदंगे। उन्होंने उगमा गय प्रविणायन रिया और फिर उगे गष्ट्रियनारे रगगे भी रंग दिया-पदेनी पकार भी 'उपहार' में ला दिया | गुननेवाले गी। ऐगा नापण उन्होने नही गुना होगा। जगवन्तनगग्न प्रतिष्ठोलावणी परिगगाप्तिपर पर जाने लगेहम लोग उनको विया पग्ने ग्टेगन नक गर्ग। मैने पगण-गज नी। आशीवाद देकर बोनदेगी, गिगरेट गभी मन पीना, गागफनो निगरेट पीकर बुरी गगतिगें पाने है।" . जो ना नन शा। जिन बात की चेतावनी जन्तीने मुझे दी थी, वह मेरे पाय-जीवनमें आगे आई थी। उनको शिक्षा ही नायद यह अनान प्रभाव पाकिम दुस्मगतिमें पउनेमे बन गया। यह अपने भातजनो चग्निनिर्माणका पूरा ध्यान रखते थे; पयोकि वह जानते थे कि कोरी श्रद्धा और छंछा शान, चरित्र विना अधूरे है। वह नियम नियाते थे, परन्तु यही, जिनको लेनेवाला सुगमतासे पाल मके। दिगम्बर जैन' और 'जन-मित्र' के पढते रहने से मुझे लेस लिसनेका चाव हुआ। मुझे ममाचार-पत्र पढनेका शौक 'दिगम्बर जैन' के सचित्र विशेषाकोसे हुआ। मैने भी कुछ लिखा । क्या? यह याद नही। वह शायद समाजोन्नतिके विषयपर था। उरते-डरते मैंने उसे ३० जीके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. सीतलप्रसाद १६. पास भेज दिया । शायद तब मैने ठीय-गी हिन्दी भी न नितीगी। किन्तु न० जीने उसे 'मित्र' में प्रकाणित गार दिया । अपना लेग में छपा हुआ देखकर मैं बहुत प्रनन हुमा । मै नितान्त र परिपद की स्थापनाके समय 'वीर' के गम्पादाना बनाव हनिको पा । गायन व जीने ही मेरा नाम तजवीज किया, में जगमजनम ५ गया, दिन इतना वडा उत्तरदायित्व में कैसे लेना? किन्तु जी व्यनियान नाम लेना जानते थे। मेरे सालको उन्होंने बटाया । आगिर नपर मैने उनकी बात मानी कि वह सम्पादक रहे और मैं नहायता । वह पर अकमे अपना लेख देते रहे, वाकी मेंटर में जुटाऊँ ! यही हुआ। गायद एक साल वह सम्पादक रहे। बादमे 'चीर' का भार म माप दिया ! व० जीने मुझे लेखका और मपादक बना दियानिमित्त उन्होंने जलाया था । __ इटावेके चातुर्मासमे मै उनको मत्सगतिका लाभ उठाने के लिए भादोके महीनेमे वही रहा । श्री मुन्नालालजीनी धर्मगानामे ऊपर . जी ठहरे हुए थे और उसी धर्मनालामे नीचे हम लोग थे। उन समय मुझे व० जीको निकटसे देखनेका अवसर मिला था और में ज्यादा न लिपर र यही कहूंगा कि ब्र० जी ओतप्रोत धर्ममय थे। उनमे गप्ट्रधर्म भी था समाजधर्म भी था और आत्मपर्म भी था। उस समय एक दफा उन्हें लगातार दो दिन निर्जल उपवान करना पड़ा, इसमें शारीरिक मिथिलता आना अनिवार्य था। व० जो रातको धर्मोपदेश दिया करते थे। हम लोगोने यह उचित न समझा विव० जी वैसी दशाम बोले । जब उन्होंने सुना, वह मुस्कराये और धर्मोपदेग देनेमे लीन हो गये। उस रोज वह खून वोले-~~-अध्यात्म रस उन्होने खूब छलकाया । यह था उनका आत्म-बल ! इटावेके चातुर्मासमे उन्होंने मुझे 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्रजी' का अर्थ पटाया । मुझे ही नही, इटावेके एक तत्त्वदर्शी अर्जन विद्वान्को भी वह जैनधर्मका स्वरूप समझाते रहते थे। आखिर जैनधर्मको उन्होने ३० जोसे पढ़ा । जैनपूजामें भक्तिरसकी निर्मल विशुद्धिका परिचय भी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैन-जागरणके अग्रदूत स्वय पूजा करके उन्होने सवको बताया | साराश यह कि अज्ञान अन्धकार मेटनेके लिए व० जी सदा प्रयत्नशील रहते थे । लखनऊमें परिषद्का अधिवेशन था और उसमें मुख्य कार्य एक अजैन क्षत्रियको जैनधर्मकी दीक्षा देना था | उस क्षत्रियवीरका नाम श्री प्यारेलाल था। व० जीने ही उसको जैनधर्मका श्रद्धालु बनाया था और उन्होने ही उसे जैनधर्मकी दीक्षा दी थी। जैनदीक्षा कार्यका प्रचार उन्होने प्लेटफार्म और प्रेससे ही नहीं किया, बल्कि स्वयं अपने कर्मसे उसे मूर्तिमान बनाकर दिखाया ! किन्तु जो जैनी आज अपने जन्मत जैनी भाइयोसे मिल-जुलकर एक होनेमे सकोच करते है, उपजातिके मोहमें जैनत्वको भुलाते है, वह भला अजैन बन्धुके जैनधर्ममें आनेपर उसे कैसे गले लगाते ? यही कारण है कि ब्र० जी द्वारा रोपा गया जैनदीक्षाका पवित्र धर्मवृक्ष पल्लवित न होकर सूख गया है। विवेकशील जैनजगत् ही इस वृक्षको फिरसे रोप सकता है ! मेरी इच्छा थी कि ७० जी कभी अलीगंज आवें। मैने उनसे कह भी रक्खा था, परन्तु उस दिन वह जैसे आये, वह उनकी सरलता और समुदारहृदयताका द्योतक है । मै घरमे था-एक लडकेने आकर कहा, "आपके साधुजी धर्मशालाके चबूतरेपर बैठे है ।" मेरा माथा ठनका, मनने कहा, क्या ७० जी आ गये? जाकर देखा, सचमुच ब्र० जी आ गये है। वह बोले, "लो, हम तुम्हारे घर आ गये।" इस वत्सलताका भी कोई ठिकाना था। मै सकुचाया-सा रह गया और उन्हे आदरपूर्वक घर लिवा लाया। उस समय स्थितिपालक जैनी ब्र० जीकी स्पष्टवादिता और 'सनातन जैन समाज की स्थापना करने के कारण उनसे विमुख-से हो रहे थे। अलीगजमे भी कुछ जैनी इस रगके थे। अ० जीका भाषण हुआ, सव सुनने आये, वह भी आये जो उनसे असहमते थे। उनके सयुक्तिक भाषणको सुनकर सब ही प्रभावित हुए। व० जीको पुरानी वस्तुओको देखने और उनका इतिहास सग्रह करनेकी भी अभिरुचि थी। कम्पिलाजी तीर्थमे जब वह आये, तव हम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ० सीतलप्रसाद । भी उनके साथ गये । उससे पहिले भी हमे कम्पिना गर्व न देखी थी, जो उस रोज़ ब्र० जीके साथ देखा । वो तरह जीने जाना कि जसाई खेड़ामे प्राचीन जिनमूर्तियां है— पडे । दोपहर हो गया जब हम लोग वहां पहुँने, भूम पर आकुलता हम लोगोके मुसोपर नाच रही थी । किसने कहा कर लिया जावे, तव स्थानका निरीक्षण किया जावे । न० जी ने -न कर सके | सब लोग चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल दिये और और जिनमूर्तियोका पता लगाते फिरे ! ० जीने कई मूर्तियों गोकी प्रतिलिपि ली। तभी मैंने जाना कि प्रतिलिपि कैसे लेते है और प्राचीन लेगी को पढनेका भी चाव हुआ ! करने में प्र० लिए च पा I ? 1 शायद सन् १६२८ के जाड़ोमे में बम्बई गया था । ० जी जैन चोडिङ्ग में ठहरे हुए थे । मैं गया और उनसे मिला। उन्होंने जैन जानि की उन्नति के लिए किस तरह नि.स्वायं सेवक तैयार किये जावे, उनपर बहुत-सी बातें की । जैन-सिद्धान्तके विषयमें भी कई बाते बना । न-भूगोल का ठीकसे अध्ययन नही हुआ है, यह भी बताया और कहा कि पृथ्वीको -गोल माननेमे एक वाघा आती है और वह यह कि गोलाकार इतर भाग का जीव ऊर्ध्वगत्तिसे किस प्रकार सिद्धलोक पहुँचेगा लिए जैन मान्यता पृथ्वीको नारगीकी तरह गोल नहीं मान सकती ! जीवकी अनन्तराशिपर भी उन्होने जो कहा वह सरल और जीको ग्ननेवाला था । उन्होंने जैन महिलाओकी दयनीय दशापर भी अपने विचार दर्शायें । उनके विचारोसे भले ही कोई सहमत न हो, परन्तु वह वस्तुस्थितिके ज्ञापक और समयकी आवश्यकताके अनुरूप थे, यह हर कोई माननेको वाक्य होगा । उस दिन उन्होने श्राविकाश्रममं धर्मोपदेश दिया। में समझा, न० जी वह पिता है जो पुत्र-पुत्रियोकी समान हितकामनामे हर समय निमग्न रहता है । जैन धर्म प्रचारकी भावना उनके रोम-रोममं समाई थी । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियोंमें जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रजीने भारतके Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत इस छोरसे उस छोरतक घूमकर धर्मभेरी वजाई थी, उसी प्रकार इस वीसवी शतीमे ७० जी ने भारतका कोई कोना वाकी न छोडा, जहां उन्होने धर्मामृतकी वर्षा न की हो । अनेक अजैन विद्वानो और श्रीमानोको उन्होने जैनधर्मके महत्त्वसे अवगत कराया, साधारण जनताको भी उन्होने धर्मका स्वरूप वताया। भारत में ही नहीं, वह वर्मा और सीलोन भी धर्म-प्रचारकी भावना लेकर गये और यथाशक्य प्रचार भी किया। यदि सुविधा होती तो वह चीन और जापान भी जाते । यूरुप जाकर धर्मप्रचार करनेके लिए भी वह तैयार थे, परन्तु उनके साथ एक और जैनी होना जरूरी था जो उनकी सयम-पालनाको निर्विघ्न रखता । यह सुविधा न जुट सकी, इसी कारण वह विलायत न पहुंच पाये । योग्य साथी न मिलनेके कारण वह कैलाशकी यात्रा भी नही कर पाये। जैन-धर्मकी स्थितिका पता लगानेके लिए वह सब तरहकी कठिनाइयां सहन करनेको तत्पर रहते थे। निस्सन्देह इस शतीके जैनियोमे वह एक ही थे। उनके गुणोका स्मरण कहाँ तक किया जावे ? निस्सन्देह व० जीने जैनियोको सोतेसे जगाया- उन्हे ज्ञानदान दिया और सम्यक् मार्गपर लगाया । वह धर्म और सघके लिए जीये और धर्म एवं सपके लिए ही उनका निधन हुआ। वह आधुनिक जैन सघकी अमर विभति है और उनके स्वर्ण-कार्यो के भारसे जैन-सघ हमेशा उपकृत रहेगा । -'वीर' सीतल अंक १९४४ ई० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AVI बाबा COM भागीरथ वणीं पण्डापुर-मथुरा, १८६८ ई० ईसरी, २६ जनवरी १९४२ ई० समाधिमरण Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भीक त्यागी क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी एसा निर्भीक त्यागी इस कालमें दुर्लभ है । जबसे आप ब्रह्मचारी हुए, पैसेका स्पर्श नही किया । आजन्म नमक और मीठेका त्याग था । दो लँगोट और दो चादर मात्र परिग्रह रखते थे 1 एकबार भोजन और पानी लेते थे । प्रतिदिन स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और समयसारका पाठ करते थे । स्वयम्भू स्तोत्रका भी निरन्तर पाठ करते थे । आपका गला बहुत ही मधुर था, जब आप भजन कहते थे, तव जिस विषयका भजन होता, उस विषयको मूर्ति सामने आ जाती थी । आपका शास्त्र- प्रवचन बहुत ही प्रभावक होता था । आप ही के उत्साह और सहायता से स्याद्वादविद्यालयकी स्थापना हुई थी । आपकी प्रकृति अत्यन्त दयालु थी । आप मुझे निरन्तर उपदेश दिया करते थे कि इतना आडम्वर मत कर । एक वारकी बात है, मैने कहा- "वावाजी ! आपके सदृश हम भी दो चद्दर और दो लंगोट रख सकते है, इसमे कौन-सी प्रशसाकी बात है ?" बाबाजी बोले- "रख क्यो नही लेते ?” मै बोला - " रखना तो कठिन नही है, परन्तु जब बाज़ारसे निकलूंगा, तब लोग क्या कहेंगे? इसीसे लज्जा आती है ।" बावाजीने हँसकर कहा - "वस, इसी वलपर त्यागी बनना चाहते हो ? अरे, त्याग करना सामान्य पुरुषोका कार्य नही है । हाँ यह मैं कहता हूँ कि एक दिन तू भी त्यागी बन जायगा । तू सीधा है, अच्छा है, अव इसी रूप रहना ।" लिखनेका तात्पर्य यही है कि जो कुछ थोडा बहुत मेरे पास है वह उन्हींके समागमका फल है । --मेरी जीवन-गाथा पृ० ५८१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्पृही गोयलीयवटा-सा कद, तुतई-सा मुंह, गोल और चुन्धी आँखे, दांत ऊबट र खाबड़, सर घुटा हुआ वैगन-जैसा गोल, मुंहपर मूंछ नदाग्द, पवि वेडौल, रग ताँवे-जैसा, शरीर कृग और भक्तोका यह जालम कि गरीबअमीर, पण्डित-बाबू सभी पांवोमें गिरे जा रहे है और ये है कि निहरसिहर उठ रहे है । अपनी ब्रज मातृभाषामे पाँव छूनेको मना भी करने जा रहे है और जो जबरन छूते जा रहे है, उन्हे धर्मलाभका आगीर्गद भी देते जा रहे है। मेरे अहकास्ने इजाजत नहीं दी कि मैं इनके पाव पडूं। एक तो स्वभावत. मुझे साधु-सन्यासियोसे वैसे ही विरवित-सी रही है। दूसरे विना परखे-बूझे चाहे जिसके सामने गर्दन झुकानेकी मेरी आदत नही है। इनके त्याग-तपकी अनेक बाते सुनी थी, परन्तु न जाने क्यो विश्वास करनेको जी न चाहा और वात आई-गई हुई। सम्भवत उक्त वात १९१८ ई० की होगी। ये चौरामी (मथुग) आये थे। मेरे गुरुदेव प० उमरावसिंहजी न्यायतीर्य उनके परम भक्त थे और प्रसंग छिडनेपर इनका बडी श्रद्धा-भक्तिसे उल्लेख किया करते थे, परन्तु मुझपर इनका कोई प्रभाव न पडा । हाँ, ढोगी और रंगे हुए नही है, यह उस छोटी-सी आयुमे भी जान लिया था। १९२० के बाद जब मेरा दिल्ली रहना हुआ तो ये कई बार दिल्ली आये-गये । जान-पहचान वढी, पर श्रद्धा-भक्ति न बढ़ी। १९२६ मे पं० जुगलकिशोर मुख्तारने करोलबाग्न दिल्लीमे वीरसेवामन्दिरको स्थापना की। मुझे भी 'अनेकान्त के प्रकाशन निमित्त वहाँ छह माह रहना पड़ा। उन्ही दिनो वावाजीने भी दिल्लीमे चातुर्मास किया Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन-जागरणके अग्रदूत था ओर आश्रममे ही ठहरे थे। आश्रमके नजदीक ही पहाड था, जहां लोग शौच आदिको जाते थे। मै आश्रमकी छतपर खडा हुआ था कि देखा १५-२० मिनिटके अन्दर ४-५ वार वावाजी उघरको गये-आये। मनमे वहम-सा हुआ, जाकर देखा तो वहाँ रक्तके पतनाले छूटे हुए है। देखकर जी घवरा गया। हे अरहत, यह बावाजीको क्या हुआ? कोई ऐसी-वैसी चीज तो किसीने नही खिला दी। दौडकर वावाजीके कमरेमें गया तो सहज स्वभाव बोले-"भैया, होतो कहा, ये तो शरीर है, यामें तो हजारो रोग भरे पडे है, कब कौन-सौ उभर आवेगो, याकी सार-सम्भार कौन करे?" और फिर लोटा लेकर पहाडकी तरफ चलते हुए। मैने साथ चलते-चलते कहा--"महाराज ! मुझे वहकाइये मत । स्पष्ट वताइये कि किस कारण यह सब हुआ है। परन्तु वे है कि हँसते हुए पहाडकी तरफ लपके जा रहे है और कहते जा रहे है-"भय्या, तुम तो वावरे हो, या शरीरको कितनो ही खवाओ'पिवाओ पर ऐव देनेसे नाय चूके । पढो नाय तेने पल रुधिर राध मल थैली, कीकस बसादित मैली। नव द्वार बहें घिनकारी, अस देह करे किम यारी॥ मै दौडकर शहरसे मुख्य-मुख्य ४-५ जैनियोको बुला लाया। बावाजीका यह हाल देखकर उनके भी तोते उड गये, दिल धक-धक करने लगा। मेरी खुद नब्ज रुक-रुककर-सी चलने लगी। वावाजीके अचानक खतरेमें 'पड जानेकी तो चिन्ता थी ही, परन्तु पुलिस खूनकी गन्ध सूंघती हुई आश्रम में आ धमकेगी। वावाजी तो अपनी इच्छासे मर रहे है, और मुझे उनकी सेवा करनेको पुलिस वेमौत उनके पास पहुँचा देगी, यह भय भी कम न था, क्योकि उन दिनो लाहौर और दिल्ली षड्यन्त्रके मुख्य कार्यकर्ता मेरे पास आया-जाया करते थे। बहुत अनुनय-विनय करनेपर मालूम हुआ कि बावाजी २०-२५ रोजसे भीगे हुए गेहूँ खाकर जीवन-निर्वाह कर रहे हैं। उन दिनो महात्मा गान्धीने इस तरहका प्रयोग किया था। इन्होने सुना तो ये प्रफुल्ल हो उठे। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा भागीरथ तर्णी "कौन रोजाना आहार करने जानेकी इल्लतमे परे ? धावकोको नो मातार बनानेमे परेशानी होती ही है, अपना समय भी एक घण्टेगे अधिक गयं ही चला जाता है। यह महात्माजीने निराकुलताता बन गन्न बार निकाला। बस आप पाव गेहं भिगो दिये और ना नियं, फिर पार्टको निश्चिन्त । न कही जाने-आनेको चिन्ता, न कही गहन्याने गम्भाषण की परेशानी। इतना नमय स्वाध्यायके लिए और मिला।" उन्ही बिनागे में निमग्न होकर किसीको वताये बिना २०-२५ रोजने भीगे गेहें नया लेते थे । यो तो वाबाजी २५-३० वर्पने नमक, घी, दूध-दही नही गाने थे। केवल उवाले साग और सी रोटियां साने थे। जब जो मात्माजी के इस अनोखे आहारके सम्बन्ध मुना तो यह उबला नाग और जलांनी रोटी भी छोड दी। परन्तु वडोकी वाते वढी होती है । महात्माजी ४-५ रोज ही खूनी दस्त प्रारम्भ हो गये तो रोने उन्हें भीगे गहें मानने मना कर दिया और इसकी सूचना भी नवजीवनमे निकल गई, पन्नु बाबाजीको नवजीवन कौन पढकर नुनाता? उनका क्रम जारी रहा! अब समझाते है तो समझते नही, नवजीवन पटनेको देते है तो पढते नही, सुनाते है तो हँसकर टाल देते है । मैने मेधे हुए कण्ठने निवेदन किया-"महाराज, यह तो महात्माजीकी एक माधना थी। स्वास्थ्यके लिए हानिकर सिद्ध हुई तो उन्होने तर्क कर दी। वे तो जीवनमे अनेक तरहके प्रयोग करते है। आत्मा और मनके लिए अनुकूल हना तो जारी रखते है, अन्यथा छोड देते है। आपने भी केवल यही जाननेको कि गेहूं चबानेसे शरीर चल सकता है या नही, महात्माजीके प्रयोगका अनुकरण किया । जव महात्माजी उसे हानिकारक समझकर छोट बैठे और जनताको भी इसकी हानिसे अवगत कर दिया तब आपको भी यह प्रयोग छोड़ देना चाहिए।" ___गरज हमारे दिनभर रोने-धोनेसे तग आकर उन्हें भीगे गेहूँ छोड़ने पडे और फिर वही नमक-धी रहित आहार स्वीकार करना पड़ा। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत एक रोज सुबह उठकर देखा तो वाबाजी अपने कमरेसे मय अपनी चटाई और कमण्डलके गायव है। बादमे मालूम हुआ कि पहाड़ी-धीरज दिल्लीके श्रावकोंके अनुरोधपर कुछ दिनोके लिए वहाँ चले गये है। ८-१० रोज बाद जाकर देखा तो उनका पाँव टखनेसे लेकर घुटने तक बुरी तरह सूजा हुआ है। उसमेसे पीप और रक्त बह रहे है और बाबाजी ठोकरेसे रगड-रगडकर उसे और भी लहूलुहान कर रहे है और मट्टी थोपते जा रहे है। ____ मै देखकर खिजलाहटके स्वरमै बोला-"महाराज, किसीको बताया भी नही, दस डाक्टरोका प्रबन्ध किया जा सकता था। सुनकर खिलखिलाकर हँसे, फिर वोले-"भैया, तुम तो बड़ी जल्दी घबरा जाते हो, शरीर तो मिट्टी है, मिट्टीमें एक दिन मिल जायगो, याकी चाकरी कवली करूँ, तुम ही बताओ?" मेरी एक न चली, मिट्टी लगा-लगाकर ही पाँव ठीक कर लिया। इतना बडा तपस्वी, सयमी, निस्पृही, निरहकारी, क्षमाशील और पूजा-प्रतिष्ठाके लोभका त्यागी मुझे अपने जीवनमे अभी तक दूसरा देखनेको नहीं मिला। -'ज्ञानोदय' दिसम्बर १९५० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्मृति पं० परमानन्द जैन शास्त्री लावा भागीरथजी वर्णी जैनसमाजके उन महापुरुषोमेसे थे, जिन्होंने 7ी आत्मकल्याणके साथ-साथ दूसरोके कल्याणको उत्कट भावनाको मूर्त रूप दिया है। वावाजी जैसे जैनधर्मके दृढश्रद्धानी, कप्टसहिष्णु और आदर्श त्यागी ससारमे विरले ही होते है । आपकी कपाय बहुत ही मन्द थी। आपने जैनधर्मको धारणकर उसे जिस साहस एव आत्मविश्वासके साथ पालन किया है, वह सुवर्णाक्षरोमे अकित करने योग्य है। आपने अपने उपदेशो और चरित्रवलसे सैकडो जाटोको जनधर्ममै दीक्षित किया है-- उन्हे जैनधर्मका प्रेमी और दृढश्रद्धानी बनाया है, और उनके आचारविचार-सम्बन्धी कार्योंमे भारी मुधार किया है। आपके जाट गिप्योमेसे शेरसिंह जाटका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है, जो बावाजीके बड़े भवत है। नगला जिला मेरठके रहनेवाले है और जिन्होंने अपनी प्राय. सारी सम्पत्ति जैन-मन्दिरके निर्माण कार्यमे लगा दी है। इसके सिवाय खतौली और आसपासके दस्सा भाइयोको जनधर्ममें स्थित रखना आपका ही काम था। आपने उनके धर्मसाधनार्थ जैनमन्दिरका निर्माण भी कराया है। आपके जीवनकी सबसे बडी विशेषता यह थी कि आप अपने विरोधी पर भी सदा समदृष्टि रखते थे और विरोधके अवसर उपस्थित होने पर माव्यस्थ्य वृत्तिका अवलम्बन लिया करते थे और किसी कार्यके असफल होनेपर कभी भी विषाद या खेद नही करते थे। आपको भवितव्यताकी अलध्य शक्ति पर दृढ विश्वास था। आपके दुवले-पतले शरीरमे केवल अस्थियोका पजर ही अवशिष्ट था, फिर भी अन्त समयमे आपकी मानसिक सहिष्णुता और नैतिक साहसमे कोई कमी नही हुई थी। त्याग और तपस्या आपके जीवनका मुख्य ध्येय था, जो विविध प्रकारके सकटोविपत्तियोमे भी आपके विवेकको सदा जाग्रत (जागरूक) रखता था। खेद है कि वह आदर्श त्यागी आज अपने भौतिक शरीरमे नही है, उनका ईसरीमें २६ जनवरी सन् ४२ को समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास हो गया Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैन-जागरण के अग्रदूत ६० है ! फिर भी उनके त्याग और तपस्याकी पवित्र स्मृति हमारे हृदयको पवित्र बनाये हुए है और वीरसेवामन्दिरमे आपका ३|| मासका निवास तो बहुत ही याद आता है । , बावाजीका जन्म स० १६२५ मे मथुरा जिलेके पण्डापुर नामक ग्राम हुआ था | आपके पिताका नाम बलदेवदास और माताका मानकौर था। तीन वर्षकी अवस्थामे पिताका और ग्यारह वर्षको अवस्थामे माताका स्वर्गवास हो गया था । आपके माता-पिता गरीव थे, इस कारण आपको शिक्षा प्राप्त करनेका कोई साधन उपलब्ध न हो सका। आपके मातापिता वैष्णव थे । यत' आप उसी धर्मके अनुसार प्रात काल स्नान कर यमुना किनारे राम-राम जपा करते थे और गोली वोती पहने हुए घर आते थे । इस तरह आप जब चौदह-पन्द्रह वर्ष के हो गय, तव आजीविका के निमित्त दिल्ली आये । दिल्लीमे किसीसे कोई परिचय न होनेके कारण सबसे पहले आप मकानकी चिनाईके कार्यमे ईटोको उठाकर राजोको देने का कार्य करने लगे। उससे जव ५-६ रुपये पैदा कर लिये, तब उसे छोडकर तौलिया रुमाल आदिका वेचना शुरू कर दिया। उस समय आपका जैनियोसे वडा द्वेष था । चावाजी जैनियोंके मुहल्लेमें ही रहते थे और प्रतिदिन जैनमन्दिर के सामनेसे आया-जाया करते थे। उस रास्ते जाते हुए आपको देखकर एक सज्जनने कहा कि आप थोडे समयके लिए मेरी दुकानपर आ जाया करो। मैं तुम्हे लिखना-पढना सिखा दूंगा । तवसे आप उनकी दुकानपर नित्यप्रति जाने लगे। इस ओर लगन होनेसे आपने शीघ्र ही लिखने-पढ़नेका अभ्यास कर लिया । एक दिन आप यमुनास्नानके लिए जा रहे थे, कि जैनमन्दिरके सामने निकले। वहाँ 'पद्मपुराण' का प्रवचन हो रहा था । रास्तेमे आपने उसे सुना, सुनकर आपको उससे वडा प्रेम हो गया और आपने उन्ही सज्जन की मार्फत पद्मपुराणका अध्ययन किया । इसका अध्ययन करते हो आपकी दृष्टि सहसा नया परिवर्तन हो गया हो गई | अब आप रोज जिनमन्दिर जाने लगे और जैनधर्मपर दृढ श्रद्धा तथा पूजन - स्वाध्याय T Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वावा भागीरथ वर्णी ६१ नियमसे करने लगे । इन कार्यो मे आपको उतना रस जाया कि कुछ दिन पश्चात् आप अपना धन्धा छोडकर त्यागी बन गये, और आपने बालब्रह्मचारी रहकर विद्याभ्यास करनेका विचार किया । विद्याभ्यान करनेके लिए आप जयपुर और खुर्जा गये । उम समय आपकी उम पच्चीन वर्षकी हो चुकी थी । खुजमें अनायास ही पूज्य प० गणेगप्रसादजीका समागम हो गया, फिर तो आप अपने अभ्यासको और भी लगन तथा दृढ़ता के साथ सम्पन्न करने लगे। कुछ समय धर्मशिक्षाको प्राप्त करने के लिए दोनो ही आगरेमें प० बलदेवदासजी के पास गये और पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका पाठ प्रारम्भ हुआ । पश्चात् प० गणेशप्रसादजीकी इच्छा अर्जन न्यायके पढनेकी हुई, तब आप दोनो बनारस गये और वह भेलूपुरा की धर्मशाला में ठहरे । एक दिन आप दोनो प्रमेयरत्नमाला और आप्तपरीक्षा आदि जैन न्याय - सम्वन्धी ग्रन्थ लेकर प० जीवनाथ शास्त्रीके मकान पर गये । सामने चौकी पर पुस्तके और १ रु० गुरुदक्षिणा स्वरूप रख दिया, तब शास्त्रीजीने कहा- "आज दिन ठीक नही है कल ठीक है ।" दूसरे दिन पुन निश्चित समय पर उक्त शास्त्रीजीके पास पहुँचे । शास्त्रीजी अपने स्थानसे पाठ्य स्थान पर आये और आसन पर बैठते ही पुस्तके और रुपया उठाकर फेंक दिया और कहने लगे कि "में ऐसी पुस्तकोका स्पर्श तक नही करता ।" इस घटनासे हृदयमे क्रोधका उद्वेग उत्पन्न होने पर भी आप दोनो कुछ न कह सके और वहाँसे चुपचाप चले आये । अपने स्थान पर आकर सोचने कि यदि आज हमारी पाठशाला होती तो क्या ऐसा अपमान हो सकता था ? अब हमे यही प्रयत्न करना चाहिए, जिससे यहां जैनपाठशालाकी स्थापना हो सके और विद्याके इच्छुक विद्यार्थियोको विद्याभ्यासके समुचित साधन सुलभ हो सके। यह विचार कर ही रहे थे कि उस समय कामा मथुराके ला० झम्मनलालने, जो धर्मशालामे ठहरे हुए थे, आपका शुभ विचार जानकर एक रुपया प्रदान किया । उस एक रुपयेके ६४ कार्ड खरीदे गये, और ६४ स्थानोको अभिमत कार्यकी प्रेरणारूपमे डाले गये । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन-जागरणके अग्रदूत फलस्वरूप बा० देवकुमारजी आराने अपनी धर्मशाला भदैनी घाटमें पाठगाला स्थापित करनेकी स्वीकृति दे दी। और दूसरे सज्जनोने रुपये आदिके सहयोग देनेका वचन दिया। इस तरह इन युगल महापुरुषोकी सद्भावनाएँ सफल हुई और पाठशालाका कार्य छोटे-से रूपमे शुरू कर दिया गया। वावाजी उसके सुपरिण्टेण्डेण्ट बनाये गये । यही स्याद्वादमहाविद्यालयके स्थापित होनेकी कथा है, जो आज भारतके विद्यालयो में अच्छे रूपसे चल रहा है और जिसमे अनेक ब्राह्मण शास्त्री भी अध्यापन कार्य करते आ रहे है। इसका पूरा श्रेय इन्ही दोनो महापुरुषोको है। पूज्य वावा भागीरथजी वर्णी, और पूज्य प० गणेशप्रसादजी वर्णीका जीवनपर्यन्त प्रेमभाव बना रहा। वावाजी हमेशा यही कहा करते थे कि प० गणेशप्रसादजीने ही हमारे जीवनको सुधारा है । वनारसके बाद आप देहली, खुर्जा, रोहतक, खतौली, शाहपुर आदि जिन-जिन स्थानो पर रहे, वहाँको जनताका धर्मोपदेश आदिके द्वारा महान् उपकार किया है। वावाजीने शुरूसे ही अपने जीवनको निस्वार्थ और आदर्श त्यागीके रूपमें प्रस्तुत किया है। आपका व्यक्तित्व महान् था। जैनधर्मके धार्मिक सिद्धान्तोका आपको अच्छा अनुभव था । समाधितत्र, इप्टोपदेश, स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा, वृहत्स्वयभूस्तोत्र और आप्तमीमासा तथा कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थोके आप अच्छे मर्मज्ञ थे, और इन्हीका पाठ किया करते थे। आपकी त्यागवृत्ति बहुत बढ़ी हुई थी। ४० वर्षसे नमक और मीठेका त्याग था, जिह्वा पर आपका खासा नियन्त्रण था, जो अन्य त्यागियोमें मिलना दुर्लभ है । आप अपनी सेवा दूसरोसे कराना पसन्द नहीं करते थे। आपकी भावना जैनधर्मको जीवमात्रमें प्रचार करनेकी थी और आप जहां कही भी जाते थे, सभी जातियोके लोगोसे मास-मदिरा आदिका त्याग करवाते थे। जाट भाइयोम जैनधर्मके प्रचारका और दस्सोको अपने धर्ममें स्थित रहनेका जो ठोस सेवाकार्य किया है, उसका समाज चिरऋणी रहेगा। -अनेकान्त, मार्च, १९४२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य काकाजी श्री खुशालचन्द्र गोरावाला बाबाजी विहार करते हुए सवत् १६८२ के अगहनमे मड़ावरा ( झासी) पधारे थे। मैं उस समय महरौनीमे दर्जा ६ (हिन्दी मिडिल ) मे पढ़ता था, लेकिन श्री १०८ मुनि सूर्यसागरजी विहार करते मडावरा पहुँचे थे, इसलिए आहार दानमे सहायता देनेके लिए माताजीने मुझे भी गाँव बुला लिया था । सयोगकी बात है कि जिस दिन स्व० बाबाजी मडावरा पधारे, उस दिन मुनि महाराजका मेरे घर आहार हुआ था और मं आहारदाता था । फलत अगवानीके समय ही लोगोने परिचय देकर मुझे बाबाजीकी अनुग्रहदृष्टिका पात्र वना दिया था। बावाजी इस वार जितने दिन मड़ावरा रहे, उतने दिन में यथायोग्य उनकी परिचर्या में उपस्थित रहा । एक दिन अपराह्नमे वावाजी अन्य त्यागियोकी प्रेरणाके कारण ग्रामका ऊजड किला देखने गये । साथमे अनेक बालकोके साथ में भी था, उस समय मैंने किलेसे सम्बद्ध कुछ ऐतिहासिक किवदन्तियाँ वावाजीको सुनाई । एकाएक बाबाजीने पूछा "तुम क्या पढ़ते हो ?” मेरे उत्तर देने पर उन्होने पूछा "मिडिलके बाद क्या पढ़ोगे ?" “घरके लोगोका अग्रेजी पढानेका इरादा है ।" उत्तर सुनते ही बोले - " तुम्हारे गांवके ही पडित गणेशप्रसादजी वर्णी है, इसलिए धर्म जरूर पढ़िओ ।" इसके बाद और क्या-क्या हुआ सो तो मुझे याद नही, पर इतना याद है कि मिडिलका नतीजा निकलने पर जव मँझले भइयाने ललितपुर भेजने की चर्चा की तो काकाजीने कहा -- "किस्तान नही बनाना है, धर्म पढ़ेगा।” में आज सोचता हूँ कि मेरी तरह न जाने कितने और बालकोको धार्मिक शिक्षा चावाजी की ही उस सत्य प्रेरणासे मिली है, जिसे उनका सहधर्मी वात्सल्य कराता था । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरण के अग्रदूत मनुष्यके स्वभावका अध्ययन करनेमे तो वर्णीजीको एक क्षण भी नही लगता । यही कारण है कि वे विविध योग्यताओके पुरुषोसे सहज ही विविध कार्य करा सके । यह भी समझना भूल होगी कि यह योग्यता उन्हें अब प्राप्त हुई है । विद्यार्थी जीवनमें बाईजीके मोतियाबिन्दकी चिकित्सा कराने किसी बगाली डाक्टरके पास झांसी गये । डाक्टरने यो ही कहा"यहाँके लोग बडे चालाक होते है," फिर क्या था माता-पुत्र उसकी लोभी प्रकृतिको भाँप गये और चिकित्साका विचार ही छोड़ दिया । बादमें उस क्षेत्रके सब लोगोने भी बताया कि वह डाक्टर वडा लोभी था, किन्तु घर्ममाताकी व्यथाके कारण वर्णीजी दुखी थे, उन्हें स्वस्थ देखना चाहते थे । तथापि उनकी आज्ञा होने पर बनारस गये और परीक्षामे बैठे गो कि मन न लग सकने के कारण असफल रहे । लौटने पर बागमे एक अग्रेज डाक्टरसे भेट हुई। वर्णीजीको उसके विषयमें अच्छा ख्याल हुआ । उससे वाईजीको आँखका आपरेशन कराया और बाईजी ठीक हो गई । इतना ही नही वह इनसे इतना प्रभावित हुआ कि उसने रविवारको मासा - हारका त्याग कर दिया तथा कपडोकी स्वच्छता आदिको भोजन-शुद्धिका अग बनानेका इनसे भी आग्रह किया । ५० वर्णीजीका दूसरा विशेष गुण गुणग्राहकता है, जिसका विकास भी छात्रावस्थामें ही हुआ था । जव वे चकौती (दरभंगा) मे अध्ययन करते थे, तव द्रौपदी नामकी भ्रष्ट बालविधवामें प्रौढावस्था आने पर जो एकाएक परिवर्तन हुआ, उसने वर्णीजी पर भी अद्भुत प्रभाव डाला । वे जव कभी उसकी चर्चा करते है तो उसके दूषित जीवनकी ओर संकेत भी नही करते हैं और उसके श्रद्धानकी प्रशंसा करते है | बिहारी मुसहरकी निर्लोभिता तो वर्णीजीके लिए आदर्श है । अल्पवित्त, अपढ होकर भी उसने उनसे दस रुपये नही ही लिये क्योकि वह अपने औषधिज्ञानको सेवार्थ मानता था । घोर से घोर घृणोत्पादक अवसरोने वर्णीजीमें विरक्ति और दयाका ही सचार किया है, प्रतिशोध और क्रोध कभी भी उनके विवेक और सरलताको नही भेद सके है । नवद्वीपमे जब कहाfरनसे मछलीका Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी आस्यान सुना तो वहाँके नैयायिकोसे विशेष ज्ञान प्राप्त करनेके प्रलोभनको छोड़कर सीधे कलकत्ता पहुंचे। और वहाँके विद्वानोसे भी छह माम अध्ययन किया। इस प्रकार यद्यपि वर्णीजीने तब तकः न्यायात्रार्यक तीन ही खण्ड पास किये थे, तथापि उनका लौकिक ज्ञान सण्डातीत हो चुका था। तथा उन्होने अपने भावी जीवनक्षेत्र-जैन समाजमे गिक्षामनार तथा मक सुधारके लिए अपने आपको भली भांति तैयार कर लिया था। जानो और जानने दो __कलकत्तेसे लौटकर जव बनारस होते हुए सागर आये तो वर्णीजोन देखा कि उनका जन्म-जनपद शिक्षाकी दृष्टिले बहुत पिछड़ा हुआ है। जब नैनागिरकी तरफ विहार किया तो उनका आत्मा तडप उठा । बगाल और बुन्देलखंडकी बौद्धिक विषमताने उनके अन्तस्तलको आलोडिन और आन्दोलित कर दिया। रथयात्रा, जलयात्रा, आदिमें हजारो रुपया व्यय करनेवालोको शिक्षा और शास्त्र-दानका विचार भी नहीं करते देखकर वे अवाक रह गये। उन्होने देखा कि भोजन-पान तथा लैंगिक सदाचारको दृढतासे निभाकर भी समाज भाव-आचारसे दूर चला जा रहा है। साधारण-सी भूलोके लिए लोग बहिष्कृत होते है और आपनी कलह होती है। प्रारम्भमें किसी विधवाको रख लेनेके कारण ही 'विनकावार' होते थे, पर हलवानीमै सुन्दर पत्नीके कारण बहिष्कृत, दिगोडे. मे दो घोडोकी लडाईमे दुर्वल घोडे के मरने पर सवल घोड़े वालेको दण्ड, आदि घटनाओने वर्णीजीको अत्यन्त सचिन्त कर दिया था। हरदीके रघुनाथ मोदी वाली घटना भी इन्ही सब बातोकी पोपक थी। उनके मनमे आया कि ज्ञान विना इस जडतासे मुक्ति नहीं । फलत. आपने सबसे पहिले वंडा (सागर, म० प्रा०) में पाठशाला खुलवाई। इसके वाद जव आप ललितपुरमे इस चिन्तामे मग्न थे कि किस प्रकार उस प्रान्त के केन्द्रस्थानोमें सस्थाएँ स्थापित की जाये, उसी समय श्री सवालनवीमने सागरसे आपको बुलाया। सयोगकी बात है कि आपके साथ पं० सहदेव झा भी थे। फलतः श्री कण्डयाके प्रथम दानके मिलते ही अक्षय-तृतीया ६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके श्रप्रभूत को प्रथम छात्र प० मुन्नालाल रावेलीयकी शिक्षासे सागरमें श्री ' सतर्क - सुधा-तरगिणी पाठशाला' का प्रारम्भ हो गया । गगाकी विशाल धाराके समान इस सस्थाका प्रारम्भ भी बहुत छोटा-सा था । स्थान आदिके लिए मोराजी भवन आनेके पहिले इस सस्थाने जो कठिनाइयां उठाई, वास्तव में वे वर्णीजी ऐसे परिकर व्यक्तिके अभाव मे इस सस्थाको समाप्त कर देनेके लिए पर्याप्त थी। आर्थिक व्यवस्था भी स्थानीय श्रीमानोकी दुकानोसे मिलनेवाले एक आना संकटा धर्मादाके ऊपर आश्रित थी । पर इस सस्थाके वर्तमान विशाल प्रागण, भवन आदिको देखकर अनायास ही वर्णीजीके सामने दर्शकका शिर झुक जाता है । आज जैन समाजमें बुन्देलखण्डीय पडितोका प्रवल बहुमत है, उसके कारणोका विचार करने - पर सागरका यह विद्यालय तथा वर्णीजीकी प्रेरणासे स्थापित साढूमल, पपौरा, मालथीन, ललितपुर, कटनी, मड़ावरा, खुरई, बीना, बरुआसागर, आदि स्थानोके विद्यालय स्वय सामने आ जाते है । वस्तुस्थिति यह है कि इन पाठशालाओने प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा देनेमें बड़ी तत्परता दिखाई है । इन सबमे सागर विद्यालयकी सेवाएँ तो चिरस्मरणीय है । वर्णीजीने पाठशाला स्थापनाके तीर्थका ऐसे शुभ मुहूर्त में प्रवर्तन किया था कि जहाँसे वे निकले वही पाठशालाएँ खुलती गई । यह स्थानीय समाजका दोष है कि इन सस्थाओको स्थायित्व प्राप्त न हो सका । इसका वर्णीजीको खेद है । पर समाज यह न सोच सका कि प्रान्त भरके लिए व्याकुल महात्माको एक स्थानपर बाँध रखना अनुचित है । उनके सकेत पर चलकर आत्मोद्धार करना ही उसका कर्तव्य है । तथापि वर्णित्रय (पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी, बावा भगीरथ वर्णी और प० दीपचन्दजी वर्णी) के सतत प्रयास तथा विशुद्ध पुरुषार्थने बुन्देलखण्ड ही क्या अज्ञान - अन्यकाराच्छन्न समस्त जैन समाजको एक समय विद्यालय पाठशाला रूपी प्रकाश ८२ भोसे आलोकित कर दिया था । इसी समय वर्णोजीने देखा कि केवल प्राच्य शिक्षा पर्याप्त नही है, फलत योग्य अवसर आते ही आपने जबलपुर 'शिक्षा - मन्दिर तथा जैन विश्व विद्यालयकी स्थापनाके प्रयत्न किये । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद व ८३ यह सच है कि जबलपुरकी स्थानीय समाजके निजी कारणोंसे प्रथम प्रयत्न तथा समाजकी दलवन्दी एवं उदासीनताके कारण द्वितीय प्रयत्न सफल न हो सका, तथापि उसने ऐसी भूमिका तैयार कर दी है जो भावी गावको के मार्गको सुगम बनावेगी। आज भी वर्णीजी बना कर्मठताका पाठ पढानेवाले गुरुकुलों तथा साहित्य प्रकाशक सन्थाओंकी स्थापना व पोषणमे दत्तचित्त है । ऊपरके वर्णनने ऐना अनुमान किया जा सकता है कि वर्णीजीने मातृमण्डलको उपेक्षा की, पर ध्रुव सत्य यह है कि वर्णीजीका पाठशाला आन्दोलन लड़के-लड़कियोंके लिए समान रूप चला है । इतना ही नही ज्ञानी त्यागी मार्गका प्रवर्तन भी आपके दीनागुरु वावा गोकुलचन्द्र ( पितुश्री प० जगमोहनलालजी निहान्तनानी) तथा आपने किया है | पर स्वारयके कारने - आश्चर्य तो यह है कि जो वर्गीजी पैसा पास न होने पर हफ्तो कच्चे चने खाकर रहे और भूखे भी रहे और अपनी माता (स्व० चिरोंजावाईजी) से भी किसी चीजको मांगते गरमाते थे, उन्हीका हाथ पारमार्थिक सस्थाओंके लिए माँगनेको सदैव फैला रहता है। इतना ही नही, सत्याओका चन्दा उनका ध्येय वन जाता था। यदि ऐसा न होता तो सागरमें सामायिकके समय तन्द्रा होते ही चन्देकी लपकमे उनका गिर क्यों फूटता । पारमार्थिक सस्थाओ की झोली सदैव उनके गलेमें पड़ी रही है । आपने अपने शिप्योके गले भी यह झोली डाली है । पर उन्हें देखकर वर्णीजीकी महत्ता हिमालयके उन्नत भालके समान विश्वके सामने तन कर खड़ी हो जाती है । क्योकि उनमे "मर जाऊँ माँगूँ नही अपने तनके काज।" का वह पालन नही है जो पूज्य वर्णोजीका मूलमंत्र रहा है । वर्णीजीकी यह विशेषता रही है कि जो कुछ इकट्ठा किया वह सीवा सस्थाविकारियोको भिजवा दिया और स्वयं निर्लिप्त । वर्गीजीके निमित्त से इतना अधिक चन्दा हुआ है कि यदि वह केन्द्रित हो पाता तो उससे विश्वविद्यालय सहज ही चल सकता ? तथापि इतना निश्चित है कि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरणके अग्रदूत असली (ग्रामीण) भारतमे ज्योति जगानेका जो श्रेय उन्हें है, वह विश्वविद्यालयके संस्थापकको नही मिल सकता । क्योकि वर्णोजीका पुरुषार्थ नदी, नाले और कूप-जलके समान गाँव-गाँवको जीवन दे रहा है । वर्णीजीको दयाकी मूर्ति कहना अयुक्त न होगा । उनके हृदयका करुणास्त्रोत दीन-दुखीको देखकर अवाधगति से वहता है । दीन या आक्रान्त को देखकर उनका हृदय तड़प उठता है । यह पात्र है या अपात्र यह वे नही सोच सकते, उसकी सहायता उनका चरम लक्ष्य हो जाता है । लोग वेश बनाकर वर्णीजीको आज भी ठगते हैं, पर बावाजी "कर्तुं वृथा प्रणयमस्य न पारयन्ति ।" के अनुसार "अरे भइया हमें वो का ठौ जो अपने आपको ठग रहो ।” कथनको सुनते ही आज भी दयामय वर्णके विविध रूप सामने नाचने लगते हैं । यदि एक समय लुहारसे सँडसी माँगकर लकडहारिनके पैरसे खजूरका काँटा निकालते दिखते है तो दूसरे ही क्षण वहेरिया ग्रामके कुआँपर दरिद्र दलित वर्ग वालकको अपने लोटेसे जल तथा मेवा खिलाती मूर्ति सामने आ जाती है, तीसरे क्षण मार्गमे ठिठुरती स्त्रीकी ठंड दूर करने के लिए लँगोटीके सिवा समस्त कपड़े शरीर परसे उतार फेंकती श्यामल मूर्ति झलकती है, तो उसके तुरन्त बाद ही लकडहारे के न्याय प्राप्त दो आना पैसोको लिए, तथा प्रायश्चित्त रूपसे सेर भर पक्वान्न लेकर गर्मीकी दुपहरीमे दौडती हुई पसीनेसे लथपथ मूर्ति आँखोके आगे नाचने लगती है । कर्रापुरके कुंएपर वर्णोजी पानी पीकर चलना ही चाहते है कि दृष्टि पास खड़े प्यासे मितरपर ठिठक जाती है। दया उमडी और लोटा कुएँ से भरकर पानी पिलाने लगे, लोकापवादभय मनमें जागा और लोटाडोर उसीके सिपुर्द करके चलते वने । स्थितिपालन और सुधारका अनूठा समन्वय इससे बढकर कहाँ मिलेगा ? जो संसार विषै सुख होतो इस प्रकार बिना विज्ञापन किये जव वर्णोजीका चरित्र निखर रहा था, तभी कुछ ऐसी घटनाएँ हुई, जिन्होने उन्हें वाह्यत्याग तथा व्रतादि ग्रहण के लिए प्रेरित किया । यदि स्व० सिंघैन चिरोजाबाईजीका वर्णीजी २४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी २५ पर पुत्र-स्नेह लोकोत्तर था तो वर्णीजीकी मानश्रद्धा भी अनुपग धी। फलत. बाईजीके कार्यको कम करनेके लिए तथा प्रिय भोज गामग्री लाने के लिए वे स्वय ही बाजार जाते थे । सागरमे मा फलादि कंजनि वगनी है। और मुंहको वे जितनी अशिष्ट होती है जानगणकी उननीm होती है । एक किसी ऐसी ही कुंजडिनकी दुकानपर दो पत्र यो गर्ग रखे थे। एक रईस उनका मोल कर रहे थे और कंजटिनका मुंह मांगा मूल्य एक रुपया नहीं देना चाहते थे, आखिरकार ज्यों की ये दुरागन आगे बढे वर्णीजीने जाकर वे गरीफे परीद लिये । लक्ष्मी-बारनने में अपनी हेठी समझी और अधिक मूल्य देकर गरीके वापस पाना प्रयत्न करने लगे। कुंजडिनने इस पर उन्हें आटे हाथों लिया और वर्णीजीको शरीफे दे दिये । उसको इस निर्लोभिता और वचनको ददनारा वर्गीजी पर अच्छा प्रभाव पडा और वहधा उसीके यहाने गाफ माजी लेने लगे। पर चोर यदि दुनियाको चोर न समझे तो कितने दिन चोरी रंगा? फलत स्वय दुर्बल और भोग-लिप्त मानवोमे उन बातकी कानापती प्रारम्भ हुई, वर्णीजीके कानमें उसकी भनक आई। मोत्रा, समार! तू तो अनादि कालसे ऐसा ही है, मार्ग तो मै ही भूल रहा है, जो गरीन्को नजाने और खिलानमे सुख मानता हूँ। यदि ऐसा नहीं तो उत्तम वन्न, आठ पिया सेरका सुगधित चमेलीका तेल, बडे-बडे वाल, आदि विडम्बना पयो ? और जब स्वप्नमे भी मनमे पापमय प्रवृत्ति नहीं तो यह विडम्बना गतगुणित हो जाती है। प्रतिक्रिया इतनी बढी कि श्री छेदीलालके बगीचे में जाकर आजीवन ब्रह्मचर्यका प्रण कर लिया। मोक्षमार्गका पथिक अपने मार्गको ओर बढा तो लौकिक बुद्धिमानोने अपनी नेक सलाह दी। वे सब इस व्रतग्रहणके विरुद्ध थी तथापि वर्णीजी अबोल रहे। इस व्रत-ग्रहणके पश्चात् उनकी वृत्ति कुछ ऐमी अन्तर्मुख हुई कि पतितोका उद्धार, अन्तर्जातीय विवाह आदिके विषयमे शास्त्रसम्मत मार्गपर चलनेका उपदेगादि देना भी उनके मनको संतुष्ट नहीं करता था। यद्यपि इन दिनो भी प्रति वर्प वे परवार-सभाके अधिवेशनोमे जाते थे, तथा बाबा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत सीतलप्रसादजीके विधवा-विवाह आदि ऐसे प्रस्तावोका शास्त्रीय आधार से खण्डन करते थे। बुन्देलखण्डके अच्छे सार्वजनिक आयोजन उनके विना न होते थे। तथापि उनका मन वेचैन था। इन सबमें आत्मशान्ति न थी। व्यक्तिगत कारणसे न सही समष्टिगत हितकी भावनासे ही विरोध और विद्वेषको अवसर मिलता था। ऐसे ही समय वर्णीजी वावा गोकुलचन्द्रजीके साथ कुण्डलपुर (सागर म० प्रा०) गये । यहाँ पर भी बावाजीने उदासीनाश्रम खोल रखा था। वर्णीजीने अपने मनोभाव वावाजीसे कहे और सप्तम 'प्रतिमा' धारण करके पदसे भी अपने आपको वर्णी बना दिया। ज्ञान और त्यागका यह समागम जैन-समाजमे अद्भुत था । अव वर्णीजी व्रतियोके भी गुरु थे, और सामाजिक विरोध तथा विद्वेषसे बचनेकी अपेक्षा उसमे पडनेके अवसर अधिक उपस्थित हो सकते थे, किन्तु वर्णीजीकी उदासीनतासे अनुगत विनम्रता ऐसे अवसर सहज ही टाल देती थी। तथा वर्णी होकर भी उनके सार्वजनिक कार्य दिन दुने रात चौगुने वढते जाते थे। लोग कहते है “पुण्य तो वर्णीजी न जाने कितना करके चले है । ऐसा सातिशय पुण्यात्मा तो देखा ही नही । क्योकि जब जो चाहा मिला, या जो कह दिया वही हुआ" ऐसी अनेक घटनाएँ उनके विषयमे सुनी है । नैनागिर ऐसे पर्वतीय प्रदेशमे उनके कहनेके वाद घटे भरमे ही अकस्मात् अगूर पहुँच जाना, वडगनीके मन्दिरको प्रतिष्ठाके समय सूखे कुंओका पानीसे भर जाना, आदि ऐसी घटनाएँ है, जिन्हे सुनकर मनुष्य आश्चर्यमे पड जाता है। काहेको होत अधीरा रे जब वर्गीजी उनत प्रकारसे समाजका सम्मान और पूजा तथा मातुश्री वाईजीके मातृस्नेहका अविरोधेन रस ले रहे थे, उसी समय वाईजी का एकाएक स्वास्थ्य बिगडा । विवेकी वर्णीजीकी आँखोके आगे आद्यमिलनसे तब तककी घटनाएँ घूम गई और कल्पना आई प्रकृत्या विवेकी, बुद्धिमान्, दयालु तथा व्यवस्था प्रेमी वाईजी शायद अब और Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी मेरे ऊपर अपनी स्नेह छाया नही रख सकेंगी। उनका सरल हृदय भर आया और आँखे छलछला आई, विवेक जागा, " माता ! तुमने क्या नही दिया और क्या नही किया ? अपने उत्थानका उपादान तो मुझे ही बनना है | आपके अनन्त फलदायक निमित्तको न भूल सकूंगा तयापि प्राधको टालना भी सभव नही ।" फलत अनन्त मातृ-वियोगके लिए अपनेको प्रस्तुत किया । वाईजीने सर्वस्व त्याग कर समाधिमरण पूर्वक अपनी इहलीला समाप्त की । विवेकी लोकगुरु वर्णीजी भी रो दिये और अन्तरगर्म अनन्तवियोग-दुःख छिपाये सागरसे अपने परम प्रिय तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरिको ओर चल दिये। पर कहाँ है शान्ति ? मोटरकी अगली सीटके लिए कहा-सुनी क्या हुई, राजपिने सवारीका ही त्याग कर दिया । सागर वापस आये तो बाईजीको "भैया भोजन कर लो" आवाज़ फिर कानोम आने -सी लगी । सोचा, मोहनीय अपना प्रताप दिखा रहा है । फिर क्या है अपने मनको दृढ किया और अबकी बार पैदल निकल पडे वास्तविक विरक्तिको खोजमें । फिर क्या था गांव-गांवने वाईजीके लादलेले ज्योति पाई । यदि सवारी न त्यागते, पैसेवाले भक्त लोग आत्म-सुधारके बहाने उन्हें वायुयान पर लिये फिरते, पर न रहा वाँस, न रही वाँसुरी । वर्णोजी झोपडी-झोपड़ी शान्तिका सन्देश देते फिरने लगे और पहुँचे हजारो मील चलकर गिरिराज सम्मेदशिखरके अचलमे । शायद पूजनीया बाजी जो जीवित रहके न कर सकती वह उनके मरणने सभव कर दिया । यद्यपि वर्णीजीको यह कहते सुना है "मुझे कुछ स्वदेश ( स्वजनपद ) का अभिमान जाग्रत हो गया और वहाँके लोगोके उत्थान करनेकी भावना उठ खड़ी हुई। लोगोके कहनेमे आकर फिरसे सागर जानेका निश्चय कर लिया । इस पर्यायमें हमसे यह महती भूल हुई, जिसका प्रायश्चित्त फिर शिखरजी जानेके सिवाय अन्य कुछ नही, चक्रमें आ गया ।" तथापि आज वर्णीजी न व्यक्तिसे बँधे है न प्रान्त या समाजसे, उनका विवेक और विरक्तिका उपदेश जलवायुके समान सर्वसाधारणके हिताय है । -वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ ८० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणोरणीयान् महतो महीयान् पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री पू राज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णीकी उपमा देवताओमे से यदि किसीसे दी जा सकती है तो शिवजीसे । शिवजीके वावा भोलानाथ, विश्वनाथ आदि अनेक नाम है और ये नाम वर्णीजीमे भी घटित होते है । वे सदा सबका कल्याण करनेमें तत्पर है । कोई भी व्यक्ति अपना दुख-दर्द उनके सामने रखकर उनसे क्रियात्मक सहानुभूति प्राप्त कर सकता है । वे किसीको मना करना जानते ही नही । उनके मुख से सबके लिए एक ही शब्द निकलता है- 'हम भैय्या ।' और राजाओमेसे यदि किसीसे उनकी उपमा दी जा सकती है तो राजा भोजसे । राजा भोज विद्वानोके लिए कल्पवृक्ष था । एक वार किसीने यह अफवाह उड़ा दी कि राजा भोज मर गये । विद्वानोमे कुहराम मच गया और एक विद्वान् के मुखसे निकल पडा- 'अथ धारा निराधारा, निरालम्बा सरस्वती । पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते ॥ ** इतने ही ज्ञात हुआ कि अफवाह झूठी थी, राजा भोज सकुशल है । तव वही विद्वान् कह उठा--- * श्रर्थात् 'आज राजा भोजका स्वर्गवास हो जानेसे धारा नगरी निराधार हो गई, सरस्वतीका कोई अवलम्बन नहीं रहा और पण्डित खण्डित हो गये- उनको सन्मान देनेवाला कोई नहीं रहा ।" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी 'अद्य धारा सदाधारा सदालत्रा सरस्वती। पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवं गते ।। वर्णीजी भी विद्यार्थियों और विद्वानो गल्पा । टिका राजा भोजकी तरह किसी राज्य स्वामी होते नो विनाको आजीणि के लिए किसीका मुंह ताकना न पटना । जब वे सुनने के किनी मित्रान् को जीविकाका कष्ट है या किसीने विद्वानकी जवहेलना की।मला अन्त करण आकुल हो उठता है, और वे भन्मक उनकी माता के लिए प्रयत्न करते हुए रचमात्र भी नही नकचाते। उनमा मानिकान्त है कि यदि हमारे चार अक्षरोंने किमीका हित होता हो नो उगने अन्त्री क्या बात है। उनके चार अक्षरोमे न जाने कितने पोदित, नी भीन निष्कासित छात्रो तथा विद्वानोका हित हुआ है। ऐने भी लोग है, जो उनकी इस उदार वृत्तिकी आलोचना करते है और माला कभी-कभी वर्णीजी भी सकोचमे पट जाने है, किन्तु उनका वह गंगोन उनकी उदार मनोवृत्तिके सामने एक क्षणमे अधिक नही हग्ना। टोर ही है, क्या किसीके कहने से नदी अपना बना बन्द कर सकता है, या जलने भरा मेघ बरसे विना रह सकता है। जिस दिन वर्णीजी अस्त हो जायेंगे, विद्वानो निर दिना माटके हो जायेंगे और उनकी जन्मभूमि बुन्देलखण तो नदाके लिए अनायो जायेगा। विरले ही महापुस्प ऐसे होते है, जो अपनी जन्मभूमिको तना प्यार करते है। वर्णीजी समस्त भारतकी जैन-समाजके द्वारा मादरीग होकर भी और भारतके विविध प्रान्तोमे भ्रमण करते हुए भी अपनी जन्मभूमि और उसके निवासियोको नहीं भूल सके । बुन्देलखण्डका छोटे-से-छोटा अधिवासी भी उनके लिए प्रिय है। वे उसके बच्चोंकी गिक्षाकी सदा चिन्ता करते रहते है। * अर्थात् श्राज राजा भोजके जी उठनेसे धारा नगरी सदाके लिए साधार हो गई, सरस्वतीका अवलम्बन स्थायी हो गया और पण्डितवर्ग मण्डित (भूपित) हो गया। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत जैन-समाजमे और विशेष करके बुन्देलखण्डकी जनसमाजमे शिक्षा का प्रसार करनेमे वर्णीजीने अथक प्रयत्ल किया है, और ७७ वर्षकी अवस्था हो जाने पर भी वे अपने प्रयत्नसे विरत नहीं हुए है। उनकी वालको-जैसी सरलता तो सभीके लिए आकर्षक है । उन्हे अभिमान छ तक नही गया है । सदा प्रसन्न मुख, मीठी-मीठी बातें, परदुःखकातरता और सदा सवकी शुभ कामना, ये वर्णीजीकी स्वाभाविक विशेषताएँ है। जबसे मैने उन्हें देखा और जाना, तबसे आज तक मुझे उनमे कोई भी परिवर्तन दिखलाई नही दिया । उत्तरोत्तर उनकी ख्याति, प्रतिष्ठा, भक्तोकी सख्या वरावर वढती गई, किन्तु इन सबका प्रभाव उनकी उक्त विशेषताओ पर रचमात्र भी नही पडा। वे सदा जनताकी भाषामे वोलते है, जनताके हृदयसे सोचते है और जनताके लिए ही सब कुछ करते है। इसीसे जनताके मनोभावोको जितना वे समझते हैं, जैनसमाजका कोई अन्य नेता नही समझता । वे उसकी कमजोरीको जानते हुए भी उससे घृणा नहीं करते, किन्तु हार्दिक सहानुभूति रखते है। इसीसे वे जनसाधारणमे इतने अधिक प्रिय है। उनसे मिलनेके बाद प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि वर्णीजीकी मुझ. पर असीम कृपा है। यही उनकी महत्ताका सबसे बडा चिह्न है । सचमुच में वे छोटे-से भी छोटे और महान् से भी महान् है । १० सितम्बर, १९५१ WIPIAnuw Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मार्थ - - - श्रीकानी महाराज . उमराला (काठियावाड) वि० सं० १६४६ उमराला वि० सं० १९७० ६२ वर्ष वि० स० २००८ दीक्षावर्तमान आयु Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARA AAAAAA काठियावाड़ के रत्न श्री कानजी महाराज प्रतिभाशाली व्यक्ति है । उनके परिचयमे आने वालोपर उनकी प्रतिभाका अमिट प्रभाव पड़े विना रहता ही नही । उनकी स्मरणशक्ति वर्षोकी वातको तिथि -वारसहित याद रख सकती है । उनकी कुशाग्र बुद्धि हरेक वस्तुकी तहमे प्रवेश करती है उनका हृदय वज्रसे भी कठिन और कुसुमसे भी कोमल है । वे एक अध्यात्मरसिक पुरुष है । उनकी नस-नसमें अध्यात्म - रसिकता व्याप्त है । कानजी स्वामी काठियावाड़के रत्न है । BEECEUDETOXXXXXXXXBU Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मार्थी श्री कानजी महाराज पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री स १९४० की घटना है | श्रमणबेलगोला के महामस्तकाभिषेक लौटते हुए अम्बाला सघ स्पेशल श्री गिरनार क्षेत्रपर पहुंची। क्षेत्र मुनीमसे ज्ञात हुआ कि कानजी महाराज यही है और कल बहने चले जायेंगे । हम लोग तुरन्त ही उनसे मिलने गये और हमने लाठी तख्तेपर बैठी हुई एक भव्य आकृतिको देना, जिनने प्रसन्नमुद्राने हमारा स्वागत किया । यह प्रथम दर्शन था। उसके पञ्चान् १६४६ में दूगरा अवसर उपस्थित हुआ । महाराजकी भक्त मडलीने सोनगढले दि० जैन विद्वत्परिषद्को आमन्त्रित किया और मुझे उसका प्रमुख बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । तीन दिन तक चर्चा-वार्ताका आनन्द रहा और जो कुछ सुना करते थे उसे प्रत्यक्ष देखनेका अवसर मिला । X X x कानजी महाराजका जन्म वि० स० १३४६ के वमान्य मानमे रविवारके दिन काठियावाडके उमराला गाँवमं, स्थानकवासी जैन-सम्प्रदायकी अनुयायी व्शा श्रीमाली जातिमे हुआ । आप वचपन से ही विरागी थे । छोटी उम्र में ही माता-पिताने स्वर्गस्थ हो जानेसे कानजी अपने वड़े भाईके साथ आजीविका उपार्जन करनेके लिए पालेजमे चालू दूकानमें शामिल हुए, किन्तु व्यापार करते हुए भी आपका दिल व्यापारी नही था । आपके मनका स्वभाविक झुकाव सत्यकी सोजकी ओर था । उपाश्रयमें किसी मुनिके आनेका समाचार मिलते ही आप उनकी सेवा और धर्म-चर्चाके लिए उनके पास दौड़ जाते थे । इस तरह आपका बहुत-सा समय उपाश्रयमे ही बीतता था । आपके सम्वन्धी आपको 'भगत' कहते थे । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरण के अग्रदूत एक दिन आपने अपने बड़े भाईसे साफ-साफ कह दिया कि मुझे विवाह नही करना, मेरे भाव दीक्षा लेनेके है । भाईने बहुत समझाया कि तुम लग्न करो चाहे न करो, तुम्हारी इच्छा, किन्तु दीक्षा मत लो। परन्तु बहुत समझाने पर भी उनका विरागी चित्त ससारमे नही लगा । दीक्षा लेने से पहले आप कितने ही महीनो तक आत्मार्थी गुरुकी खोज में काठियावाड, गुजरात और मारवाडके अनेक गाँवो में घूमे । अन्तमें सवत् १९७० में मार्गशीर्ष सदी नवमी, रविवारके दिन उमरालामें ही alera सम्प्रदाय हीराचन्दजी महाराजसे दीक्षा ले ली । £8 दीक्षा लेनेके पश्चात् आपने श्वेताम्बर आम्नायके शास्त्रोका गहरा अभ्यास किया। आपकी ज्ञानपिपासा और सुशीलताकी स्थाति शीघ्र ही सौराष्ट्र में फैल गई । जब कोई मुनि कहता - 'चाहे जितना उग्र चारित्र पालन करो, किन्तु यदि सर्वज्ञ भगवान्ने अनन्त जन्म देखे होगे तो उनमेसे एक भी जन्म घटनेका नही ।' आप तुरन्त बोल उठते - 'जो पुरुषार्थी है, उसके अनन्त जन्म सर्वज्ञ भगवान्ने देखे ही नही ।' सं० १९७८ मे भगवान् कुन्दकुन्द विरचित समयसार ग्रन्थ आपके हाथमें आया । उसे पढते ही आपके आनन्दकी सीमा न रही। आपको ऐसा प्रतीत हुआ कि जिसकी खोजमें थे, वह मिल गया । समयसारका आपपर अद्भुत प्रभाव पडा, और आपकी ज्ञानकला चमक उठी । स० १९९१ तक कानजीने स्थानकवासी साधुकी दशामे काठिया - arsh अनेक गाँवो विहार किया और लोगोको जैनधर्मका रहस्य समarter यत्न किया । अपने व्याख्यानोमे आप सम्यग्दर्शनपर अधिक ज़ोर देते थे । 'दर्शन-विशुद्धिसे ही आत्म-सिद्धि होती है' यह आपका मुख्य सूत्र रहा है । वे अनेक वार कहते - " शरीरको चमडी उखाड़कर उसपर are fasadपर भी क्रोध नही किया, ऐसा चारित्र जीवने अनन्त वार पाला है, किन्तु सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त नही किया । लाखो जीवोसम्यक्त्व सुलभ नहीं है । की हिंसा से भी मिथ्यात्वका पाप अधिक है ।. -लाखो करोडोसे किसी एक चिरलेको ही वह प्राप्त होता है । आज तो " Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्मार्थी श्री कानजी महाराज सब अपने-अपने घरका सम्यक्त्व मान बैठे है ।" उस तरह अनेक प्रकारसे आप सम्यक्त्वका माहात्म्य लोगोके चित्तपर बैठानेका यत्न करने । प्राय. देसा जाता है कि साधुओके व्यारयान में वृद्धजन ही आते हैं, परन्तु आपके व्याख्यानमे शिक्षितजन - वकील, डाक्टर वगैरह भी आते थे। जिस गाँवमे आप पधारते, उस ग्राममे घर-घर धार्मिक वायुमण्डल छा जाता । तथा जैनधर्मके प्रति अनन्य श्रद्धा, दृढता और अनुभवके वलपर निकलनेवाले आपके वचन नास्तिकोको भी विचारमं डाल देते और कितनोको ही आस्तिक बना देते । ९५ पहले तो आप स्थानकवासी सम्प्रदायमे होने से व्याख्यानोमे मुख्यतया श्वेताम्बर शास्त्र पढते थे, किन्तु अन्तिम वर्षोमं नमयसार आदि अन्योको भी सभामे पढ़ा करते थे । यह क्रम स० १६६१ तक चलता रहा, किन्तु अन्तरंग में वास्तविक निर्ग्रन्य मार्ग ही सत्य मालूम होनेने स० १९९१ के चैत्र सुदी १३ मंगलवारको भगवान् महावीरके जन्मदिवसके अवसर पर आपने धर्म-परिवर्तन कर लिया और सत्यके लिए काठियावाड़के सोनगढ नामक छोटेसे गॉवमे जाकर बैठ गये । जो स्थानकवासी सम्प्रदाय कानजी मुनिके नामसे गौरवान्वित होता था, उसमे इस परिवर्तनले हलचल होना स्वाभाविक ही था, किन्तु वह हलचल क्रमसे शान्त हो गई। जिन लोगोका उनमे विश्वास था, वे ऐसा विचार कर कि 'महाराजने जो किया वह समझकर ही किया होगा' तटस्थ वन गये और मुमुक्षु तथा विचारक वर्ग तो पहले से भी अधिक उनका भक्त वन गया । परिवर्तनके वाद आपका मुख्य निवास सोनगढमे ही है । आपकी उपस्थितिसे सोनगढ़ एक तीर्थधाम-सा वन गया है । विभिन्न स्थानोसे अनेक भाई-बहन आपके उपदेशका लाभ लेने सोनगढ आते रहते हैं । उनके निवास तथा भोजनके लिए वहाँ एक जैन अतिथिगृह है । उसमे सब भाई समयसे एक साथ भोजन करते है ।' अनेक मुमुक्षु भाई-बहनोने तो वहाँ अपना स्थायी निवास स्थान बना लिया है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत सोनगढका जिन-मन्दिर तथा सीमन्धर स्वामीके समवसरणको रचना दर्शनीय है । कुन्दकुन्द स्वामीके विषयमे ऐसा उल्लेख मिलता है कि उन्होने विदेहक्षेत्रमे जाकर सीमन्वर स्वामीके मुखसे दिव्यध्वनिका श्रवण किया था। दर्शनसारमे लिखा है "जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिवणाणेण । रण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥' अर्थात्-'यदि सीमन्धर स्वामीसे प्राप्त दिव्य ज्ञानसे श्री पद्मनन्दि स्वामी, (कन्दकुन्द) ने बोध न पाया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?' कानजी स्वामीकी उक्त उल्लखपर दृढ आस्था है। अत उनकी भावनाके अनुसार सोनगढमें सीमन्धर स्वामीके समवसरणकी रचना रचकर उसने कुन्दकन्द स्वामीको भगवान्का उपदेश वण करते हुए दिखलाया है। यह रचना दर्शनीय है। सोनगढका स्वाध्याय-मन्दिर भी दर्शनीय है। यह एक विशाल भवन है, जिसमे कई हजार भाई-बहन एक साथ वैश्कर महाराजका उपदेश श्रवण कर सकते है । धर्मोपदेशका समय निश्चित है, सुबह ८ से ६ तक और सन्ध्याको ३ से ४ तक । सव श्रोता ठीक समय पर आकर बैठ जाते है और ठीक समयसे उपदेश प्रारम्भ हो जाता है और ठीक समयपर बन्द होता है। समय-पालनकी विशेषता पर वरावर ध्यान दिया जाता है। सन्ध्याको उपदेशके पश्चात् सव भाई-बहन जिन-मन्दिरमे जाते है और वहाँ आधा घटा सामूहिक भक्ति की जाती है। कानजी महाराजको समयसार और कुन्दकुन्दके प्रति अतिशय भक्ति है। वे समयसारको उत्तमोत्तम ग्रन्थ गिनते है। उनका कहना है कि 'समयसारकी प्रत्येक गाथा मोक्ष देनेवाली है । भगवान् कुन्दकुन्दका हमारे ऊपर बहुत भारी उपकार है। हम उनके दासानुदास है । भगवान् कुन्दकुन्द महाविदेहमें विद्यमान तीर्थकर सीमन्वर स्वामीके पास गये थे। कल्पना करना मत, इनकार करना मत, यह वात इसी प्रकार है, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्मार्थी श्री कानजी महाराज ← मानो तो भी इसी प्रकार है, न मानो तो भी इसी प्रकार है ।' समयमारकी जो स्तुति ह पदी जाती है, वह भक्तिरस से ओतप्रोत है । यद्यपि वह गुजरानीमे है, किन्तु गुजराती न जाननेवाले पाठक भी उसका आगय सरलताने नमक सकते है-स्तुति उस प्रकार हैसीमन्धर मुखथी फूलढां भरे, एनी कुन्दकुन्द ग्रंथी माल रे, जिनजी नी वाणी भली रे । वाणी भली मन लागे रली, जेमां समयसार सिरताज रे, जिनजी नी वाणी भली रे "सीमन्धर० ॥ १॥ गुंग्या पाहुड ने गूंथ्यं पंचास्ति, jj प्रवचनसार रे, जिनजी नी वाणी भली रे । ९७ गृल्यूं नियममार, ग्रंथ्यं रयणसार, गंध्यं समयनो सार रे, जिनजी नी वाणी भली रेसीमन्धर० ॥२॥ स्याद्वाद केरी' सुवासे भरे लो, जिनजीनो ऊँकार नाट ३, जिनजी नी वाणी भली रे । बंदु जिनेश्वर बंदु हुं कुन्दकुन्द, बंदु ॐकार नाद रे, जिनजी नी वाणी भली रे "सीमन्धर० ॥३॥ .. हैडे" हजो मारा ध्याने मारा भावे हजो, हजो जिनवाण रे, जिनजी नी वाणी भली रे । १ मुखसे । २ इसकी । ३ की । ४ जिनवाणी हमारे हृदयमें होवे, जिनवाणी हमारे भावोंमें होवे, जिनवाणी हमारे ध्यानमें होवे । ७ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जागरण के अग्रदूत जिनेश्वर देवनी वाणीसना वायरा', बाजे मने दिन रात रे, जिनजी नी वाणी भली रे "सीमन्धर० ||४|| इसमें सन्देह नही कि कानजीका व्यक्तित्व बडा प्रभावक है और वक्तृत्वशैली अनुपम है । उनके प्रभाव से सोनगढ के जनेतर अधिवासी भी अध्यात्म वचक प्रेमी वन गये है । अपने सोनगड के प्रवास - कालमें हमें इसका अनुभव हुआ । एक दिन एक व्यक्ति विद्वानोके वासस्थान पर आकर अध्यात्मको चर्चा करने लगा । पूछने पर उसने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं मुसलमान हूँ, पुलिसमे कान्सटेवुल हूँ और प्रतिदिन महाराजका उपदेश सुनने जाता हूँ । दूसरे दिन एक विद्वान्‌को ज्वर आ गया । उन्हें देखने के लिए डाक्टर आया । एक घंटे तक खूब अध्यात्म चर्चा रही । fharat है कि मण्डन मिश्र एक बहुत वडे विद्वान् थे । जब शकराचार्य शास्त्रार्थके लिए उनके ग्राम में पहुँचे तो उन्होंने ग्रामके बाहर कुआँपर पानी भरनेवाली एक स्त्रीसे मण्डनमिश्रका घर मालूम करना चाहा । उस पानी भरनेवालीने उत्तर दिया--- " स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाण कीरांगना यत्र गिरो गिरन्ति । द्वारेऽपि नीडान्तः सन्निरुद्धा श्रवेहि तन्मण्डन मिश्रधाम ॥" 'जिसके द्वारपर पीजरोमें वन्द मैनाएँ ' प्रमाण स्वतः होता है अथवा परत होता है' इस प्रकारको चर्चा करती हो, उसे ही मण्डनमिश्र का घर समझना ।' सोनगढके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिए । जहाँके वायुमण्डलमें अध्यात्म प्रवाहित हो वही कानजीका निवास स्थान सोनगढ है । -काशी १ अक्टूबर, १९५९ ९५ १ वायु । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - M - ATMIN . . A - Matmi - CLIA ARWikilearni H -- - VISITE -- - - - - - - - - Rames जन्म विवाहवैधव्यवर्तमान श्रायु- वृन्दावन आपाढ शुक्ल ३ वि० स० १९४६ ११ वर्षको अवस्था में १२ वर्ष की अबोधावस्था में ६२ वर्ष वि० स० २००८ . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAANAAANANNYAANRANNAVATARTARRAXAAAAAAAAAAA कापूका आशीर्वाद पण्डिता चन्दावाई द्वारा स्थापित "वनिता-विश्राम" देखकर मुझे वड़ा आनन्द हुआ, और मकानकी शान्ति देखकर आनन्द हुआ। मोहनदास कर्मचन्द गान्धी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ দুলহা ত্যাগ श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ' .inar गति मर गया, पत्नीकी उन १६ वर्ष है। मां-बाप विलख रहे हैं, भाई रो रहे हैं, वहन वेहाल है, शहरभरमै हाहाकार है, पर जिसका नव कुछ लुट गया, वह स्नान करके गार कर रही है, आँखोमे अजन, माँगमें मिन्दूर और गुलाबी चुनरिया, चेहरेपर रूप बरस पड़ा है, अग-अग में स्फुरणा है और जिह्वाम मिश्री, जिनसे कभी सीधे मुंह नहीं वोली, आज उनसे भी प्यार । शहर भरके लोग एकत्र, युवककी अर्थी उठी, अर्थीके आगे, नारियल उछालती, पर्दे के उस बीहड़ अंधकारमै भी खुले मुंह गीत गाती, ढोलके मद भरे घोप पर थिरकती, उसीकी ताल पर अपनी नई चूड़ियाँ खनखनाती, वह १६ वर्षको सुकुमारी नारी उमगानकी ओर जाती, भारत के चिर अतीतम हमे दिखाई देती है। उसका पति मर गया, पर वह विधवा नहीं, यह हमारी संस्कृतिका महा वरदान है । पतिके साथ रही है, पतिके साथ रहेगी-चिताके ज्वालामय वाहन पर आत्ढ़ हो, किसी अक्षयलोककी ओर जैसे देहधरे ही वह उडी जा रही है, जहां रूप है, कुरूप नही, मगल है अमगल नही, मिलन है, वियोग नही । यह भारतके स्वर्णयुगकी महामहिमामयी सती है, उसे शत-शत प्रणाम । पति मर गया है, पत्नीकी उम्र १६ वर्ष है, उसके जीवनमे अव आह्लाद नहीं, आगा नही, दुनियाके लिए वह एक अशकुन है, सासके निकट डायन, मांके लिए बदनसीव, वह मानव है, भगवान्के निवासका पवित्र मन्दिर, पर मानवका कोई अधिकार उसे प्राप्त नहीं । समाज Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरण के अग्रदूत १०२ और धर्मशास्त्र दोनोने उसके पथमें ऊँचे-ऊंचे 'बोर्ड' खडे किये है, जिनपर लिखा है, सयम, ब्रह्मचर्य, त्याग, सतीत्व और वन्दनीय, पर व्यवहारमे प्राय जेठ, देवर, श्वशुर और जाने किस-किसको पशुताका शिकार । रेलवे डिपार्टमेण्टके 'सफरी' विभागके कर्मचारियोकी तरह जव आवRear हो, पिताके घर और जव ज़रूरत हो श्वशुरके द्वार जा 'कर्तव्यपालन' के लिए बाध्य, ऐसा कर्तव्य पालन, जिसमे रस नही, अधिकार नही, ममता नही, कैदीकी मशक्कतको तरह अनिवार्य, पर महत्त्वहीन और मानहीन | यह हमारे राष्ट्रके मध्ययुगकी विधवा है, समाजका अग होकर भी, सामाजिक जीवनके स्पन्दनसे शून्य । साँस चलता है, केवल इसीलिए जीवित; अन्यथा जीवनके सव उपकरणोसे दूर, जिसने सव कुछ देकर भी कुछ नही पाया, वलिदान के बकरेकी तरह वन्दनीय | जिसने ठोकरे खाकर भी सेवा की और रोम-रोममे अपमानकी सुइयोसे विधकर भी विद्रोह नही किया । हमारे सास्कृतिक पतनकी प्रतिविम्व और सामाजिक ह्रासको प्रतीक इस वैधव्यमूर्तिको भी प्रणाम 1 * * * पति मर गया है, पत्नी १६ वर्षकी है । हँसनेको उत्सुक-सी कली पर विपदाका जव पहाड़ टूटा, माँके विलापका धुवाँ जब आकाशमं भर चला, परिवार और पास-पडोस जब कलेजेकी कसकमे कराह उठे, तव पिताने धीमे, पर दृढ स्वरमे कहा -- रोओ मत, उसकी चूडियाँ मत उतागे, मैं अपनी बेटीका पुनर्विवाह करूंगा तो जैसे क्षण भरको बहती नदी ठहर गई । साथियोने हिम्मत तोडी, पचोन पचायत के प्रपच रचे, सुसराल - वालोने कानूनी शिकजोकी खूंटियाँ ऐंठकर देखी, पर सुधारक पिता दृढ रहा। उसन युगकी पुकार सुनी और एक योग्य वरके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया, धूमधामसे, उत्साहसे, गम्भीरतासे । कन्याका मन आरम्भ में हिरहिराया, फिर अनुकूल हुआ और फिर उसका मन अपने नये घरमे रम गया । पतिके प्रति अनुरक्त, परिवारके प्रति सहृदय और अपनी सन्तानमें लीन वह जीवनकी नई नाव खे चली । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० चन्द्राबाई १०३ यह हमारे युगकी नई करवट, परम्पराको नई परिणति, नारीको असहायताका नया अवलम्ब, समाजके निर्माणको नव सूचनाका एक प्रतीक है, जिसे आरम्भमें वर्षों पतिना प्यार तो मिला, पर समाजका मान नही, जिसे परिवार मिला, जिसने परिवारका निर्माण किया, पर जिसे बरसो पारिवारिकता न मिली, जिसे बरसो नई आबादी के मधुर कोलाहलमे भी गित वीरानेकी शून्यताका भार होना पड़ा, पर जो धीरेधीरे युगका अवलम्ब लिये स्थिर होती गई और जो आज भी कुलीनता के निकट व्यगकी तो नहीं, ही उगितकी पात्र है । नवचेतना नावनास्रोतको भी प्रणाम ! * पति मर गया है, पत्नी १६ वर्षकी है। आशाओंके व प्रवी एक ही भोंके बुझ गये । कहीं कोई वहीं, कही कुछ नहीं, बम शून्य -- सव शून्य | स्थिरता जीवनमे सम्भव नहीं, पैर हिलनेकी भी शक्तिमे हीन । सहसा हृदयमे एक आलोक, आलोक जीवनकी स्फुरणा और स्फुरणामे चिन्तन ! * पति । नारीके जीवनमें पतिका क्या स्थान है ? पति ? क्या विवाह द्वारा प्राप्त एक साथी ? और विवाह ? आजको भाषामे एक ऐग्रीमेण्ट ? तो पति मर गया और वह ऐग्रीमेण्ट भग ! अब नारो स्वतन्त्र, चाहे जिधर जाय, चाहे जो करे ? है न यहीं ? हाँ; तो फिर हमारी सस्कृतिमे, इन शास्त्रोमे, विलहके ये गीत क्यो ? म हाँके साथ जैसे भीतरका, आत्माका सब रस सूख चता । फिर चिन्तन, गम्भीर चिन्तन, अन्तरमे भाव-धाराकी सृष्टि । जीवन में साथी तो अनेक है, पतिका अर्थ है प्रतीक व्रतका प्रतीक, लक्ष्य का प्रतीक । पतिव्रतका अर्थ है पतिका व्रत । पतिकी पूजा ? दुनिया कहती है हाँ, धर्म कहता है नही, पतिका व्रत, पतिकी पूजा ? यह अर्थका अनर्थ है । मानव, मानवकी पूजा करे, मानव ही मानवताका व्रत Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन-जागरणके अग्रदूत हो यह ईश्वरके प्रति द्रोह है। फिर | पतिव्रत-पतिके द्वारा व्रत, पतिके द्वारा पूजा । पूजा लक्ष्यकी, मत साध्यकी प्राप्तिका । तव यह लक्ष्य क्या है ? साध्य क्या है। व्यक्तिको समष्टिके प्रति एकता, अणुको विराटमें लीनता, भेद-उपभेटोकी दीवारे लांघकर, अज्ञान गिरिके उस पार हँसते-खेलते प्रभु-परमात्मामें जीवकी परिणति । ओह, तव पति है साधन, पति है पथ, पति है अवलम्ब, न साध्य ही न लक्ष्य ही । पर साधन नही, तो साध्य कहां, पथके विना प्रिय प्राप्ति कैसी और वह हो गया भग? भगवान्की कृपासे फिर ज्ञानका आलोक । भग कैसा | लहर जब सरितामे लीन होती है, तव क्या वह नाग है ? वीज जब मिट्टीमें मिल वृक्षमे वदलता है, तब क्या वह नाश है ? ऊहूँ यह नाश नहीं है, यह परिणति है। पति है लहर, सरिता है समाज, पति है वीज, वृक्ष है समाज । पति नहीं है । इस नहीका अर्थ है प्रतीकको परिणति । नारी लक्ष्यकी ओर गतिशील, कल भी थी, आज भी है, यही उसका व्रत है। कल इस व्रतका प्रतीक था पति । आज है समाज । गतिके लिए तल्लीनता अनिवार्य है। कल तल्लीनताका आधार था पति, आज है समाज । कल नारी पतिके प्रेममे लीन थी, आज समाजके प्रेममे लीन है। यह लीनता स्वय अपनेमे कोई पूर्ण तत्त्व नही, पूर्णताका प्रशस्त पथ है। नारीका लक्ष्य अविचल है, जो कल था, वही आज है, पर पथ परिवर्तित हो गया, प्रतीक बदला, साधन वदले, इंगलैडका यात्री अदनपर अपना जलपोत त्याग हवाई जहाज पर उड चला। उसे इंगलैड ही जाना था, और इंगलैड ही जाना है यात्राके साधनोका परिवर्तन यात्राके लक्ष्य का परिवर्तन नही। ___ज्ञानके आलोककी इस किरणमालामे स्नानकर नारी जैसे जाग उठी, जी उठी। निराशा आशाके रूपमे वदल गई, वेदना प्रेममें अन्तहित, स्तब्धता स्फुरणामें, सामने स्पष्ट लक्ष्य, पैरोमे गति, मनमे उमग, जीवनमें उत्साह । मस्तिष्क सद्भावनाओसे पूर्ण, हृदय प्रेमसे। कही किसीका Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब० चन्द्राबाई कष्ट देना और पैर चने, कहीं किसीका देगा और भुलाएं की, कही frier कष्ट देना और मस्निफ मिलिनओत-प्रोन, पत्नी अव का विगो लिए विस्वसनीय, सबके लिए वन्दनीय | जोवन नहीं. माता रे, व यह नारीके नारीत्वका नरम विहान है, उनके नीत्व पर गति है, उसको गतिको अन्तिम नीमा है, जहां यह जाना पानी है, यही उसके जीवनका गंगानगर है, जहां वह भगवान् -सागरगं नीन हो, परम सुखका लाभ लेती है । निर्माणमयी, निर्वाणमयी नारीक . तिन नूतन मूर्तिको लाम-नाम प्रणाम । २०७ * भारतीय सस्कृतिके नव नायक गान्धीजीने नारीको सी नति को, वैधव्य के इन दिव्य को 'हिन्दू' का श्रृंगार रहा है। शृंगारकी इमी दीप्तिगे प्रोज्ज्वल आज एक नारी हमारे मध्यमं है, ब्रह्मचारिणी चन्दावाद ! चन्दावा- एक वैष्णव परिवारमें जन्मो, राधाकृष्णको Treat भक्तिधाराके वातावरणमें पली । माकी लोरियोमे उन्हें श्रद्धाका उपहार मिला, पिताके प्यार उन्होंने कमंटताका दान पाया और ११ वर्षकी उम्र में एक सम्पन्न जैन परिवारमे उनका विवाह हुआ । विवाह हुआ, उनके निकट इसका अर्थ है, विवाह-संस्कार हुआ और १२ वर्षकी उम्रमे उनका सब कुछ छिन गया, वे ठीक-ठीक जान भी न पाई और वैधव्यकी ज्वालामं उनका सर्वस्व भस्म हो गया । १२ वर्षकी एक सुकुमार बालिका, जो दुनियाको देखती है, पर समझ नही पाती ; जो समझती है, अपने व्याकरणसे, अपने कोदाले, अपने ही लक्षणसे । इतना विशाल विश्व और अकेले यात्रा यहाँ भाग्यका अस्तित्व है, योग्य अभिभावक मिले, पथ वना । वैष्णवकी श्रद्धाका सम्बल Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन-जागरणके अग्रदूत लिए वे चली, जैनत्वकी साधनाने उन्हें प्रगति दी। श्रद्धा और साधना दोनो दूर तक साथ-साथ चली। श्रद्धा समर्पणमयी है, साधना ग्रहणशील, श्रद्धा साधनामें लीन हो गई। श्रद्धामयी साधना मूक भी है, मुखरित भी। मुखरित साधना, जिसमें अन्तर और बाह्य मिलकर चलते है-बुद्ध, महावीर और गान्धीकी साधना, जिसमे आत्मचिन्तन भी है, जगकल्याण भी। यही पथ चन्दावाईजीने चुना। विगत वर्षों में उन्होने जो आत्मसाधनाकी अन्तरमे तप तपा, वह उनकी आकृतिमें, जीवनके अणु-अणुमें व्याप्त है। प्रत्यक्ष, जिसके अनुसन्धानमे श्रम अभीष्ट नही, और इन्ही वर्षो में उन्होंने लोक-कल्याणकी. जो साधना की, उसका मूर्तरूप आराका 'जैनवाला-विधाम' है देशकी एक प्रमुख सेवा-सस्था । आत्मसाधनामे सन्यासी, लोकव्यवहारमें सासारिक, विश्व और विश्वात्माका समन्वय ही इस महिमामयी नारीको जीवन-साधना है । जीवनमें धार्मिक, व्यवहारमें देशसेवक, सिद्धान्तोमें अतीतकी मूलमे, प्रगतिमे नवयुगकी छायामे, जिसकी एक मुट्ठीमे भूत, दूसरीमें भविष्य और वर्तमान जिसके जीवनोच्छ्वासमे व्याप्त, यही पण्डिता चन्दावाई है। युगका सन्देश वहन करती साधनामयी इस नारीको भी शत-शत प्रणाम । --अनेकान्त, नवम्बर १९४३ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दर्शन श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य गहनी मई नन् १९३६ को पत्र मिला-"आप इण्टरव्यू के लिए नन्ने 7 आइये, मार्गव्यय मिल जायगा ।" परने मेरे मनमें गुदगदी पैदा करदी, मेरे हृदयकुञ्जमे मदिर भाव विहगोका कूजन होने लगा। वीणा तारोमे नोया हुआ नगीन मुवन्ति हो उठा। मनने नहा-मफलता निपट है, आजीविका मिल जायेगी, पर हृदयने वेदनाक एक गजल छोयो पकाडकर झकझोरते हुए कहा- यह अधर छन्तगती मुन्धान प्रतिया नवल उल्लाममात्र है। आराम धर्मगान्वना पण्तिा चन्दाबाजीले समक्ष जाना है, बडे-बटे पण्डित उनके पाण्डित्यके समक्ष मूल हो जाने है, तुम नये रॅगस्ट, अनुभवगून्य, मात्र पिताबी कोडे टिक सकोगे? हृदयके इस कयनको कल्पनाने अवहेलना की। वह मुग्न-दुग्य, हार-विषाद. मकल्प-विकल्पके माथ आंग्व-मिचौनी मेलने लगी। कर्मयोगका विग्वानी इम अनन्त विश्वमे साधनागीन होकर ही जीवनके सत्यको प्राप्त करना है। सहता अन्धकारमय क्षिनिज पर एक निमन ज्योतिको प्रभा अवतरित हुई और अन्तम्से ध्वनि निकली कि चलकर लिंपी गुरुवयं पण्डित कैलागचन्द्रजीसे सलाह क्यो न ली जाय? वेदनासे भाराच्छन्न मन लिये गुरुवर्यके समक्ष पहुंचा और कांपने हुए पत्र उनके हाथमे दे दिया। एक ही दृष्टिमे पत्रके अक्षरोको आत्ममात् करते हुए वह बोले---"तुम काम करना चाह्ने हो, आरा अच्छी जगह है, चले जाओ। ७० प० चन्दावाईजीके सम्पर्कसे तुम्हारा विकास होगा, सोना बन जाओगे।" ___ मैंने धीरेसे कहा-"पण्डितजी। डर लगता है। इण्टरव्यूमें क्या कहूंगा।" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत गुरुदेवने प्रेमभरे शब्दोमे कहा-"डरनेकी बात नही, संभलकर उत्तर देना।" वार्षिक परीक्षा समाप्त होनेपर ५ मईके प्रात.काल कल्पनाके कमनीय पखो पर उडता हुआ, उल्लासकी वीणा पर भव्य भावनाओको कोमल अंगुलियाँ फेरता, अनेक अरमानोको हृदयमै समेटे, खिन्न मन मैना सुन्दर भवन (नयी धर्मशाला) आरामै आ पहुँचा। दरबानने एक कोठरी ठहरनेको दे दी, सामान एक किनारे रख नित्यकर्मसे निवृत्त हुआ; और स्नान, देवदर्शनके पश्चात् कर्मचारियोंसे मालूम किया कि प० चन्दावाईजीके दर्शन कहाँ होगे? धर्मगालाके मैनेजर काशीनाथजीने कहा-"कलसे वे कोठी (श्री वायू निर्मलकुमारजीके भवन) मे आई हुई है । आप अभी ७ वजे उनसे कोठीमें ही मिल आइये, दो बजे वह आश्रम चली जायेंगी।" मैने नम्रतापूर्वक कहा-~-"कृपया मुझे कोठीका रास्ता बतला दें, यदि अपने यहाँके आदमीको मेरे साथ कर दे तो मैं अपनेको धन्य समझू ।' उन्होंने मेरे साथ सहानुभूति प्रकट की और धर्मशालाके सेवक चतुर्गुणको मेरे साथ कोठी तक कर दिया। वहां जाकर मैने दरबानसे पूछा-"श्री प० चन्दाबाईजीसे मुलाकात कहाँ होगी ?" उसने कहा कि "आप छोटी बहूजीसे मिलना चाहते है ? इस समय तो वह मन्दिरमे सामायिक कर रही है।" मैंने कहा-"नही जी, मुझे प० चन्दावाईजीसे मिलना है, जो वालाविश्रामकी सचालिका है ।" कठिनाई यह थी कि दरबान भोजपुरीमें बोलता था और में बोलता था हिन्दीमें । दोनो ही परस्पर एक दूसरेकी बातोको ठीक तरहसे समझनेमें असमर्थ थे। वडी देरतक वह छोटी बहूजी, छोटी बहूजी कहता रहा और मै प० चन्दावाईजीको पूछता रहा। इसी बीच ऊपरसे कोई रसोइया आया और वह हम दोनोकी बातोको सुनकर बोला-"हाँ, हाँ, वही धनुपुरा वाली वहूजी | अभीअभी सामायिक करके आई है । आप क्या चाहते हैं ? मैं ऊपर पूछकर आता हूँ, अपना नाम बतला दीजिये।" Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा चन्दापाई १०६ मैने एक निटपर अपना नाम लिसकर और उनका भटरव्यूके लिए प्राप्त पत्र उन रनोऽयेको दे दिया। थोड़ी देम उस व्यक्तिने गार कहा-"आपको ऊपर बहजी बना रही है।" मैने उस आदमीने कहा-"भः ! मनमा भादमी है, यहाँग नियमोसे बिल्कुल अपरिचित हैं, पर नक मेरे माध नलनेका राष्ट करे। नग कहता हूं उस समय मेरे मनमें उसने नाही अभिप बबटाटी जैनी विषय तैयार न होनेपर कभी-कभी परीक्षाभवन पवाट हो जाती थी। कलेजा धक-धक कर रहा था, नाना प्रधान मना-विकल्प उत्पन्न हो रहे थे। मैं अपने भाग्य निपटान करने जा का था। ऊपर पहुंचकर कमरेले गमदेने मैंने भगवा उन्नं हए, गावात हुए, भय खाते हए। मन रह रहा था कि सही मझने सघ अमिष्टना न हो जाय और वना-बनाया मागमेलन विगः जाय । में प्रतीक्षा कर रहा था कि एक मधुर आवाज आई, आप भीतर चलं जाये। फिर क्या था अमल धवल बट्टारकी नाड़ी पहने दिव्य तेजन्धिनी, नादर्गामे औनप्रोत, मधुरभापिणी, नपम्बिनी, नेगीला मांके दर्शन हुए। उस समय हृदयमें नाना प्रकारको नरगें उठ रही थी। मनं श्रद्धा और भक्तिने प्रणाम करते हुए मनमे वाहा--"यही पडिना दावाईजी है, नब तो डरनेकी कोई बात नहीं । मै जिनसे डर रहा था, उनमे अपूर्व स्नेह और ममता है, वाणीमे तो मिश्री घोल दी गई है।" न मालूम क्यो मेरे हृदयने बरखन ही उनके गुणोकी श्रेष्ठना स्वीकार कर ली और उनकी चरण-रज सिरपर धारण करनेको लालायित हो उठा। स्नेहामृत उँटेलकर कुर्मी पर बैठालते हुए उन्होंने पूछा--"रास्लेमें कष्ट तो नहीं हुआ ? अपना सामान आपने कहाँ रक्खा है ? आप रहें। वाले कहाँके है ?" मैने सक्षेपमे उपर्युक्त प्रश्नोका उत्तर दिया । पश्चात् उन्होने पुन कहा--"आपने कहाँ तक अध्ययन किया है ? धर्मगास्त्रम कौन-कौन ग्रथ पढे है ? सस्कृत-साहित्य और व्याकरणका अध्ययन कहाँ तक किया है ? न्यायतीर्थकी परीक्षा किस वर्ष दी?" मैने पूज्य पंडित Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैन-जागरण के अग्रदूत कैलाशचन्द्रजी द्वारा प्रदत्त परिचयपत्रको देते हुए उपर्युक्त प्रश्नोका सक्षेप में जवाब दिया । अब मुझमें साहस आने लगा था और भय उत्तरोत्तर घटता जा रहा था । अनन्तर माँश्रीने हँसते हुए प्रथम गुच्छक, जिसका वह स्वाध्याय कर रही थी उठा लिया और मुझसे देवागम स्तोत्रकी बाहरवी कारिका - "भावैकान्तपक्षेऽपि भावापहववादिनाम" का अर्थ पूछा। में अष्टसहस्रीको परीक्षा देकर आया था। मुझे अपने तद्विषयक पाडित्यका पूरा भरोसा था; अत प्रसन्न होकर कारिकाका अर्थ 'शती' और 'सहस्री' टीकाओके आधारपर उद्धरणसहित बताया। माँश्रीने हँसते हुए वीचमे रोककर कहा कि कारिकाके उत्तरार्द्ध 'बोववाक्य' का अर्थ फिरसे कहिये । मैंने रटी हुई पक्तिके आधार पर कहा - "बोधस्य स्वार्थसाधनदूपणरूपस्य वाक्यस्य च परार्थसाधनदूपणात्मनो संभवात्तन्न प्रमाणम्” अर्थात् स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको प्रमाणता सिद्ध न हो सकेगी । माँश्रीने बीचमें रोकते हुए कहा--"वोघ" शब्दका अर्थ अनुमान और "वाक्य " शब्दका अर्थ आगम लिया जाय तो क्या हानि है ? वसुनदी वृत्तिके आधार पर उन्होंने अपने अर्थकी पुष्टिके लिए प्रमाण भी उपस्थित किये । मैं उनकी तर्कणाशक्तिको देख आश्चर्यमें डूब गया । पश्चात् 'आत्मानुशासन' और 'नाटकसमयसारकलश' के कई श्लोकोका अर्थ पूछा । में अर्थ कहता जाता और माँश्री बीच-बीचमे शकाएँ करती जाती थी । बृहत्स्वयभूस्तोत्रमे मुनि सुव्रतनाथको स्तुतिमें आये - "शशिरुचि - शुचिशुक्तलोहितं" श्लोकका अर्थं गलत कर रहा था तो माँश्रीने मीठे शब्दो में मेरी गलती वतलाई और उस श्लोकके दो-तीन अर्थ भी प्रकारान्तरसे किये । ११७ गोम्मटसार जीवकाण्डको लेकर उन्होने "श्रवरुवरि इगिपदेसे गुदे श्रसंखेज्जभाग वड्ढीए" आदि अवगाहनाके वृद्धिक्रमवाली गाथाओको व्याख्या करनेका मुझे आदेश दिया । गणित विषयमे विशेष रुचि होनेके कारण मैने गोम्मटसारमे आई हुई सदृष्टियोको अपने कल्पित उदाहरणो द्वारा हृदयगम कर लिया था, पर फिर भी न मालूम क्यो में इस समय अधिक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 म० चन्द्राबाई नरवस होता जा रहा था। धीरे-धीरे मेरी आवाज भी भतीजा क यो। गलेमें भी सुननुसाहट होने लगी थी । में समृष्टिरित अर्थ कह रहा था, पर मुझे ऐसा लग रहा था कि हो रहा है। चार-पांन गावाजकी व्याख्या पात्रा कि- "अवगाहना नाही बूटियां होती है, अनन्तभागी जननगुण वृद्धि क्यो नही होती ?" में उनका समाधान नहीं रहा जीर घबड़ाकर काले झांकने लगा । उन्होंने मधुर स्वर-- -"ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम्" सूत्र याद है। जब जगात प्रवेश है तो उसमें अनन्तभाग या अनन्नगुणवृद्धि या और अपनी पराजय स्वीकार कर ली । होगी? इण्टरव्यू समाप्त हुआ। वह बोली- निजी ! मग विना चालोकी नैतिक freeके लिए एक रात्रि पाटनाला गीत है। धनके बिना मनुष्य उठ सकता है, विनाके बिना भी बड़ा बन सकता है, पर चरित्रबलके विना सर्वथा हीन और पशु है । जानरणहीन ज्ञान पाण है । नैतिक व्यक्ति हो अपने प्रति सच्चा ईमानदार हो सकता है। गजकी स्कूल और कॉलेजकी निक्षामें नैतिकतावा जभाव है । बच्ने अपरिपक्व घडे के समान हैं, इनके ऊपर आरभगे ही अच्छे सस्कारीका पना आवश्यक है | अतएव हाईस्कूलोमे पढनेवाले अपने बच्चोकी धार्मिक शिक्षा देनेके लिए एक रात्रिपाठयाला सोलनी है। आपको उस पाठशालाका शिक्षक बनना होगा । आप सुविधानुन्नार प्रात. और मायकाल बच्चोको धार्मिक शिक्षा दे, शहरमें यो तो ५०-६० बच्चे पढनेके लिए मिल जायेगे, पर जब तक २०-२२ लडके भी आते रहेंगे, पाठयाला चलती जायगी । इस पाठशालाका कुल व्यय हम अपने पाससे देगी । आप इस बातका खयाल रखे कि श्लोक या पद्य रटानेको अपेक्षा उन्हें जीवन क्या है और उसे कैसे व्यतीत करना चाहिए- सिखलाये । शिक्षाको कल्याणकारी बनानेके लिए शिक्षकको पूर्ण दायित्वका निर्वाह करना होता है । उसे अहकार छोड़कर एक ही मार्गके यात्रीके रूपमे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरणके श्रग्रदूत ? खातिर में अपने धर्मको तो नही वेचूंगा। जब मुझमे न्यायीकी स्थापना दोनो पक्षोने कर दी तो फिर में अन्यायीका रूप क्यो धारण करता मेरा धर्म मुझे न छोडे, चाहे सारा ससार मुझे छोड़ दे, तो भी मुझे चिन्ता नही ।" १४४ लालाजीने मुझे स्वय उक्त घटना सुनाई थी। फर्माते थे कि -- "थोडे दिन तो मुझे पण्डितजीके इस व्यवहारपर रोष-सा रहा, पर धीरेधीरे मेरा मन मुझे ही धिक्कारने लगा और फिर उनको इस न्यायप्रियता, सत्यवादिता, निष्पक्षता और नैतिकताके आगे मेरा सर झुक गया, श्रद्धा भक्ति से हृदय भर गया और मैने भूल स्वीकार करके उनसे क्षमा माँग ली । पडितजी तो मुझसे रुष्ट थे ही नही, मुझे ही मान हो गया था, अत. उन्होने मेरी कौली भर ली और फिर जीवनके अन्त तक हमारा स्नेहसम्बन्ध बना रहा ܕ मुझे जिस तरह और जिस भाषामे उक्त सस्मरण सुनाये गये थे, न वे अव पूरी तरह स्मरण ही रहे है न उस तरहकी भाषा ही व्यक्त कर सकता हूँ, फिर भी आज जो वैठे-बिठाये याद आई तो लिखने बैठ गया । - अनेकान्त, मार्च १९४८ ई० Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी सीख महात्मा भगवानदीन ह *मने प० गोपालदासजी वरैया - जैसा दूसरा आदमी समाजमें आज तक नही देखा, पर यह बात तो हर आदमीके लिए कही जा सकती है । नीमके पेड़के लाखो पत्तोमें कोई दो पत्ते एकसे नही होते, पर सब हरे और नुकीले तो होते है । समाजके हर आदमीसे यह आशा की जाती हैं कि वह कम-से-कम अपने समाजके मेम्बरोको सताये नही, उनसे झूठा व्यवहार न करे, उनके साथ ऐसे काम न करें, जिनकी गिनती चोरीमें होती है । समाजमें रहकर अपनी लंगोटी और अपने आँखके वाँकपनपर पूरी निगाह रखे और अपनी ममताकी हद बाँधकर रहे। इन पाँच वातोमें, जिन्हें अणुव्रत यानी छोटे व्रत नामसे पुकारा है, वे पूरे-पूरे पक्के थे, और पाँचों अणुव्रतोको ठीक-ठीक निभानेवाला समाजमें हमारे देखने में कोई दूसरा आदमी नही मिला । वह पूरे गृहस्थ थे, दुकानदारी भी करते थे, और पडित और विद्वान् होनेके नाते जगह-जगह व्याख्यान देने भी जाते थे और इस नाते आने-जानेका किराया और खर्च भी लेते थे, पर दुकानदारी और इन सब बातोमें जितनी सचाई वह वरतते थे, और किसी. दूसरेको वरतते हुए नही देखा है । अगर उन्हें कोई ५० रु० पेशगी भेज दे और घर पहुँचते-पहुँचते उनके पास १०रु० बचे तो वह १० रु० वापिस कर देते थे और दो पैसे बच रहें तो दो पैसे भी वापिस कर देते थे । वह हर तरह से हिसाब के मामले में पैसे-पैसेका ठीक-ठीक हिसाव रखते थे । पाँचो व्रतोमेंसे हर व्रतका पूरा-पूरा ध्यान रखते थे और इन व्रत प्र सचाई ही उनमें एक ऐसा जादू बनी हुई थी, जिससे सभी उनकी तरफ़ खिंचते थे । धर्मके मामलेमें आम तौरसे लोग अणुव्रतोमेंसे किसी व्रतकी परवाह नही करते और सचाईके अणुव्रतकी तो बिल्कुल ही परवाह नही करते १० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन-जागरणके अग्रदूत एक पण्डितजी ही थे जो धर्म और व्यवहार में कही भी सचाईको हाथसे नही खोते थे। तभी तो वह उन पण्डितोकी नज़रमें गिर गये जो धर्मके ज्ञाता थे, पर उसपर अमल करनेके अभ्यासी नही थे।। पण्डितजी अणुव्रती थे, पर साथ-ही-साथ परीक्षा-प्रधानतामें पूरा विश्वास रखते थे, और जैसे-जैसे वह परीक्षा-प्रधानताको समझते जाते थे, वैसे-वैसे उसपर अमल करते जाते थे। दूसरो शब्दोमें वह धीरेधीरे परीक्षा-प्रधानी बनते जा रहे थे कि मौत उन्हें उठाकर ले गई। कोई अवचला यह सवाल उठा सकता है कि क्या वह शुरु-शुरूमें परीक्षाप्रधानी तही थे? हम उसे जवाब देंगे-हाँ, वह नहीं थे। वह शुरू-शुरूमें अन्धश्रद्धानी थे, कोरे कट्टर दिगम्वरी थे। उनकी कट्टरता दिनोदिन कम होती जा रही थी और अगर वह जीते रहते तो वह कट्टरता खत्म हो जाती और फिर वह दिगम्बरी न रहकर जैन बन जाते और अगर कुछ और उमर पाते तो सर्वधर्म समभावी होकर इस दुनियासे कूच करते। हम ऊपरके पैरेमें बहुत बड़ी बात कह गये है, पर वह छोटे मुंह बडी बात नहीं है। हमने पण्डितजीको बहुत पाससे देखा है। पण्डितजी हमको बहुत प्यार करते थे और जब भी हम उनसे मिले, उन्होने पूरी एक रात हमसे बिल्कुल जी खोलकर बातें की और हमारी वातें खुले दिलसे सुनी। हमसे जब वह वात करते थे तो एकदम अभिन्न हो जाते थे। हम ये सव कहकर भी यह नही कहना चाहते कि उन्होने हमसे कबूला कि वह कट्टर दिगम्बरी थे। इस तरह बेतुकी वात हम क्यो पूछने लगे और वह हमसे क्यो कहने लगें? हम तो ऊपरकी वात सिर्फ इसलिए लिख रहे है कि हमने उन्हें पाससे देखा है और उनका खुला हुआ दिल देखा है। वस उस नाते और सिर्फ उस नाते हम यह कहना चाहते है कि हम जो कुछ ऊपर कह आये है, वो वह है कि जो हमने नतीजा निकाला है । हमने यह नतीजा कैसे निकाला, यह बतानेसे पहले हम यह कह देना चाहते है कि जो आदमी परीक्षाप्रधानी बनने जा रहा है, वह किसी धर्म या पन्थका कितना ही कट्टर अनुयायी क्यो न हो, उस आदमीसे लाख Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु गोपालदास बरैया १४७ दरजे अच्छा है, जो अन्यश्रद्धानी होते हुए सर्वधर्म समभावी होनेका दावा करता है । वह तो सर्वधर्म समभावका नाटक खेलता है, या ढोग रचता है । पण्डितजीने कभी किसी चीजका नाटक नही खेला, वे जब जो कुछ थे, सच्चे जीसे थे और सचाई ही तो पूज्य है, वही तो धर्म है, वही तो अँधेरे से उजालेकी तरफ लेजानेवाली चीज है और वह पण्डितजी में थी । इस सचाईके बलपर ही वह झट ताड जाते थे कि में अवतक कौन-सा नाटक खेलता रहा हूँ, और कौन-सा ढोग रचता रहा | अपनी परीक्षा में जैसे ही उन्होने नाटकको नाटक और ढोगको ढोग समझा कि उसे छोडा । जैसे ही उन्होने परीक्षासे यह जाना कि सोमदेवकृत 'त्रिवर्णाचार' आर्प ग्रन्थ नही है, वैसे ही उन्होने उसको अलग किया और उसके आधारपर जो पूजाकी क्रियाएँ करते थे, उन्हें धता बताई । धता बताई शब्द जरा भी हम चढकर नही कह रहे है, उन्होने इससे ज्यादा कड़ा शब्द इस्तेमाल किया था । धर्मके मामले में उनकी कही हुई खरी-खरी बातें आज बच्चे-बच्चे की जवानपर है, उन्हें हम दुहराना नही चाहते। हम तो यहाँ सिर्फ इतना ही कहेंगे कि पण्डित गोपालदासजी वरैया सचाईके साथ विचारस्वाधीनता का दरवाजा खोल गये और आज जो स्वामी सत्यभक्तके रूपमें पण्डित दरवारीलालजी स्वाधीन विचारोका चमत्कार दिखा रहे है, वह उसी द्वारसे होकर आये हैं, जिसका दरवाजा पण्डितजी हिम्मत करके खोल गये थे । पण्डितजीने सम्यक्त्व, देवता, कल्पवृक्ष, केवलज्ञान, मुक्ति इनके वारेमें ऐसी-ऐसी बातें कही, जिनसे एक मर्तबा समाजमें खलबली मची, पर वैसा तो होना ही था, कुछ दिनो पण्डितजीकी हँसी उडाई गई, फिर जोरका विरोध किया गया, फिर सहन किया गया और फिर मान लिया गया । पण्डितजीने क्या-क्या काम किये, इनको गिनाकर हम क्या करें, ये काम मुरेना महाविद्यालयका है । हम तो सिर्फ वो ही बातें लिखना Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरण के अग्रदूत १४८ चाहते है, जिनका हमारे दिलपर असर है । पण्डितजीको जो सगिनी मिली थी, वह उन्हीके योग्य थी, उनकी सगिनी उनके अणुव्रतोकी परीक्षाकी कसौटी थी, पर पण्डितजी उस कसोटीपर हमेशा सौटच सोना हो साबित हुए । उनकी सगिनीके स्वभावके बारेमें हमने सुना ही सुना है, पर वह सुना ऐसा नही है कि जिसपर विश्वास न किया जाय । हमारा देखा हुआ कुछ भी नही है, कोई ये न समझे कि हम ऐसी बात कहकर पूर्वापर - विरोध कर रहे है। चूंकि अभी तो हम कह आये हैं कि हमने पण्डितजीको पाससे देखा है और जब पाससे देखा है तो क्या सगिनीको नही देखा था, हाँ, देखा था पर हमने कभी उनको ऐसे रूपमें नही देखा, जैसा सुन रक्खा था, और इसके लिए तो हम एक घटना लिखे ही देते है । इटावा में 'तत्त्व - प्रकाशिनीसभा का जलसा था । पण्डितजी अपनी afrat समेत वहाँ आये हुए थे । उनकी सगिनी उस वक्त प्रेमीजीके लडके को जो उस वक्त वर्ष था डेढ वर्षका होगा, गोदमें खिला रही थी । वह लड़का उनकी गोदमें बुरी तरह रो रहा था, हम उस वक्त तक उनको पण्डितजीकी संगिनीकी हैसियतसे नही जानते थे । इसलिए हमने उनकी गोदसे उस लड़केको छीन लिया, और सचमुच छीन लिया, ले लिया नही । छीन लिया हम यो कह रहे है कि हमने उस बच्चेको लेते वक्त कहा तो कुछ नही, पर लेने के तरीकेसे ये बताया कि हम यह कह रहे है कि तुम्हें बच्चा खिलाना नही आता और होनहारकी बात कि वह बच्चा हमारी गोदमें आकर चुप हो गया । यह सब कुछ प्रेमीजी खड़े-खडे देख रहे थे । वे थोड़ी देर चुपके से हमारे पास आकर बोले कि "आप वडे भाग्यशाली है ।" मैने "पूछा- क्यो ?" बोले--"आपने पण्डितानीजीसे बच्चा छीन लिया और आपको एक शब्द भी सुननेको नही मिला । हम तो उस न जाने क्या-क्या अदाजा लगा रहे थे ।" उस दिन बाद हम जब भी पण्डितजीसे मिले, हमने तो उनको इसी स्वभावमें पाया । यही वजह है कि हम उनके स्वभावके बारेमें जो इस मनी -अनार्द वात ÷ 1 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु गोपालदास वरैया १४९ कुछ भी सही, हाँ तो उनकी सगिनी उनके अणुव्रतकी कसोटी थी और उन्होने जीवनभर उनका साथ ऐसा निभाया कि जो एक अणुव्रती ही निभा सकता था 1 पण्डितजीने जीते जी दूसरी प्रतिमासे आगे वढनेकी कोशिश नही की, लेकिन एकसे ज्यादा ब्रह्मचारियोको हमने उनके पाँव छूते देखा, वह सचमुच इस योग्य थे । आज जो तत्त्व-चर्चा घर घरमें फैली हुई है और ऐसी बन गई है, मानो वह माँके पेटसे ही साथ आती हो, ये सब पण्डितजीकी मेहनतका ही फल है । वे गहरी - से गहरी चर्चाको इतनी आसान बना देते थे कि एक बार तो तत्त्वोका बिल्कुल अजानकार भी ठीक-ठीक समझ जाता था । यह दूसरी बात है कि अपनी अजानकारीके कारण वह उसे ज्यादा देरके लिए याद न रख सके । इसलिए उन्होने (जैन - सिद्धान्त - प्रवेशिका' नामकी एक किताब लिख डाली थी, उसे आप जैन - सिद्धान्तका जेबीकोश यानी पाकेट डिक्सनरी कह सकते है । पडितजीकी जीवनीसे जो कुछ सीख ली जा सकती है, उसका निचोड हम यह समझें है १ सच्चे या अणुव्रती बनना है तो निर्भीक वनो । २ निर्भीक वनना है तो किसीकी नौकरी मत करो, अपना कोई रोजगार करो । ३ रोजगार करते हुए अगर धर्म या धर्मचर्चाके वक्ता बनना चाहते हो तो अणुव्रतका ठीक-ठीक पालन करो, तभी दुकान चल सकेगी। ४ अणुव्रतोको अगर ठीक-ठीक पालन करना है तो अपनी हद बाँधो । ५. अपनी हद वाँघनी है तो किसी कर्त्तव्यसे बँधो । ६ कर्त्तव्यको ही अधिकार मानो । ७ अधिकारी बनो, अधिकारके लिए मत रोओ । - ज्ञानोदय, जुलाई १९५१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन-जागरणके अग्रदूत सन् १९२० के चैत्रमासमें मैने अपने साथियोके साथ पण्डित उमरावसिहजीको ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजीके नवीन सस्करणके रूपमे पहली बार देखा । काशी सस्कृत विद्याका पुरातन केन्द्र है । हिन्दू-विश्वविद्यालयको स्थापना हो जाने से सर्वागीण शिक्षाका केन्द्र बन गया है। न यहाँ विद्वानो की कमी है और न पुस्तकालयो की. ज्ञानाजन और ज्ञानप्रचारके प्रेमियों के लिए इससे उत्तम स्थान भारतवषमे नहीं है। जो ज्ञानानन्दी जीव एक बार उसके वातावरणका अनुभव कर लेता है, उसकी गुजर-बसर, फिर अन्यत्र नहीं हो पाती । समाजके प्राय समस्त शिक्षालयोके वातावरणका अनुभव करनेके वाद भी ब्रह्मचारीजी अपने पूर्वस्थान बनारसको न भूल सके और कई शिक्षासस्थाओके सचालनका भार स्वीकार करने पर भी उन्होने परित्यक्त बनारसको ही अपना कार्यक्षत्र बनाया। ___उन दिनो मध्यप्रदेशके रतौना गाँवमे सरकार एक कसाईखाना खोलनेका विचार कर रही थी, वहां प्रतिदिन कई हजार पशुओके कत्ल करनेका प्रवन्ध होने जा रहा था। इस वूचडखानेको लेकर अखबारी दुनियामे खूब आन्दोलन हो रहा था। स्थान-स्थानपर सरकारी मन्तव्यके विरोधमें सभा करके वाइसरायके पास तार भेजे जाते थे। रक्षाबन्धनके दिन स्याद्वादविद्यालयमे भी सभा हुई। बूचडखानेके विरोधमें पूज्य पण्डित गणेशप्रसादजी वर्णीका मर्मस्पर्शी भाषण हुआ। ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजीने दूचडखाना स्थापित होनेके विरोध मीठे सेवनका त्याग किया और अहिंसा धर्मका ससारमे प्रचार करनेके लिए एक अहिंसाप्रचारिणी परिषद् स्थापित करनेकी योजना सुझाई। मैं पहले वता चुका हूँ कि ज्ञानानन्दजी किसी आवश्यक विचारको 'काल करै सो आज कर, आज करै सो अव' सिद्धान्तके पक्के अनुयायी थे । अहिंसा-प्रचारको प्रस्तावित योजनाको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए उन्होने कलकत्तेकी यात्रा की और दशलाक्षणी पर्व वही बिताया। कलकत्तेकी दानी समाजने उनका खूब सम्मान किया और ८००० रुपये के लगभग अहिंसा-प्रचारके लिए भेंट किये । कलकत्तेसे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० उमरावसिंह न्यायतीर्थं १८१ लौटते ही ब्रह्मचारीजी अपने काममें जुट गये । अखिल भारतीय अहिंसा प्रचारिणी परिषद्की स्थापना की गई और काशी नागरीप्रचारिणी समिति के भवनमे डा० भगवानदासजीके सभापतित्वमे उसका प्रथम अधिवेशन खूब धूमधाम से मनाया गया । जनतामे परिषद्‌के मन्तव्योका प्रचार करनेके लिए 'अहिंसा' नामकी साप्ताहिक पत्रिका प्रकाशित की गई । उपदेशक भी घुमाये गये, अर्जन जनताने भी परिषद् कार्यमे अच्छा हाय वटाया । अनेक रजवाडोने भी सहानुभूति प्रदर्शित की। बहुतसे अजैन रईम एक मुश्त सौ-सौ रुपये देकर परिपद्के आजीवन सदस्य वने । प्रारम्भमें अहिसाका प्रकाशन एक-दूसरे प्रेससे हुआ था । पीछे एक स्वतंत्र प्रेस खरीद लिया गया, जो अहिंसा प्रेसके नामसे स्यात हुआ । प्राय. अधिकाश मनुष्य आत्मप्रशसाको जितनी चाहसे सुनते हैं, खरी आलोचनाको उतनी ही घृणासे देखते हैं, किन्तु व्र० ज्ञानानन्दजीमें यह बात -न थी, वे अपनी आलोचनाको भी बहुत सहानुभूतिके साथ सुनते थे । एक वार कुछ ऐसी ही घटना घटी। ब्रह्मचारीजीने अहिंसा परिषद् के लिए कुछ लिफाफे और लेटर पेपर छपाये थे, जो वढिया थे । हमारी विद्यार्थीमण्डलीने ब्रह्मचारीजीके इस कार्यको समाजके रुपयेका दुरुपयोग वतलाया था । यह बात ब्रह्मचारीजीके कानो तक पहुँची । अवसर देखकर एक दिन रात्रिके समय हमारी मण्डलीके मुखिया लोगोके सामने उन्होने स्वयं आलोचनाको चर्चा उठाई। उस समयका उनका प्रसन्न मुख आज भुलाने पर भी नही भूलता। वोले -- "मुझे प्रसन्नता है कि तुम लोग मेरे कार्योकी भी आलोचना करते हो। मैने बढ़िया कागजोकी छपाई - में व्यय अपना शौक पूरा करनेके लिए नही किया, किन्तु जमानेकी रफ्तार - को देखते हुए राजा-रईसोके लिए किया है । हम लोग उनका उत्तर सुनकर कुछ सकुचा से गये, किन्तु फिर कभी उस विषयपर आलोचना नही हुई । जिन दिनो 'अहिंसा' का प्रकाशन आरम्भ हुआ, उन दिनो भारतके राजनीतिक आकाशमें गाँधीकी आंधीका जोर बढता जाता था । असहयोग आन्दोलनने भारतीयो में पारस्परिक सहयोगका भाव उत्पन्न करके विदेशी • Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरण के अग्रदूत शासन-प्रणालीको विचलित कर दिया था । अदालतो, कौसिलो, सरकारी स्कूलोकावायकाट प्रतिदिन जोर पकडता जाता था। मशीनगनोकी वर्षाके मुकाबले पर भारतके राष्ट्रपत्र वाग्वाणोकी वर्षा कर रहे थे । घमासान युद्ध मचा हुआ था, किन्तु दुश्मनको मारनेके लिए नही, स्वय मरनेके लिए । रक्त लेनेके लिए नही, रक्त देनेके लिए। क्योकि अहिंसात्मक युद्ध मारना नही सिखाता है । " जिसे मरना नहीं श्राया उसे जीना नहीं श्राता ।" १८२ इस परिस्थितिमें जन्म लेकर और राष्ट्रका तत्कालीन अस्त्र 'अहिंसा' का नाम धारण कर 'अहिंसा' राष्ट्रकी आवाज में आवाज मिलानेसे कैसे पीछे रह सकता था, किन्तु उसकी आवाज राष्ट्रको आवाजकी प्रतिध्वनि मात्र थी, उसने राष्ट्रिय पत्रोकी बातको दोहराया बेशक, किन्तु कोई 'अपनी बात' न कही । इसका कारण जो कुछ भी रहा हो, परन्तु ० ज्ञानानन्दजीके राष्ट्रप्रेमी होनेमें कोई सन्देह नहीं है । वे पक्के धर्मात्मा होनेपर भी जननी जन्मभूमिको व्यथाको भूले नही थे, राष्ट्रकी प्रत्येक प्रगतिपर उनकी कडी दृष्टि रहती थी और उसपर वे विचार भी करते थे । उनकी आन्तरिक अभिलाषा थी कि प्रेसके कार्य में अपने कुछ शिप्योको दक्ष कर दिया जाय और एक विशाल 'छापेखाने' का आयोजन किया जाय । इसलिए वे प्रतिदिन किसी न किसी छात्रको अपने साथ प्रेसमें ले जाते थे । एक दिन मुझे भी ले गये और 'अहिंसा' के 'प्रूफ' -सशोधनका कार्य मुझे सौपकर विश्राम करने लगे । 'प्रूफ' में किसी राष्ट्रिय पत्रकी प्रतिध्वनि थी --- यदि मैं भूलता नही हूँ तो वह एक प्रहसन था, और शायद 'कर्मवीर' से नकल किया गया था । भारतके राजनैतिक मचके सूत्रधार महात्मा गाँधी और अली बन्धु 'प्रहसन' के पात्र थे । 'प्रूफ' में उक्त प्रहसन अधूरा था और में उसके आदि और अन्त से अपरिचित था । प्रूफपर दृष्टि पडते ही मुझे 'मौलाना' गाधी दिखाई दिये । मैं चकराया। आगे बढा तो 'महात्मा' शौकतअलीपर नजर पडी । अव Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० उमराव सिंह न्यायतीर्थं १८३ मैने 'गाधी-अली' संवादपर दृष्टि डाली तो सब जगह एक-सी ही 'वेबकूफी देखी । सपूर्णं सवादमें गाधीके साथ 'मौलाना' और गौकतअलीके साथ 'महात्मा' शब्दका प्रयोग देखकर मेरा 'टेम्परेचर' भड़क उठा और मुझे प्रेसके भूतोकी वेअकलीपर हँसी आ गई । आव देखा न ताव, कलम कुठार उठाकर 'मौलाना' और 'महात्मा' दोनोका शिरच्छेद कर डाला और नई रीतिसे गावके साथ महात्मा और शौकतअलीके साथ 'मौलाना' शब्द जोड डाला । इस कार्यमें एक घटेके लगभग लग गया । अब मैं प्रेसके भूतोकी बेवकूफी और अपनी बुद्धिमानीका सुसवाद कहने के लिए ब्रह्मचारीजीको निद्रा भग होनेकी प्रतीक्षा करने लगा । उनके उठते ही मैने प्रूफ उनके सामने रक्खा । अभी मैं कुछ कहने भी न पाया था कि ब्रह्मचारीजीके श्रीमुखसे मैने अपने लिए वे शब्द सुने, जो कुछ देर पहले अपने दिल ही दिलमें, मै प्रेसके भूतोको कह चुका था । ब्रह्मचारीजीकी इस 'नाशुत्री' पर मुझे वडा खेद हुआ, किन्तु जब मुझे मालूम हुआ कि 'प्रहसन' में हिन्दू-मुसलिम एकताका 'प्रहसन' किया गया है तो मेरे देवता कूंच कर गये, और मैं प्रेससे 'एक दो तीन' हो गया । x X X 'अहिंसा परिषद्' और गिक्षासस्थाओके सचालनमें ब्रह्मचारीजी इतने तल्लीन हुए कि गारीरिक स्वास्थ्यकी ओरसे एकदम उदासीन हो गये । कभी-कभी बुखार आ जानेपर भी दैनिक कार्य करना नही छोडा । जव रोग वढ गया तो चिकित्साके लिए बनारससे बाहर चले गये । ज्वर ने जीर्ण ज्वरका रूप धारण कर लिया, खासी भी हो गई । यक्ष्माके लक्षण प्रकट होने लगे । फिर भी सामाजिक कार्यो में भाग लेना न छोडा । फरवरी १९२३ में देहलीमें जो पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ था, व्यावर विद्यालयके छात्रो के साथ उसमें वे सम्मिलित हुए थे और सेठके कूंचेकी धर्मशाला में ठहरे थे । मैं अपने सहयोगियोके साथ उनसे मिलने गया । उस समय उन्हें ज्वर चढ रहा था और खाँसी भी परेशान कर रही थी । हम लोगोकी आहट पाते ही उठकर बैठ गये और उसी स्वाभाविक मुस्कान 1 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन-जागरणके अग्नदूत के साथ हम लोगोसे मिले । किसे खबर थी कि यह 'अन्तिम दर्शन' है ? अफसोस ।।। उसी वर्ष ग्रीष्मावकाशके समय अपने घरपर एक मित्र के पत्रसे मुझे ज्ञात हुआ कि ब्र० ज्ञानानन्दजीका देहावसान हो गया। पढकर मै स्तम्भित रह गया। रगोमें वहनेवाला खून जमने-सा लगा, मस्तक गर्म हो गया । अन्तमें अपनेको समझाया और उनकी सशिक्षा, सद्व्यवहार और कर्तव्यशीलताका स्मरण करके, स्वर्गगत हितैषीको श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। मनुष्य जब तक जीवित रहता है, तब तक उसके अत्यन्त निकट रहनेवाले व्यक्ति भी उसका महत्त्व समझनेकी कोशिश नहीं करते। मेरी भी यही दशा हुई, मैने भी ब्रह्मचारीजीकी सशिक्षाओको सर्वदा उपेक्षाकी दृष्टिसे देखा। आज जब वे नहीं है और पद-पदपर उनके ही सदुपदेशोका अनुसरण करना पड़ता है, तब अपनी अज्ञानतापर अत्यन्त पञ्चात्ताप होता है। -जैनदर्शन, १९४३ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित पन्नालाल HIRSAN MAH वाकलीवाल maDOOL Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसमाजके विद्यासागर ____ श्री धन्यकुमार जैन HTTक काग़ज़ दीजिये न, किताबोपर चढाऊँगा ?" S"एक काग़ज़की कीमत दो पैसे है,-पैसे देकर ले सकते हो।" "यो हो एक दे दीजिये न, बहुत-से तो है ?" "इनका मैं मालिक नहीं, मैं तो बिना पैसेका नौकर हूँ।" "तो मालिक कौन है, उनसे कहके दिलवा दीजिये न?" "मालिक तो सारा जैन समाज है, हम-तुम सभी मालिक हैं; पर बेनेके लिए नही, देने के लिए।" ___ सन् १९१४-१५ की बात है। मैं तब स्याद्वादमहाविद्यालय काशीमें शिक्षा पा रहा था। मैदागिनकी जैनधर्मशालाके फाटकके पास भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्थाका कार्यालय था, जिसमें बैठे जैन-समाजके सुप्रसिद्ध शिक्षागुरु स्व०प० पन्नालालजी वाकलीवाल पुस्तकें बाँध रहे थे। जिस समय उनसे मेरी उपर्युक्त वातचीत हुई थी, तब मै नहीं जानता था कि मैं उन्हीसे बात कर रहा हूँ, जिनकी लिखी कई पुस्तके मै पढ चुका हूँ और 'मोक्षशास्त्र' आदि अव भी पढ रहा हूँ, जिनपर चढानेके लिए कागज मॉग रहा था। तब तो मुझे ऐसा लगा कि बुड्ढा बहुत कजूस है और निर्दयी भी, कि जिसको मेरी विनीत प्रार्थना पर जरा भी दया नही आई । मुझमे तव इतनी समझ ही कहाँ थी कि उनके उन सीमित शब्दोमें अवैतनिक सामाजिक कार्यकर्ताओके उत्तरदायित्वका कितना जबरदस्त उपदेश है। बादमे तो लगभग दस-बारह वर्ष तक मुझे उनके निकट रहकर उक्त सस्थाकी सेवा करनेका सौभाग्य प्राप्त रहा, और खूब अच्छी तरह समझ गया कि अवैतनिक कार्यकर्ता का आदर्श क्या होना चाहिए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० पन्नालाल वाकलीवाल १८७. एक में ही नही, और भी अनेक ऐसे लेखक है, जिनके उत्साहका मूल स्रोत 'गुरु' जी थे । उन्होने अनेकोंको सामाजिक सेवाके लिए तैयार किया और जीवनकी अन्तिम घड़ी तक करते रहे । गुरुजीके प्रारम्भिक जीवनके सम्वन्धमें भला मुझे क्या जानकारी हो सकती थी ? हाँ, जब वे पुराने क़िस्से कहने में दिलचस्पी लेते थे, तब कुछ-कुछ मालूम होता रहता था। एक जमाना था, जब जैनग्रथ छापने वालोंको लोग घृणाकी दृष्टिसे देखा करते थे । गुरुजीने उस समय जैन ग्रंथोका प्रकाशन करना प्रारम्भ कर दिया था । उनकी भावना थी कि जैन समाजका बच्चा-बच्चा अपने धर्म - सिद्धान्तसे परिचित हो जाय । इसके लिए उन्होंने वीसियो पाठ्य पुस्तकें लिखी; व्रतका वे लगन और उत्साहके साथ पालन करते रहे। मुझे उन्हीसे मालूम हुआ था कि कई पाठ्य पुस्तके उन्होने दूसरोके नामसे प्रकाशित करके उनका इस दिशा में उत्साह बढाया । 'जैन-ग्रन्थ - रत्नाकर कार्यालय उन्ही की स्थापना है । जिसने अपने प्रारम्भिक जीवनमें अच्छे से अच्छा जैन साहित्यका प्रकाशन किया । और अन्त तक इस श्रीमान् प० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रतिभा देखकर उन्होने उन्हें जैनग्रंथ - कार्यालयका साझीदार बना लिया था, और उनके भरोसे उस कार्यको छोड़कर वे उच्चतर प्रकाशन संस्था और विद्यालयोंकी स्थापना आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों में जुट पडे थे । श्री प्रेमीजीने अपनी एक पुस्तक समर्पण करते हुए गुरुजीके लिए जो कुछ लिखा है, उससे हम उनकी महानताका अनुमान कर सकते है; वे लिखते हैं- " जिनके अनुग्रह और उत्साहदानसे मेरी लेखनकलाकी * ओर प्रवृत्ति हुई और जिनका आश्रय मेरे लिए कल्पवृक्ष हुआ, उन गुरुवर पं० पन्नालालजी वाकलीवालके करकमलोमे सादर समर्पित ।" सन् १९१८ तक जैनसमाजको उनकी कितनी सेवाएँ प्राप्त हुईं, इसका सिलसिलेवार वर्णन तो में नही कर सकता, पर इतना जरूर कह Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन-जागरणके अग्रदूत सकता हूँ कि उनके जीवनका कोई भी क्षण जैनसमाजकी सेवाके सिवा उनके निजी कार्यमे नही लगा। जब वे "जैनहितैषी" निकाला करते थे, तव निर्णयसागर प्रेससे उनका विशेष सम्बन्ध था। निर्णयसागर प्रेसके मालिकोने उन्हीकी प्रेरणासे 'प्रमेयकमलमार्तण्ड', 'अष्टसहस्री', 'यशस्तिलकचम्पू' आदि अनेक जैननथ प्रकाशित किये थे, जिनका कि उस समय जैनसमाज द्वारा प्रकाशन होना असभव-सा था । बंगालमें जिनवाणी-प्रचार बनारससे 'भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्था' को कलकत्ता ले गये थे कि वगाली विद्वानोसे मिल-जुलकर उन्हे भगवान् महावीरकी वाणीकी महत्ता सुझाये। मुझे वे पचासोबार पचासो बगाली विद्वान्, सपादक और लेखकोंके 'पास ले गये थे। उन्हे वे संस्कृत प्राकृतके जैन ग्रथ भेट किया करते थे, और इस तरह जिनवाणीकी ओर उनका मनोयोग खीचा करते थे। बंगला मासिकपत्रोमे सर्वश्री महामहोपाध्याय विधुशेखर भट्टाचार्य, प० हरिहर शास्त्री, वा० शरच्चन्द्र घोषाल, वा० हरिसत्य भट्टाचार्य, प० चिन्ताहरण चक्रवर्ती प्रमुख अनेक विद्वानोको उन्होने जैन-साहित्यकी ओर आकषित किया थो। वे वगीय साहित्य-परिषद्के सभासद् रहे और वहाँ उन्होने अनेक वगाली लेखकोकी जनसाहित्यकी ओर रुचि वढाई । अन्तमें यह सिलसिला इतना बढता गया कि उनके आसपास वगाली विद्वानोका एक समूह-सा जम गया। ___इसी समय उन्होने 'वगीय अहिंसा परिषद्' की स्थापना की और उसकी तरफसे 'जिनवाणी' नामक एक बँगला मासिकपत्रिका प्रकाशित की गई । अहिंसा-परिषद्का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो रहा था, जिसे स्व० रसिकमोहन विद्याभूषण आदि अनेक प्रभावशाली बगाली विद्वान् लेखक और वक्ताओका सहयोग प्राप्त था । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० पन्नालाल वाकलीवाल १८९. भारतीय जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाने जैनसिद्धान्तका महत्त्वपूर्ण प्रकाशन किया; और आज भी, अगर स्व० गुरुजीके निर्देशानुसार ही उसका कार्य जारी रहता तो, और जैसी कि स्व० गुरुजीकी भावना थी, आज निस्संदेह वह 'गीता प्रेस गोरखपुर' और 'कल्याण' जैसी आदर्श संस्था हुई होती। पर जैनसमाजका इतना सौभाग्य कहाँ, जो उसे अपने धर्मकी वास्तविकता समझनेका सुन्दर साहित्य उपलब्ध हो? मैने अपनी आँखोसे गुरुजीको कईबार इसलिए रोते हुए देखा है कि उक्त दोनों संस्थाएँ किसी योग्य, उत्साही और कर्मठ सेवकके हाथ सोप दी जाएँ, भले ही वह न्यायतीर्थादि उपाधिधारी न हो, पर उसमें लगन और जीवन खपा देनेकी भावना होनी चाहिए। आज, वंगीय अहिंसा परिपद और गला जिनवाणी' का तो नामोनिशान तक मिट चुका है; और भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्था जिससे गुरजीका 'गीता प्रेस' का स्वप्न मूर्तिमान हो सकता था, कलकत्ते के किसी एक मकानमे पड़ी अपनी अन्तिम साँसें ले रही है। काशीके स्याद्वादमहाविद्यालयकी स्थापना करनेमें भी आपका हाथ था। 'जैन-हितषी' पत्रके जन्मदाता भी आप ही थे। 'धर्मपरीक्षा' का अनुवाद, 'रत्नकरण्डश्रावकाचार', 'द्रव्यसंग्रह' और 'तत्त्वार्थसूत्र' की छात्रोपयोगी टीकाएँ, 'जैन-वाल-बोधक' (४ भाग) 'स्त्री शिक्षा' (२ भाग) आदि जैनधर्मको पुस्तकोके सिवा हिन्दीकी सर्वोपयोगी पुस्तकें भी आपने लिखी है। ___यह तो सन १९१६-१७ तककी वात है। उसके बाद तो उनके द्वारा बहुत-सी पुस्तके लिखी गईं, और अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य हुए। सच बात तो यह है कि जन-समाज, समाज-सेवक और साहित्य-सेवियोका आदर करना जानती ही नही, अन्यथा जैन-समाजमे स्वर्गीय पं० पन्नालाल वाकलीवालका स्थान वही होता, जो बंगालमें स्व० ईश्वरचन्द्र विद्यासागरका है। भावी जैनसमाजको धर्मज्ञानकी सच्ची शिक्षासे शिक्षित Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० - जैन-जागरणके अग्रदूत देखनेकी दीपशिखावत् चिर-प्रज्वलित महान् भावनासे उन्होने जैन शिक्षालयोके लिए पाठ्य-साहित्यका निर्माण-यज्ञ प्रारम्भ किया था। __वह यज्ञ उनकी खुदकी दृष्टिमे अपूर्ण रह गया, यही उनका अन्त समयका पछतावा था, और दूसरा कल्पवृक्ष-जिसका बीज उन्होने भा० जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्थाके रूपमे वोया था, वह अपने यौवनकालमें ही क्षयरोगग्रस्त हो गया। __ युक्ति-अयुक्ति और सभव-असभवका विचार मै नही करना चाहता, मै तो चाहता हूँ कि आज जैन-समाजको कविवर प० बनारसीदासजी, पडितप्रवर टोडरमलजी, दीवान अमरचन्दजी और प० पन्नालालवाकलीवाल जैसे महापुरुषोकी आवश्यकता है, और उसकी पूर्ति हो जाय तो जैन-समाज जी जाय । -दिगम्बर जैन, दिसम्बर १९४३ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित ऋषभदास चिलकाना, १८६३ ई० स्वर्गवास चिलकाना १८६२ ई० Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुदड़ीमें लाल बावू सूरजभानु वकील सहारनपुरसे ६ मीलकी दूरीपर प० ऋषभदासजी चिलकाने रहनेवाले थे । इनके पिता प० मगलसैनजी ज़मीदार भ थे, बहुधाकर साहूकारी करते थे । प० ऋषभदासजीका देहान्त उनकी २६ बरसकी उमरमें ही, शायद सन् १८६२ ई० में या इसके करीब हो गया उन्होने चिलकाने में ही किसी मुसलमान मियाँजीसे किसी मकतवमें या उर्दू स्कूलमें तीन-चार वर्ष पढकर सिर्फ कुछ थोडा-सा उर्दू लिखना-पढन सीखा था, जैसा कि उस जमानेमें हमारी तरफ दस्तूर था । हिन्दी लिखनापढना उन्होने अपने पितासे ही सीखा, और फिर उन्हीके साथ स्वाध्याय करने लगे । इस स्वाध्यायसे ही वह ऐसे अद्वितीय विद्वान् हो गये कि जिसकी कुछ भी प्रशसा नही की जा सकती है। आप वडे तीक्ष्ण बुद्धि थे । न्याय और तर्कमें आपकी बुद्धि बहुत ही ज्यादा दौडती थी । चिलकानेसे १४ मीलके फासलेपर कस्वा नकुड हैं, जहाँका में रहनेवाला हूँ । यहाँ प० सन्तलालजी जैन, हिन्दी भाषा जाननेवाले जैनधर्मंके अच्छे विद्वान् रहते थे, वह भी बडे तीक्ष्णबुद्धि थे और न्याय तथा तर्कके शौकीन थे । परीक्षामुख और प्रमाण-परीक्षाको खूब 'समझे' हुए थे प० ऋषभदासजीके यह बहुत ही नजदीकी रिश्तेदार थे । उन्ही की सगतिसे प० ऋषभदासजीको न्याय और तर्कका शौक हुआ । एकमात्र इस शौक दिलाने या प्रवेश करानेके कारण ही प० ऋषभदासजी अपनेको १० सन्तलालजीका शिष्य कहा करते थे । प० मगलसैनजीने अपने दोनो बेटोको अलग-अलग साहूकारीकी दूकान करा दी थी और स्वय एक तीसरी दूकान साहूकारीकी करते थे । सन् १८८६ ई० में कस्बे रामपुर जिला सहारनपुरके उत्सवमें मैं भी गया और पं० ऋषभदासजी भी गये । मै उन दिनो सहारनपुर में Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० ऋषभदास अपने चाचा ला० बुलन्दराय वकीलके वकालतके इम्तिहानकी तैयारीके वास्ते रहता था। वे और उनके पिता रायसाहब मथुरादास इंजिनियर आर्यसमाजी थे। रामपुरके जैन उत्सवमें मेरे साथ वा० वुलन्दराय भी गये थे, वहाँ उन्होने जैन पण्डितोके साथ ईश्वरके कर्ता-अकर्ता होनेकी • वहस उठाई। जव मैने देखा कि जैन पण्डितोके उत्तरसे उनकी पूरी तसल्ली - नही होती है, तब स्वय मुझे ही उनके सन्मुख होना पड़ा और वेधडक - तर्क-वितर्क करके उनको कायल कर दिया। इस समय तक मेरी और - ऋषभदासजीकी कुछ जान-पहचान नही थी। क्योकि इससे पहले मेरा रहना » परदेशमें ही होता रहा था। यह हमारी बहस ५० ऋषभदासजीने वडे गौरसे सुनी, जिससे उनके हृदयमें मुझसे मित्रता करनेकी गहरी चाह - हो गई। सभा विसर्जन होनेपर जब सब अपने-अपने डेरेपर वापिस . जा रहे थे, पं० ऋषभदासजी भी हमारे साथ हो लिये और बाबू वुलन्दराय. से इस विषयमें कुछ तर्क-वितर्क करना चाहा । अत हम सब लोग रास्ते .. ही में एक जगह बैठ गये और ऋषभदासजीने नये-नये तर्क करके उनको . बहुत ही ज्यादा कायल कर दिया, जिससे मेरे मनमें भी उनसे मित्रता करनेकी गहरी इच्छा हो गई। इस इच्छासे वे रात्रिको मेरे डेरेपर आये और हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई, जो अन्त तक रही । उनको अक्सर सहारनपुर आना पड़ता था। जव-जब वे आते थे, मुझसे जरूर - मिलते थे और धार्मिक सिद्धान्तोपर घण्टो बातचीत होती रहती थी। मेरे पितामहके भाई रायसाहव मथुरादास इजिनियरकी वहस , ईश्वरके सृष्टिकर्ता विषयपर बहुत दिनोसे प० सन्तलालजीसे लिखित रूपसे चल रही थी। रायसाहव आर्यसमाजके बडे-बडे विद्वान् पण्डितोसे उत्तर लिखवाकर उनके पास भेजा करते थे। अन्तमें प० सन्तलालजीने जो उत्तर दिया, वह बहुत ही गौरवका था, जिसका उत्तर लिखनेको रायसाहबने पं० भीमसैनजीके पास भेजा जो आर्यसमाजमें सबसे मुख्य विद्वान् थे और स्वामी दयानन्दके वाद उनके स्थानमें अधिष्ठाता माने जाते थे। भीमसैनजीने अपने आर्यसमाजी विद्वान्के उस उत्तरको, जिसका प्रतिउत्तर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत प० सन्तलालजीने दिया था, दूषित वताकर स्वय नवीन उत्तर लिखकर भेजा, जिससे यह वहस विल्कुल ही नवीन रूपमें बना दी गई । इस समय प० सन्तलालजीका देहान्त हो चुका था। इस कारण रायसाहबने भीमसैनजीका लिखा हुआ यह नवीन उत्तर वा नवीन तर्क मेरे पास भेजकर जैन पण्डितोसे इसका उत्तर लिखकर भेजनेको बहुत दवाया। रायसाहवका यह खयाल था कि प० भीमसैनजी-जैसे महान् विद्वान्के इस नवीन तर्कका जवाब किसी भी जैन पण्डितसे नही दिया जावेगा। इस ही कारण उन्होने बडे गर्वके साथ मुझको लिखा था कि यदि तुम्हारे जैन पडित इसका उत्तर न दे सकें तो तुम जैनधर्मपरसे अपना श्रद्धान त्यागकर आर्यसमाजी हो जाओ। मैने प० भीमसैनजीकी इस बहसको सहारनपुरमें सव ही जैन विद्वानोको दिखाया और इसका उत्तर लिखनेकी प्रार्थना की, परन्तु कोई भी इसका उत्तर लिखनेको तैयार नही हुआ। जब इस भारी लाचारी का जिक्र प० ऋषभदासजीसे किया गया तो उन्होने कहा कि घबराओ मत इसका उत्तर मै लिख दूंगा, और छ दिनोके वाद उन्होने उसका उत्तर लिखकर मेरे पास भेज दिया और वह मैने रायसाहवके पास भेज दिया, जिसको पढकर रायसाहब और उनके आर्यसमाजी विद्वान् ऐसे कायल हुए कि फिर आगे इस बहसको चलानेकी उनकी हिम्मत नहीं हुई और बहस बन्द कर दी गई। इन ही दिनो पं० चुन्नीलाल और मुशी मुकुन्दराय मुरादाबाद-निवासी दो महान् जैन परोपकारी विद्वान् सारे हिन्दुस्तान में जैन जातिकी उन्नति और उत्थानके वास्ते दौरा करते फिरते थे। जहाँजहाँ वे जाते थे, वहाँ-वहाँ जैन-सभा और जैन-पाठशाला स्थापित कराते थे। इस प्रकार उन्होने सैकडो स्थानोपर सभा और पाठशाला स्थापित करा दी थी। मथुरामें जैन-महासभा और अलीगढमें जैनमहाविद्यालय भी उन्होने ही स्थापित कराये थे। दो साल इस प्रकार दौरा करनेके वाद मुशी मुकुन्दरायको गठियाबाय हो गई, तो भी उन्होने दौरा करना नहीं छोडा । फिर एक वर्षके बाद उनका देहान्त हो गया । वे महान् विद्वान्, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० ऋपभदास १९५ सभाचतुर और महान् उच्च कोटिके वक्ता और उपदेशक थे। उनके देहान्तके कारण यह दौरा वन्द हो गया और महासभा भी वन्द हो गई। फिर इसके दो वर्पके बाद मैने मथुरा जाकर यह महासभा स्थापित कराई थी और जैनगजट जारी किया था, जो अब चल रहे है । दौरा करते समय जब यह दोनो विद्वान् सहारनपुर आये थे, तब मैंने प० ऋपभदामजी का लिखा हुआ ५० भीमसनजीके महान् तर्कका उत्तर इन दोनो विद्वानोको दिखाकर पूछा था कि यह उत्तर ठीक है या नही ? जिसको देखकर उन्होने कहा था कि यह उत्तर अत्यन्त ही उच्च कोटिका है और किसी महान् गिरोमणि जैन विद्वान्का लिखा हुआ है, तब मैने जाहिर किया कि यह ऋपभदासजीका लिखा हुआ है तो उन्होने किसी तरह भी विश्वास नहीं किया और कहा कि हम उसको अच्छी तरह जानते है । यह उत्तर ऐसे नौजवानका नही हो सकता है, यह तो किसी महान् अनुभवी विद्वान् का ही लिखा हुआ है। तव मैने ऋपभदासजीको बुलवाकर इन विद्वानोके सामने पेश किया, और कहा कि आप इनकी भली-भाँति परीक्षा कर लें, यह इन्हीका लिखा हुआ है । तिसपर मुंशी मुकुन्दरायजीने दो घण्टे तक तर्कमें उनकी कड़ी परीक्षा ली और अन्तमें आश्चर्यके साथ यह मानना ही पड़ा कि यह महान् उत्तर इन्हीका लिखा हुआ है। इसके बाद मेरा उनका यही मशविरा हुआ कि इस विपयपर एक ऐसी महान् पुस्तक लिख दी जावे, जिसमें सव ही तर्क-वितर्कोका उत्तर आ जावे और कोई भी वात ऐसी बची न रहे, जिसकी वावत किसी विद्वान् से पूछनेकी जरूरत रहे । इस मशविरेके वाद ही उन्होंने 'मिथ्यात्वनाशक नाटक' लिखना शुरू किया और एक वर्षकी रात-दिनकी भारी मिहनतके वाद यह महान् अद्भुत भारी पुस्तक तैयार हो पाई । तैयारीके कुछ दिनो पीछे ही, उनकी दूकानमें रातको चोरी होकर यह पुस्तक भी चोरी चली गई। पक्का सन्देह उनका यही था कि पुस्तकके ही चुरानेके वास्ते ईर्ष्यावश किसीने यह चोरी कराई है, जिसपर उन्होने धैर्य धर, फिर दोबारा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरण के अग्रदूत लेख बड़े परिश्रम से लिखे गये थे जो स्थायी साहित्यकी चीजें हैं । अभी दो-तीन वर्ष पहले अनेकान्तमें भी आपके कई मार्केके लेख निकले है । २८२ द्रव्यसंग्रह, पट्पाहुड, परमात्मप्रकाश, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और वसुनन्दि श्रावकाचारके हिन्दी अनुवाद भी आपके किये हुए है और उनमें द्रव्यसग्रहकी टीका तो आपकी बहुत ही अच्छी है और अब भी उसका खासा प्रचार है । आदिपुराण - समीक्षा, हरिवशपुराण- समीक्षा और पद्मपुराण-समीक्षा ये तीन परीक्षा ग्रन्थ उस समय लिखे गये थे, जब लोग आचार्योंके कथाग्रन्थ लिखनेके अभिप्रायको अर्थात् कथाके छलसे बालबुद्धि जीवोको हितोपदेश देनेके उद्देश्यको न समझते थे और प्रत्येक कथाको केवलोकी वाणी मानते थे । इसीलिए इनके प्रकाशित होनेपर कुछ लोग बुरी तरह बौखला उठे थे । उनमें बाबूजीने जो कुछ लिखा है, उससे मतभेद हो सकता है, परन्तु उनके सदुद्देश्यमें शका करनेको कोई स्थान नही है । जैन समाज में किसी तरह मिथ्या विश्वास बने रहें, इसे वे सहन नही कर सकते । } ज्ञान सूर्योदय ( दो भाग), कर्त्ता खण्डन, कर्म फिलासफी, जैनधर्मप्रवेशिका, श्राविका धर्म-दर्पण, भाग्य और पुरुषार्थ, युवकोकी दुर्दशा, जैनियोकी अवनतिके कारण आदि और भी अनेक पुस्तकें और निबन्ध आपके लिखे हुए है | मेरा प्रस्ताव है कि बाबूजीके तमाम साहित्यको सगह किया जाय और उसका बारीकीसे अध्ययन करके वे सब चीजे जो 'आउट आफ डेट' नही हुई है, दो-तीन जिन्दोमें प्रकाशित की जायँ । वे ७५ वर्षके हो चुके है । उनके जीतेजी ही यह काम हो जाय तो कितना अच्छा हो' । - दिगम्बर जैन दिसम्बर १९४३ १~~खेद है कि बाबूजीका १९४५ में स्वर्गवास हो गया । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणाके दादा भाई श्री कन्हैयालाल मिश्र, प्रभाकर हमारे चिर अतीतमें, जीवनकी एक विषम उलझनमे फंसे, सस्कृतके र कविने दुखी होकर कहा था-- "जानामि धर्म, न च मे प्रवृत्तिः! जानाम्यधर्म, न च मे निवृत्तिः !" धर्मको मैं जानता तो हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है । अधर्म को भी मै जानता हूँ, पर हाय, उससे मै वच नहीं पाता! __ जीवनकी यह स्थिति वडी विकट है। अचानक गिरना सरल है, जानकर गिरना कठिन, जानकर और फिर स्कनेकी इच्छा रहते । भूलसे गिरनेमें शरीरकी क्षति है, जानकर गिरनेमें आत्माका हनन है। हमारा समाज आज इसी आत्म-हननकी स्थितिमें जी रहा है । कौन नहीं जानता कि स्त्रियोको पटेंमें रखना, अपनी वशावलिपर हल्का तेजाव छिडकना है। विवाहकी आजकी प्रथा किसे सुखकर है? और सक्षेपमें हमारा आजका जीवन किसे पसन्द है ? हम आज जिस चक्रमें उलझे घूम रहे है, उसे तोडना चाहते है, पर तोड नहीं पाते । परम्पराके पक्षमें एक बहुत वडी दलील है, उसकी गति । परम्परा बुरी है या भली, चलती रही है, उसके लिए किसी उद्योगकी ज़रूरत नहीं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन - जागरणके श्रग्रदूत है । कौन उससे लडकर उद्योग करे, नया झगडा मोल ले । फिर हम समाज - जीवी है । जव सारा समाज एक परम्परामें चल रहा है, तो वह अकेला कौन है, जो सबसे पहिले विद्रोहका झण्डा खडा करे, नक्कू बने ? अच्छा, कोई हिम्मत करे, नक्कू बननेको भी तैयार हो चले, तो उसके भीतर एक हडकम्प उठ आता है -- लोग क्या कहेंगे? और ये लोग ? जिन्हें सहीको गलत कहनेकी मास्टरी हासिल है और जो नारदके खानदानी 'एव मन्थराके भाई-बहन है, ऐसा ववण्डर खडा करेंगे, सत्यके विरुद्ध ऐसा मोर्चा वांगे कि यही प्रलयका नजारा दिखाई देगा । चलो, इस मोर्चेसे भी लडेंगे । असत्यका मोर्चा, सत्यके सिपाही को लडना ही चाहिए, पर चारो ओरके ये समझदार साथी जो घेर बैठे"हाँ हाँ, वात तुम्हारी ही ठीक है, पर तुम्ही क्यो अगुवा बनते हो । अकेला 'चना भाडको नही फोड सकता । इन सब बुराइयोको तो समय ही ठीक करेगा । याद नही, रामूने सिर उठाया, बिरादरीके पचोने उसे कुचल दिया । फिर तुम्ही तो सारे समाजके ठेकेदार नही हो । वडोसे जो बात चली आ रही है, उसमें जरूर कुछ सार है । तुम्ही कुछ अक्ल के पुतले - नही हो - समाजमें और भी विद्वान् है । चलो अपना काम देखो, किस झगडे में पडे जी ।" 1 विचारका दीपक भीतर जल रहा है, धुंधला-सा, नन्हा-सा, टिमटिमाता । तेल उसमें कोई नही डालता, उसे बुझानेको हरेककी फूंक बेचैन है । दीपकमें गरमी है, वह जीवनके लिए संघर्ष करता है, उसकी लौ टिमटिमाती है, ठहर जाती है, पर अन्तमें निराशाका झोका आता है, वह त्रुझ जाता है । पता नही, हमारे समाजमें रोज तरुण- हृदयोमें विचारो के दीपक कितने जलते है और यो ही बुझ जाते है। काश, वे सब जलते रह पाते, तो आज हमारा समाज दीपमालिकाकी तरह जगमग जगमग दिखाई देता । सुना है, हाँ, देखा भी है, दीपक हवाके झोकेसे बुझ जाता है, हवा नही चाहती कि प्रदीप जले, दोनोमें शत्रुता है, पर वनमें ज्वाला जलती Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू सूरजभानु वकील २८५ है, तो आँधी ही उसे चारो ओर फैलाकर कृतार्थं होती है, दोनोमें अभिन्न मित्रता है । बा० सूरजभान एक ज्वालाकी तरह, अपनी तरुणाईकी मदभरी अँगडाइयोमें, समाजके अँधेरे आँगनमें उभरे। विरोधकी आँधियाँ उठी, घहराई, पर वे दीपक न थे कि बुझ जाते, अज्ञानके दारुण दर्पको दहते, चारो ओर फैल गये । भारी लक्कडके वोभसे दव, छोटी चिनगारी बुझ जाती है, पर होलीकी लपट, इन्ही लक्कडोकी सीढियोपरने चढ आसमानके गले लगती है । पता नही, जव वावूजी जन्मे, किस ज्योतिपीने उनकी भावीका लेख पढा और उस सुकुमार शिशुको वह जलता नाम दिया - सूर्यकी तरह वे अँधेरेमें उगे और उसे छिन्न-भिन्न कर आसमान में आ चमके । इन सब परिस्थितियोका हम अध्ययन न करें, अपने मनमें विरोधकी आँधियोके झकोरोका वल न तोल पायें, तो देवताकी तरह हम बाबू सूरजभानकी मूर्तिपूजा भले ही कर लें, उनके कार्योंका महत्त्व नही समझ सकते । तब उनके कार्य हमारे उत्सव गीतो स्वर भले ही भरें, हमारे अँधेरे अन्तरका आलोक और टूटे घुटनोका बल नही हो पाते । ऐसा हम कब चाहेंगे ?. तव आजकी तरह हरेक दफ्तरपर 'नो वैकेंसी' की पाटी नही टॅगी थी, वे चाहते तो आसानीसे डिप्टी कलक्टर हो सकते थे, पर नौकरी उन्हें अभीष्ट न थी, वे वकील वने और थोडे ही दिनोमें देववन्दके सीनियर वकील हो गये | वकीलको पूँजी है वाचालता और सफलताकी कसौटी है झूठपर सचकी सुनहरी पालिश करनेकी क्षमता। और बाबू सूरजभान एक सफल वकील, मूक साधना जिनकी रुचि और सत्य जिनकी आत्माका सम्वल ! कावेमें कुफ हो, न हो, यहाँ मयखानेसे एक पैगम्बर जरूर निकला । बग्वू सूरजभान वकील, अपने मुवक्कलोके मुकदमे तो उन्होने थोडे ही दिन लडे -- वे कचहरियाँ उनके लायक ही न थी -पर वकील वे जीवन भर रहे, आज ७५ वर्षके वुढापेमें भी वे वकील है और रातदिन मुकदमे लडते हैं, न्यायकी अदालतमें, खोजको हाईकोर्टमें, असत्यके विरुद्ध सत्यके मुकदमे । सस्कृतिकी सम्पदापर कुरीतियोके कन्जेके Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन-जागरणके अग्रदूत असाधारण आकारके धन-पिण्डमें अपना और अपने हृदय-मन्दिरकी दिव्य तपस्वी-मूर्तियोका उवलता हुआ रक्त दिया है, जैनो और भारतीयोके उग्न तपोधन देवोका प्रत्येक जीवन-मार्गमें स्वपर-भेद जनित वासना ओको भस्मीभूत करके सार्वहितके लक्षसे प्रगतिका क्रियात्मक सचालन किया और कराया है। भारतवर्षीय जनशिक्षा-प्रचारक समितिका सगठन स्वर्गीय दयाचन्द्र गोयलीय और उनके वर्गके अन्य सत्यहृदयी कार्यकर्ता-मोती,' प्रताप', मदन', प्रकाश की जैसी राजनैतिक १-स्वर्गीय वीर-शहीद मोतीचन्द सेठीजीके शिष्य थे। इन्हें श्राराके महन्तको वध करनेके अभियोगमें (सन् १९१३) में प्राण-दण्ड मिला था। गिरफ्तारीसे पूर्व पकड़े जानेकी कोई सम्भावना नहीं थी। यदि शिवनारायण द्विवेदी पुलिसकी तलाशी लेनेपर स्वयं ही न बहकता तो पुलिसको लाख सर पटकने पर भी सुराग नहीं मिलता। पकडे जानेसे पूर्व सेठोजी अपने प्रिय शिष्योंके साथ रोजानाकी तरह घूमने निकले थे कि मोतीचन्दने प्रश्न किया "यदि जैनोंको प्राणदण्ड मिले तो वे मृत्युका आलिङ्गन किस प्रकार करें ?" बालकके मुंहसे ऐसा वीरोचित, किन्तु असामयिक प्रश्न सुनकर पहले तो सेठीजी चौंके, फिर एक साधारण प्रश्न समझकर उत्तर दे दिया। प्रश्नोत्तरके एक घटे बाद ही पुलिसने घेरा डालकर गिरफ्तार कर लिया, तब सेठीजी, उनकी मृत्युसे वीरोचित जूझनेकी तैयारीका अभिप्राय समझे। ये मोतीचन्द महाराष्ट्र प्रान्तके थे। इनकी स्मृतिस्वरूप सेठीजोने अपनी एक कन्या महाराष्ट्र प्रान्त-जैसे सुदूर देशमें व्याही थी। सेठीजीके इन अमर शहीद शिष्योके सम्वन्धमें प्रसिद्ध विप्लववादी श्री शचीन्द्रनाथ सान्यालने "वन्दी जीवन” द्वितीय' भाग पृ० १३७में लिखा है-"जैनधर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्यकी ख़ातिर देशके मङ्गलके लिए सशस्त्र विप्लवका मार्ग पकडा था। महन्तके खनके अपराधमें वे भी जब फाँसीकी कोठरी में कैद थे, तब उन्होंने भी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जुनलाल सेठी ३६७ आत्मोत्सर्गी चौकडियाँ मेरे सामने इस असमर्थ दशामें भी चिर आराध्य पदपर आसीन है; प्रात. स्मरणीय आदर्श पण्डितराज गोपालदासजी वरैया, दानवीर सेठ माणिकचन्द्र और महिला - ज्योति मगन वहन आदिके नेतृत्वauseat मै अगीभूत पुजारी अद्यावधि हूँ और पर्देकी ओटमें उन सबकी सत्तावाटिकाका निरन्तर भोगी भी हूँ और योगी भी । कौन किधर कहाँसे, यहाँ क्या और वहाँ क्या इत्यादि प्रत्येक प्रश्नके उत्तरमे मेरे लिए तो उक्त दिव्य महापुरुषोकी आत्माएँ ही अचूक परीक्षा - कसौटीका काम जीवन-मरणके वैसे ही सन्धिस्थलसे अपने विप्लवके साथियोंके पास जो पत्र भेजा था, उसका सार कुछ ऐसा था--' - "भाई मरनेसे डरे नही, और जीवनकी भी कोई साध नहीं है; भगवान् जब जहाँ जैसी अवस्था में रक्खेंगे, वैसी ही अवस्थामें सन्तुष्ट रहेंगे ।" इन दो युवकोंमेंसे एकका नाम था मोतीचन्द और दूसरेका नाम था माणिकचन्द्र या जयचन्द्र । इन सभी विप्लवियोके मनके तार ऐसे ऊँचे सुरमें बँधे थे जो प्रायः साधु और फ़क़ीरोंके बीच ही पाया जाता है ।" २ - प्रतापसिंह वीर - केसरी ठाकुर केसरीसिंहके सुपुत्र और सेठीजीके प्रिय शिष्य थे । सेठजीके आदेश से ये उस समयके सर्वोच्च क्रान्तिकारी नेता स्वर्गीय रासविहारी बोसके सम्पर्क में रहते थे । इनके जाँबाज़ कारनामे और आत्मोत्सर्गकी वीरगाथा 'वाद' वग़ैरहमें प्रकाशित हो चुकी हैं। ३ - मदनमोहन मथुरासे पढ़ने गये थे, इनके पिता सर्राफा करते थे । सम्पन्न घरानेके थे । सम्भवतः इनकी मृत्यु अचानक ही हो गई थी । इनके छोटे भाई भगवान्दीन चौरासीमें सन् १४-१५ में मेरे साथ पढते रहे है, परन्तु मदनमोहनके सम्बन्धमें कोई बात नही हुई । बाल्यावस्थाके कारण इस तरहकी बातें करनेका उन दिनों शऊर ही कब था ? ४ - प्रकाशचन्द सेठीजीके इकलौते पुत्र थे । सेठीजी की नज़रबन्दीके समय यह बालक थे । उनकी अनुपस्थितिमें अपने-परायोंके व्यवहार Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन-जागरणके अग्रदूत देती है, चाहे उस समयमें और अब जीवोके परिणामो और लेश्याओमें जमीन-आस्मानका ही अन्तर क्यो न हो गया हो । ___ सतनामें परिषद्का अधिवेशन पहला मौका था, तब उल्लेखनीय जैनवीर-प्रमुख श्री ...........के द्वारा आपसे मेरी भेंट हुई थी। मै कई वर्षोके उपयुक्त मौनाग्रहनतके वाद उक्त अधिवेशनमें शरीक हुआ था। इधर-उधर गत-युक्तके सिंहावलोकनके पश्चात् मैं वहाँ इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि आपमें सत्य-हृदयता है और अपने सहधर्मी जन, वन्धुओके प्रति आपका वात्सल्य ऊपरको झिली नहीं है, किन्तु रगोरेगे में खौलता हुआ खून है, परन्तु तारीफ यह है कि ठोस काम करता है और बाहर नहीं छलकता।" ____इस तरह मुझे तो दृढ प्रतीत होता है कि आपके सामने यदि मै जनसमाजके आधुनिक जीवन-सत्त्वके सम्बन्धमें मेरी जिन्दगी भरकी सुलझाई हुई गुत्थियोको रख दूं तो आप उनको अमली लिवासमें जरूर रख सकेंगे। अपेक्षा--विचारसे यही निश्चयमें आया। वन्धुवर, __ आपने राष्ट्रिय राजनैतिक क्षेत्रके गुटोमें घुल-घुलकर काम किया है, उसकी रग-रगसे आप वाकिफ हो चुके है और तजरुवेसे आपको यह स्पष्ट हो चुका है कि हवाका रुख किदरको है । इसीसे परिणाम स्वरूप आपने निर्णय कर लिया कि जैनेतरोकी ज्ञात व अज्ञात भक्ष्य-भक्षक प्रतिद्वन्द्विताके मुकाविलेमें सदियोके मारे हुए जैनियोके रग-पटठोमें जीवनसग्राम और मूल संस्कृतिको रक्षाकी शक्ति पैदा हो सकती है तो केवल तथा आपदानोके अनुभव प्राप्त करके युवा हुए। सेठीजी ५-६ वर्षको नजरबन्दीसे छूटकर आये ही थे कि उनकी प्रवास-अवस्थामें ही अकस्मात् मृत्यु हो गई। सेठीजीको इससे बहुत श्राघात पहुंचा। इन्ही प्रकाशकी स्मृति-स्वरूप इनके वाद जन्म लेने वाले पुत्र का नाम भी उन्होंने प्रकाश ही रक्खा । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्जुनलाल सेठी ३६९ उन्ही साधनो और उपायोसे जो दूसरे लोग कर रहे है, अथवा जिनमें बहुत कुछ सफलता जैनोके सहयोगसे मिलती है।..... आपके सामने आधुनिक काल-प्रवाहके भिन्न-भिन्न आन्दोलनसमूह धार्मिक वा सामाजिक, वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय, हेय वा उपादेय, उपेक्षणीय वा अनुपेक्षणीय, आदरणीय वा तिरस्कार्य, व्यवहार्य वा अव्यवहार्य, लाभप्रद वा हानिकर इत्यादि अनेक रूप-रूपान्तरमें मौजूद है। उनमें से प्रत्येकका तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाली घटनाओका गृहस्थ तथा त्यागी, श्रावक-श्राविकाओके दैनिक जीवनपर एवं मन्दिर-तीर्थो अथवा अन्य प्रकारकी नूतन और पुरातन सस्थाओपर पड़ा है, वह भी आपके सम्मुख है। मै तो प्राय सबमें होकर गुजर चुका हूँ, और उनके कतिपय कड़वे फल भी खूब चाख चुका हूँ और चाख रहा हूँ। अत आपका और आपके सहकारी कार्यकर्ताओका विशेप निर्णायक लक्ष इस ओर अनिवार्य-अटल होना चाहिए। नही तो जैन सगठन और जैनत्वको रक्षाके समीचीन ध्येयमें केवल वाधाएँ ही नही आयेगी, धक्का ही नही लगेंगे, प्रत्युत नामोनिशान मिटा देनेवाली प्रलय भी हो जाय तो मानवजातिके भयावह उथल-पुथलके इतिहासको देखते हुए कोई असम्भव बात नहीं है। अल्पसख्यक जातियोको पैर फूंक-फूंककर चलना होता है और बहुसख्यक जातियोके बहुतसे आन्दोलन जो उन्हीको उपयोगी होते है, अल्पसख्यकोमें घुस जाते है और उनके लिए कारक होनेकी अपेक्षा मारकका काम देते है । उनकी बाहरी चमक लुभावनी होती है, कई हालतोमें तो आँखोमें चकाचौध पैदा कर देती है, मगर वास्तवमें Old is not gold ghtters हरेक चमकदार पदार्थ सोना ही नहीं होता। बहुसंख्यक लोगोकी तरफसे मखमली खूबसूरत पलगोसे ढके हुए खड्डे विचारपूर्वक वा अन्त स्थित पीढ़ियोके स्वभावज चक्रसे तैयार होते रहते है, जिनके प्रलोभन और ललचाहटमें फंसकर अल्पसंख्यक लोग शत्रुको ही मित्र समझने लगते है, यही नहीं; किन्तु अपने सत्त्व-स्वत्वकी रक्षाका खयाल तक छोड वैठते है। किमधिकम्, इस स्व-रक्षणकी भावना वासना भी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैन-जागरणके अग्रदूत उनको अहितकर जंचने लगती है। इसके अलावा भावी उदयावलीके वल अथवा यो कहूँ कि कालदोषसे अभागे अल्पसख्यकोर्मेसे कोई कस जैसे भी पैदा हो जाते है जो अपने घरके नाश करनेपर उतारू हो जाते है, गैरो के चिराग जलाते है और पूर्वजोके घरको अँधेरा नरक बना देते हैं। ......इस तरह जैन कुलोम, जैन पञ्चायतोमें, जैन गृहोमे चलतीचलाती ठण्डी पड़ी हुई आम्नायोमें कलह, भीषण क्षोभ और तत्कालस्वरूप तीव्र कषायोदय और अशुभ वन्धके अनेक निमित्त कारणोंसे बचाकर जैनोका रक्षण, सगठन और उत्थान होगा, तभी इस समयकी लपलपाती हुई अनेकान्त-नाशक जाज्वल्यमान दावाग्निसे जैनधर्म और जैनसस्कृति स्थिर रहेगी। - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ यह पत्र सेठीजीने मुख्तार साहवको लिखा था, जो कि अनेकान्त वर्ष १ किरण ४ में प्रकाशित हुआ था।] बन्धुवर, अनेकान्त-साम्यवादीकी जय अनेक द्वन्द्वोके मध्य निर्द्वन्द्व 'अनेकान्त'की दो किरणें सेठीके मोहतिमिराच्छन्न बहिरात्माको भेदकर भीतर प्रवेश करने लगी तो अन्तरात्मा अपने गुणस्थान-द्वन्द्वमसे उनके स्वागतके लिए साधन जुटाने लगा। परन्तु प्रत्याख्यानावरणकी तीन उदयावलीने अन्तरायके द्वारा रूखा जवाब दे दिया, केवल अपायविचयकी शुभ भावना ही उपस्थित है। आधुनिक भिन्न-भिन्न एकान्ताग्रह-जनित साम्प्रदायिक, सामाजिक एव राजनैतिक विरोध व मिथ्यात्वके निराकरण और मथनके लिए अनेकान्ततत्त्ववादके उद्योतन एव व्यवहाररूपमें प्रचार करनेकी अनिवार्य आवश्यकताको मै वर्पोसे महसूस कर रहा हूँ। परन्तु तीव्र मिथ्यात्वोदयके कारण आम्नाय-पथ-वादके रागद्वेष में फंसे हुए जैन नामाख्य जनसमूहको ही जैनत्व एवं अनेकान्त-तत्त्वका घातक पाता हूँ, और जैनके अगुवा वा समाजके कर्णधारोको ही अनेकान्तके विपरीत प्ररूपक वा अनेकान्ताभासके गर्तमें हठ रूपसे पडे देखकर मेरी अव तक यही धारणा रही है कि अनेकान्त वा जैनत्व नूतन परिष्कृत शरीर धारण करेगा जरूर, परन्तु उसका क्षेत्र भारत नही, किन्तु और ही कोई अपरिग्रह-वादसे शासित देश होगा। अस्तु, अनेकान्तके शासनचक्रका उद्देश्य लेकर आपने जो झडा उठाया है, उसके लिए मै आपको और अनेकान्तके जिज्ञासुओको वधाई देता हूँ और प्रार्थनारूप भावना करता हूँ कि आपके द्वारा कोई ऐसा युगप्रधान प्रकट हो, अथवा आप ही स्वय तद्रूप अन्तर्वाह्य विभूतिसे सुसज्जित हो, जिससे एकान्त हठ-शासनके साम्राज्यकी पराजय हो, लोकोद्धारक विश्व-व्यापी अनेकान्त शासनकी व्यवस्था ऐसी दृढतासे स्थापित हो कि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैन-जागरणके श्रनदूत ३७२ चहुंओर कम-से-कम षष्ठ गुणस्थानी जीवोका घर्मंशासन-काल मानवजातिके --- नही नही जीवविकासके इतिहासमें मुख्य आदर्श प्राप्त करे, जिससे प्राणिमात्रका अक्षय्य कल्याण हो । इसके साथ यह भी निवेदन कर देना उचित समझता हूँ कि सब इस युगमें साख्य, न्याय, बौद्ध आदि एकान्त दर्शनोसे अनेकान्तवादका मुका'बिला नही है, आज तो साम्राज्यवाद, घनसत्तावाद, सैनिकसत्तावाद, गुरुडमवाद, एकमतवाद, वहुमतवाद, भाववाद, भेषवाद, इत्यादि भिन्न-भिन्न जीवित एकान्तवादसे अनेकान्तका संघर्षण है । इसी सघर्षणके लिए गाधीवाद, लेनिनवाद, मुसोलिनीवाद आदि कतिपय एकान्तपक्षीय नवीन मिथ्यात्व प्रवल वेगसे अपना चक्र चला रहे है | ... अत. इस युगके समन्तभद्र वा उनके अनुयायियोका कर्तव्यपथ तथा कर्म्म उक्त नव-जात मिथ्यात्वोको अनेकान्त अर्थात् नयमालामें गूंथकर प्रकट करना होगा, न कि भूतमें गडे हुए उन मिथ्यादर्शनोको कि जिनके लिए एक जैनाचार्यने कहा था कि " षड्दर्शन पशुग्रामको जैनवाटिकामें चराने ले जा रहा हूँ ।" महावीरको आदर्श अनेकान्त-व्यवहारी अनुभव करनेवालोका मुख्य कर्तव्य है कि वे कटिवद्ध होकर जीवोको और प्रथमतभारतीयोको माया महत्त्व - वादसे बचाकर यथार्थ मोक्षवाद तथा स्वराज्य का आग्ग्रह-रहित उपदेश दें । और यह पुण्यकार्यं उन्ही जीवोसे सम्पादित होगा, जिनका आत्म-शासन शुद्ध शासनशून्य वीतरागी हो चुका हो । अन्तमें आपके प्रशस्त उद्योगमें सफलताकी याचना करता हुआ अजमेर आपका चिरमुमुक्षु वधु जुनलाल सेठी २१-१-३० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अगर मर जाइये तो.... महात्मा भगवानदीन अर्जुनलाल सेठीको लोगोने भुला दिया। भुला देना हम वडा अच्छा काम समझते है । जो समाज अपने चाँदो, अपने सूर्योको भुलाना नही जानता वह जीना नही जानता। पर चाँद और सूरजको भुलानेके लिए वडी अक्ल चाहिए, वडी हिम्मत चाहिए, वडा त्याग चाहिए और मर मिटनेकी तैयारी चाहिए। तुलसीने हिन्दीमे रामायण लिखकर वाल्मीकिको भुलवा दिया, विनोवाने मराठीमे 'गीताई' नामसे गीताका अनुवाद करके मराठी जानकार जनताके दिलसे संस्कृतकी गीता भुलवा दी, यह कौन नहीं जानता कि युग-युगमे नये-नय आदमी पैदा होकर पुराने आदमियोको भुलाते जाते है। क्या प० जवाहरलालने प० मोतीलाल नेहरूको लोगोके दिलोसे नही भुलवा दिया ? पर इस तरह भुलवाने जानेसे बुजुर्गोको आत्मा नयोको आशीर्वाद देती। पर समाजने अर्जुनलाल सेठीको इस तरहसे कहाँ भुलाया, अगर इस तरहसे भुलाया होता तो अर्जुनलाल सेठीका आत्मा आज हम सबको आशीर्वाद दे रहा होता। ___ अर्जुनलाल सेठी समाजकी ऐसी देन थे, जिनपर चाहे देशके थोड़े ही आदमियोको अभिमान हो, पर उस अभिमानके साथ इतनी तीव्रता रहती है कि जो उस अभिमानमे नही रहती जो करोडो आदमियोमे विखरा होता है । यह किसको पता है कि कितने ही देशके मशहूर घरानोमे जव अर्जुनलाल सेठीकी चर्चा चल पड़ती है तो सबके मुंहसे यही निकल पडता है कि उस-जैसे वातके पक्के आदमीको दुनिया बहुत कम पैदा करती है, और फिर सबके मुंहसे यही निकल पड़ता है कि होता कि हम भी अर्जुनलाल सेठी-जैसे वन सकते। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जैन-जागरणके अग्रदूत ___अर्जुनलाल सेठीको हम आदमी कहे, या देशकी आज़ादीका दीवाना कहें, हम अर्जुनलाल सेठीको हिन्दुस्तानी कहे, या आज़ादीके दीपकका परवाना कहे जो अपने २५ वर्षके इकलौते बेटेको मौतके विस्तरपर छोडकर प० सुन्दरलालके एक मामूली तार पर दौडा हुआ वम्बई पहुंचता है, और बेटेके मर जानेके बाद भी उसे देशका काम छोडकर घर लौटनेकी जल्दी नही होती । कोई यह न समझे कि उसे घरसे मोह नही था, उसे वेटेसे प्यार नहीं था। वह इतना प्यारा था, और इतना मुहन्वती था कि उस-जैसे पतिके लिए पलियाँ तरस सकती है, उस-जैसे वापके लिए वेटे जानपर खेल सकते है, उस-जैसे दोस्तके लिए दोस्त खून-पसीना एक कर सकते है, उस-जैसे नेताके लिए अनुयायी सरके वल चल सकते है। अर्जुनलाल सेठीने त्यागका व्रत नहीं लिया, त्याग किसीसे सीखा नही, किसी नेताके व्याख्यान सुनकर जोशमे आकर उसने त्यागको नहीं अपनाया, त्याग तो वह माँके पेटसे लाया था, त्याग तो उसकी जन्मघुट्टीमें मिला था, त्यागको तो उसने मौके स्तनसे पिया था, इसलिए त्याग करते हुए उसे त्यागका गीत नही गाना पडता था और त्यागी होते हुए दूसरो पर त्यागके घमण्डका रोब नही जमाना पडता था । त्यागीका वाना पहननेकी उसे जरूरत ही कहाँ थी? इन पक्तियोके पढ़नेवालोमे हो सकता है अनेको ऐसे निकल आवे जो खुले नही तो मन ही मन यह कहने लगे कि रुपये तो हमसे भी मंगाये थे, पर यह वही बता सकते है जो उसके साथ रहे हो कि उसने उन रुपयोका क्या किया था । अर्जुनलाल सेठीके त्यागकी वातें ऐसी है, जिनको आज भी हम साफ-साफ कहनेके लिए तैयार नहीं। चूकि यह अच्छा ही है कि अभी वे कुछ दिनो और अजानकारीके गड्ढेमे पडे रहे, पर हम अपने पढनेवालोको किसी दूसरी तरहसे समझाये देते है कलकत्ताके मशहूर देशभक्त श्री श्यामसुन्दर चक्रवर्ती जो कि चित्तरजनदासजीकी टक्करके आदमी थे, उनसे मिलनेके लिए हम प० सन्दरलालजीके साथ कलकत्ता पहुंचे। श्यामसुन्दर चक्रवर्ती 'सर्वन्ट' नामका एक अग्रेजी दैनिक निकालते थे। हम वही उनसे उनके दफ्तरमें Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्जुनलाल सेठी ३७५ मिले। वे वडी मुहब्बतसे मिले और ऐसी खातिरदारी की मानो हम उनके माँ - जाये भाई हो । थोड़ी देर बाद वे हमे अपने घर ले गये और १६ वर्षकी लडकीat दिखाया जो वीमारीसे काँटा हो गई थी और एकदम पीली पड़ी हुई थी । चक्रवर्ती और लडकीकी मॉसे वातो वातोमे यह भी पता चला कि उस लडकीके लिए दवा और दूधका भी ठिकाना नही, तब हमने सोचा कि कुछ रुपये चक्रवर्तीको दे देने चाहिएँ । हम घरसे 'सर्वेण्ट' के दफ्तर लौट ही रहे थे कि रास्तेमे एक आदमीने चक्रवर्ती नामका ५०० रु० का चेक दिया, चक्रवर्तीजी हमारे साथ उस चेकको लेकर पासके वैकमें पहुँचे और ५०० रु० लिये । दफ्तरमे आये । पाँच मिनिटमें पूरे पाँच सौ खतम हो गये । 'सर्वेण्ट' में काम करनेवालोकी २-३ महीनोकी तनख्वाह चढी हुई थी । चक्रवर्तीकी नजरमे पहले वह आदमी थे जो देशकी आजादी के काममें जुटे हुए थे न कि वह बीमार लड़की जो पलंगपर पडी थी । हमने जव यह देखा तो यही मुनासिव समझा कि चक्रवर्तीक हाथमे दिये हुए रुपये तो न कभी दवाका रूप ले सकेंगे और न कभी दूध वन सकेगे। इससे यही ठीक होगा कि दवा खरीद कर दी जाय और दूधका कोई इन्तजाम कर दिया जाय। अगर कुछ देना ही है तो लड़कीकी माँके हाथमे दिया जाय । हमने यह भी सोचा कि लड़कीकी माँ हिन्दू नारी है और हिन्दू पत्नी है, वह पति देवतासे कैसे छिपाव रख पायेगी और फिर उसके पास भी वह रुपया कैसे बच सकेगा । आखिर ऐसा ही इंतजाम करना पड़ा कि जिससे सब झझटोंसे बचकर रुपये दूध और दवामे तबदील हो सके । वस, इस ऊपरकी कथासे समझ लीजिए कि सेठीजीके हाथमें पहुँचा हुआ रुपया जाने कहाँ-कहाँ और किस तरह बिखर जाता था और किस तरह कम-ज्यादा देशकी आजादीके दीपकका तेल बनकर जल जाता था । सारी सस्थाएँ एक-एक आदमीके बलपर चलती है और वह आदमी इघरउधरसे माँगकर ही रुपया लाता है, पर जिनपर वह रुपया खर्च करता है, उनपर सौ एहसान जमाता है । इतना ही नहीं, वह तो प्लेटफार्म से चिल्ला Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जैन-जागरणके अग्रदूत चिल्लाकर यह भी कहता है कि यह मैं ही हूँ जो भूखोका पेट भर रहा हूँ। पर अर्जुनलाल सेठीने इस तरह भीख मांगकर पाये हुए रुपयेसे न कभी किसीपर एहसान जमाया और न कभी प्लेटफार्मसे तो क्या कोनेकतरेमे भी अपने दानकी कोई बात कही। वह सच्चे मानोमे त्यागी था। उसने अपने आपको कभी पैसेका मालिक नही समझा, पर समझा तो यह समझा कि वह पोस्टमैन है जो इधरसे रुपया लाता है और उपर दे देता है। यहाँ हो सकता है कि कोई व्यवहार-धर्मके रंगमें बुरी तरहसे रंगा हुआ यह सवाल उठा बैठे कि अर्जुनलाल सेठी भीख मांगकर ही नही पैसा इकट्ठा करते थे, बल्कि इस तरहसे भी रुपया जुटा लेते थे, जिसे वह जानते थे कि यह रुपया ठीक तरहसे हासिल नही किया गया। उसे हम क्या कहे, उसे दलीलोसे समझाना किसी तरहसे नही हो सकता। उसे तो हम यही कहेंगे कि वह एक मर्तवा अपने भीतर आज़ादीकी आग सुलगाये और देखे कि उस आगकी जब लपटे उठती है तो वह क्या करता है और व्यवहार-धर्मको कैसे निभाता है। अर्जुनलाल सेठीको निश्चय और व्यवहार-धर्मके दोनो रूपोकी जानकारी वहुत काफी थी और इस नाते वह पण्डित नामसे पुकारे जाते थे। पर वह कोरे पण्डित नही थे । कोई दिन ऐसा नही जाता था जिस दिन वह रातको वैठकर अपने दिन भरके कामका अकेलेमें पर्यालोचन नही कर जाते थे। उन्होने तो कभी अपने मुंहसे नहीं कहा पर उनके पास रहकर हमारा यह अनुभव है कि उनका जीवन सचमुच जलमे कमलकी तरह था। __जयपुर कालेजसे बी० ए० करने के बाद उनके लिए रियासतमें नौकरी का मार्ग खुला हुआ था, उनके साथियो और करीवी रिश्तेदारोमेंसे कई उस रास्तेको अपना चुके थे। पर ये कैसे अपनाते, इन्हें नौकरीसे क्या लेना था, इन्हे तो उसी राज्यके जेलखानेका मेहमान बनना था । बी० ए० इन्होने फारसी लेकर किया था और सस्कृत घरपर सीखी थी। धर्मशिक्षाके मामलेमे वे चिमनलाल वक्ताको अपना गुरु मानते थे. हमने वक्ताजीके व्याख्यान सुने है। श्रोताओको समझानेकी शैली Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्जुनलाल सेठी ३७७ उनकी वडी सीवी होती थी और इतनी मनलगती होती थी कि असली बात झट समझमे आ जाती थी। ऐसे गुरुके शिष्य अर्जुनलालजी अगर कुछ ऐसी बाते कह गये जो बहुतोको मन लगती नही जंचती तो उसमे उनका क्या दोष ! वे तो सचाईके साथ खोजमे लगे और जो हाथ आया कह गये। ___वह भरी जवानीमे समाज-सेवाके मैदानमे कूद पड़े और सबसे 'पहले उन्होने वह काम उठाया जिसकी समाजको सबसे ज्यादा जरूरत थी, यानी उन्होने एक शिक्षासमितिकी नीव डाली, उसीके मातहत जयपुरमें पाठशालाओका जाल बिछा दिया। अब्दुलगफूर नामके विद्यार्थीको लेकर समाजमे बडी खलबली मची, पर समाज पैदायशी त्यागी अर्जुनलालका क्या बिगाड़ सकती थी और फिर उन्हें एक साथी घीसूलाल गोलेच्छा ऐसे मिल गये थे, जिसकी दोस्तीने सेठीजीके त्यागको और भी ज्यादा मजबूत कर दिया था। यह शिक्षासमिति कुछ दिनोमे एक छोटी-मोटी यूनिवर्सिटीका रूप ले बैठी और दूर-दूरके विद्यार्थी उसकी परीक्षामे शामिल होने लगे। शिक्षाकी सडक जिस रास्ते होकर गई है, उस रास्तेमे दासतासे मुठभेड हुए वगैर नही रहती और कैसी भी शिक्षासमिति क्यो न हो, दासता की बेडियोमे फँसकर वह सच्चे धर्मकी तालीम नहीं दे सकती। उसका सच्चा धर्म और स्वाधीनता एकार्थवाची शब्द है. इसलिए उसको राजसे टक्कर ही नही लेनी पड़ती, वल्कि उसे उखाड फेकनेकी तैयारी करनी होती है । सेठीजीकी शिक्षासमिति आखिर उस मजिलपर पहुंच तो गई और वे सरकारसे टक्कर ले कि इन्दौरमे श्री कल्याणमलविद्यालयके प्रधानाध्यापकको हैसियतसे गिरफ्तार कर लिये गये और कुछ दिनो जयपुर जेलमें और कुछ दिनो वैलोर जेलमें रहने के बाद बाहर निकले कि जल्दी न्ही नन २१ के आन्दोलनमें शामिल हुए। पैदायशी त्यागीके लिए और राह ही क्या थी। हमसे उमरमे दो वर्ष वडे थे और हमारी उनसे जब जान-पहचान Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जैन-जागरणके अग्रदूत हुई तब वह हमसे कई गुने ज्यादह धर्मके ज्ञाता थे और कहकर नहीं, तो मन ही मन हम उनको धर्मके मामलेमे गुरु ही मानते थे और हम उनकी बहुत-सी बातोकी नकल करनेकी कोशिश करते थे। जब वह शिक्षाप्रचारक समितिके काममें लगे हुए थे, तव शिष्टाचारके वह आदर्श थे। गाली तो उनके मुंहपर फटकनेकी सोच ही नही सकती थी। मामूली पाजी या नालायक शब्द भी उनके मुंहसे निकलते हमने कभी नहीं सुना, वह अध्यापक भी थ पर विद्यार्थिगेपर कभी नाराज नहीं होते थे। विद्याथियोसे 'आप' कहकर बोलना हमने उन्हीसे सीखा। यह तारीफ सुनकर सम्भव है हमारे पढनेवाले एकदम ऐंठ जाये, क्योकि उनमेसे बहुतोने उनको गाली देते सुना होगा, और बुरी-बुरी गालियां देते हुए भी सुना होगा। हम उनकी बातोको झुठलाना नहीं चाहते, पर हम तो अर्जुनलाल सेठीके बहुत पास रहे है और मुद्दतो रहे है। यह गाली देनेकी बला उनके पीछे वेलौर जेलसे लगी, जहाँ वे वर्षो राजकाजी कैदीकी हैसियतसे रहे हैं। वहाँ वे इतने सताये गये थे कि 'वेलौर' जेलसे निकलनेके वाद उनके बारेमें यह कहना कि वह अपने होशहवासमे थे ज़रा मुश्किल हो जाता है । जेल से छुटकर वह देहली गये तव हम वहाँ उनसे मिले थे। वे अनेको काम ऐसे करते थे कि जो इस शिष्टाचारसे जरा भी मेल नहीं खाते थे, जिसको हमने जयपुर में देखा था । उदाहरणके लिए हर औरतके पाँव छूने और जगह बेजगह यह कह वैठना कि मैने भगवान्की मूरतका मेहतरोंसे प्रक्षाल करवाया । उन दिनो सारी बाते कुछ इस तरहकी होती थी कि यह नही समझा जा सकता था कि उनको होश-हवास थी। धीरे-धीरे उन्होने अपनेपर काबू पाया, पर गालियोपर इस वजहसे पूरी-पूरा कावू नहीं पा सके कि काग्रेसको राजकारी चपेटोने उनका मरते दमतक कभी पीछा न छोड़ा। निश्चयके बलपर व्यवहारमे वह कभी-कभी इतने पीछे पड जाते थे और वह कभी-कभी इतने आगे बढ जाते थे कि आम आदमी उन दोनोका मेल नहीं बिठा पाते थे। इस वास्ते कभी-कभी किसी-किसी समझदारके मुंहसे तग आकर यह निकल पड़ता था कि अर्जुनलाल योगभ्रष्ट Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अर्जुनलाल सेठी हो गया है। हम उनसे हर हालतमे मिलते रहे। उस हालतमे भी मिले जव उन्हें योगभ्रष्टकी पदवी मिली हुई थी, पर हमने तो उनमे कोई अन्तर पाया नहीं। उनकी आजादीकी लगन ज्योकी त्यो बनी हुई थी, उनका सर्वधर्मसमभाव ज्योका त्यो था और उनकी आजादीकी तडपमे कोई अन्तर नहीं आया। हम तो उसीको धर्मकी चोटीपर पहुंचा हुआ मानते है जो जिस धर्ममे पैदा हुआ हो, उस धर्मके आम लोग उसे धर्मभ्रष्ट समझने लगे और उससे खूब घृणा करने लगे और वन सके तो उन्ही आम लोगोमेसे कोई ऐसा भी निकल आये जो उस धर्मभृष्टको मौतके घाट उतार दे और क्या गांधीजी कुछकी नजरमे धर्मभृष्ट नही थे और क्या उन्हे धर्मभूष्ट होनेकी सजा नही मिली। इस लिहाजसे तो सेठीजी अच्छे ही रहे। फिर वे धर्मभष्ट तो रहे पर सज़ासे बच गये। अर्जुनलाल सेठीका जीवन सचमुच जीवन है । यह भी कोई जीवन है कि वनी-बनाई पक्की सड़को पर दौडे हुए चले जाये, सेठीजीका जीवन कभी पहाडीकी चोटियोको लाँघना और कभी चक्करदार रास्तोंमे धूमना, घने जगलमे पगडडीकी परवाह किये विना जिधर चाहे उधर चल पड़ना। ऐसा करनेके लिए नामवरीको अपने पाँवोके नीचे कुचलनेके लिए जितनी हिम्मत चाहिए, उतनी उनमे थी और यही तो एक ऐसी चीज थी कि , जिसकी वजहसे हमको सेठीजीके जीवनसे स्पर्द्धा होती है। तो क्या सेठीजीमे कोई कमी या बुराई नहीं थी, हाँ कमियाँ और वेहद बुराइयों थी। अगर गुलावके फलकी टेक, गुलावकी झाडीके काँटे, गुलावकी बुराइयाँ है तो वैसी उनमे अनगिनत वुराइयाँ थी । और गुलावके फूलकी झाडीके वह सूखे पत्ते जो पीले पड जाते हैं, कमियाँ है तो उनमे अनेको कमियाँ थी । अगर गुलावकी टेढी-मेढी बेढगी, बदसूरत जड़ें गुलावकी कमियां है तो ये सव उनमे थी। पर हम करे तो क्या करें, हमारी नजर तो गुलावपर है और हम उस गुलावपर इतने मस्त है कि उसे तोड़ते हुए हमारे सैकडो काँटे भी लग जाये तो भी अपनी मस्तीमे उस । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरण के अग्रदूत ३८० और हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम सेठीजीकी उस लगनको देखें जिसको लेकर वह पहले पहल धर्मके मैदान में कूदे, फिर समाजके मैदान - में आये और फिर देश के मैदान मे आये, या हम यह देखे कि वे क्या खाना खाते थे, किस तरह की टोपी लगाते थे या वे उस मकान में सोते थे, जिसका पश्चिमको तरफ दरवाजा था, उस मकान मे रहते थे, जिसका पूरवकी तरफ दरवाजा था, जो कॉटोका ही रोना रोते है वो न फूल पाना चाहते - हे और न फूल पाने की इच्छा रखते हैं । हम इसे मूर्खता ही समझते है कि फूल सूखकर जब उसकी पखुडियाँ गिरे, तब इस आधारपर फूलके वारेमे हम अपनी राय बतायें कि उसकी पखुडियाँ जगलमें गिरी थी, या किसी माधुकी कुटी गिरी थी, या मन्दिरमे किसी देवताकी वेदीपर गिरी थी, या राजाके महल में गिरी थी, आदमीके मरनेके वाद उस लाशको चील, वृद्ध खायें तो वही बात, जलाई जाय तो वही बात, दफनाई जाय तो वही वात और बहाई जाय तो वही बात । एक शोर है कि सेटीजी दफनाये गये और साथमे यह भी शोर है। "कि उनके दफनाये जानेकी जगहका ठीक पता नही है। अगर यह पिछली वात ठीक है तो वडे कामकी वात है क्योकि इस तरह मरनेके वाद नाम न छोडकर दफनाये जानेसे किसी दिन तो उन हड्डियोपर हल चलेगा और वहां खेती होगी और उससे जो दाने उगेगे उसे जो खायेगा उसमें वैसी - देश-भक्ति आये वगैर न रहेगी। सेठीजीको जो मौत मिली, मौके लिए दिल्ली के मशहूर कवि गालिब तक तरसते गये " रहिये व ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो । हमसुख़न कोई न हो, और हमजुबां कोई न हो ॥ वेदरोदीवार-सा इक घर बनाना चाहिए । कोई हमसाया न हो और पासवां कोई न हो ॥ पढिये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार । और अगर मर जाइये तो नौहाख्वां कोई न हो ॥" -- Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Inlepnee Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमेरचन्द एडवोकेट = गोयलीय = बाबू सुमेरचन्दजीके निधन-समाचार जिस मनहूस घड़ीमें मुझे सुननेको मिले, फिर ऐसी कुघडी किसीको नसीव न हो। यह अनहोनी वात जब उनके सम्बन्धीने मुझे बताई तो मानो शरीरको लकवा मार गया। में उसकी ओर हतबुद्धि वना-सा देखता रहा। समझमें नही आया कि मै उसका मुंह नोच लूं या अपना सिर पीट लूं । रुलाईसे गला रुंध रहा था, मगर घरवालोके भयसे खुलकर रो भी न सका । रातको कई वार नीद उचाट हुई, क्या वावू सुमेरचन्दजी चले गये? दिल इस सत्य वातको निगलनेके लिए तैयार नहीं होता था। मगर रह-रहकर कोई सुइयाँ-सी चुभो रहा था । और दिमागमें यह फितूर वढता जा रहा था कि वावू सुमेरचन्दजी अव देखनेको नहीं मिलेगे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमेरचन्द एडवोकेट खंडवा अधिवेशनके वाद ८ मई १९३८ को तो मुजफ्फरनगरकी मीटिंगमें वह आये ही थे । काश ! उस समय मालूम होता तो जी भरकर उन्हे देख लेता। मुझे क्या मालूम था कि मीटिगके बहाने उनके दर्शनार्थ कोई आन्तरिक शक्ति मुजफ्फरनगर खीचे ले जा रही है । मुजफ्फरनगरकी मीटिंगका सँभालना उन्हीका काम था। कन्धेपर हाथ रखकर जो-जो वाते सुझाई, वह सव आज रुलाईका सामान बन रही है। ___मै कहता हूँ यदि उन्हे इस ससारसे जाना ही था तो जैसे दुनिया जाती है, वैसे ही वे भी चले जाते । व्यर्थमें यह प्रीति क्यो वढानी थी। समाजने उनका दामन इसलिए नही पकड़ा था कि मझधारमें धोखा दिया जायगा। किसने कहा था कि वह इस झगडालू समाजको प्रीतिकी रीति वतायें, और जव प्रीतिकी रीति वताई ही थी तो कुछ दिन स्वय भी तो निभाई होती। सहारनपुर-जैसी ऊसर जमीनमे किस शानसे और किस कौशलसे परिषद्का अधिवेशन कराकर सुधारका वीजारोपण किया; और रुड़कीमें परिपद्के छठे अधिवेशनके सभापति होकर क्या-क्या अलौकिक कार्य किये? मैं यह कुछ नही जानता हूँ, मै पूछता हूँ परिषद्के वारहवे अधिवेशनके सभापति वनकर वह देहलीमे क्या इसीलिए आये थे कि इतना शोधू हमे यह दुर्दिन देखना नसीव होगा। यदि ऐसी बात थी तो क्यो वे सैकड़ों वार महगाँव-काडके सम्बन्धमें देहली आये? क्यो वह सतना, खडवा, लाहौर, फीरोजपुर, रोहतक, मुजफ्फरनगर, मेरठ, ग्वालियर आदि स्थानोमें परिषद्के लिए मारे-मारे फिरे ? यदि परिषद् उन्हें इस तरह छोडनी थी तो अच्छा यही था कि वह परिषद्का नाम भी न लेते और इसे उसी तरह मृतक-तुल्य पडी रहने देते । क्यों उन्होने देहली अधिवेशनमें आकर परिषद्म नवजीवन डाला, और क्यो सतना और खंडवामें पहुँचकर परिषद्की आवरूमें चार चांद लगाये ? वावू सुमेरचन्द अव नही है, वर्ना सब कुछ में उनका दामन पकडकर पूछता। मैने उन्हे सबसे पहली वार सन् ३५ मे जब देखा था, तब वह देहली Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३२ जैन-जागरण के अग्रदूत में परिषद् के वारहवें अधिवेशनके सभापति होकर आये थे । वा० सुमेरचन्दजी जितने बड़े आदमी थे, उतनी ही ज्ञानका देहलीवालोने उनका स्वागत किया था । देव- दुर्लभ जुलूस निकाला था । देहलीकी जनता में परिषद्-विरोधियोंने भ्रम फैलाया हुआ था, किन्तु यह सब वा० सुमेरचन्दजी के व्यक्तित्वका प्रभाव था, जो देहली- जैसे स्थानकी धार्मिक जनता, परिषद्की अनुयायी हो गई, और परिषद्को वह अभूतपूर्वं सफलता प्राप्त हुई जो इससे पूर्व परिषद्को तथा अन्य जैन सभाओको नसीब नही हुई थी । खडवा अधिवेशनमे जब विषय निर्वाचन समिति में मन्दिर - प्रवेश प्रस्तावपर बहस करते हुए हम मनुष्यत्व खो बैठे थे, तव बा० सुमेरचन्दजी किस शानसे मुस्कराते हुए उठे, और किस कोगलसे प्रस्तावका सशोधन करके परिषद्को मरनेसे बचा लिया था । वह सब आज आँखोमें घूम रहा है । वा० सुमेरचन्दजीने कितनी आरजू-मिन्नत करके परिषद्के आगामी अधिवेशनका निमन्त्रण स्वीकार कराया था । उनकी आँखो में कौन-सा जादू था, उनकी वाणीमें ऐसी क्या शक्ति थी कि अन्य सब स्थानोके निमन्त्रण वापिस ले लिये गये, और देहली प्रान्तका - ही निमन्त्रण सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ 1 वावू सुमेरचन्दजी बातके धनी, समयके पाबन्द धर्मनिष्ठ पुरुष थे । जो बात कहते थे, तोलकर कहते थे । क्या मजाल, उनकी बात काटी जाय, मीटिंग में बैठे हुए सबकी बात बच्चोकी तरह चुपचाप सुनते, बच्चोकी तरह हँसते, और जब वह बोलते तो बहुत थोडा बोलते । मगर जो "बोलते वह सव सूत्ररूप, वा मायने । हम कहते - "यह बात आपने पहिले ही क्यो न कह दी, व्यर्थ हमें बकवादका मौका दिया ।" वह खिलखिलाकर हँस पडते और हम उनकी इस सरलताकी ओर नतमस्तक हो जाते । वा० सुमेरचन्दजी सहारनपुरके सबसे बड़े वकील थे । उन्हें लखनऊ, इलाहावाद, आगरा, कानपुर-जैसे नगरोमे वकालतके लिए जाना पडता था । उनके कानूनी ज्ञानका लोहा प्रतिद्वन्द्वी भी मानते थे । मैने कभी आपकी त्यौरियोपर बल पड़ते हुए नही देखा | आपत्तिके समयमें भी उन्होने Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमेरचन्द एडवोकेट ४३३ साहसको नही खोया । ऐन मौकेपर जिन सहयोगियोने आपको धोका दिया, कभी उनके प्रति आपके हृदयमें अनादरने घर नही किया । उल्टा लोगोंके आगे उनकी बेबसीकी वकालत की और उनके अन्य उत्तम गुणोंकी प्रशंसा करके जनताकी दृष्टिमें आदरणीय ही बनाये रक्खा । बा० सुमेरचन्दजीको अपनी वकालतसे साँस लेनेको फुरसत न थी । मगर परिषद् के लिए कितना समय देते थे, यह परिषद्वाले जानते हैं । महमानवाज ऐसे कि घरपर कैसा ही साधारण-से- साधारण महमान आये तो उनके पाँवमें अपनी आँखें बिछा देते थे । अभिमान तो नामको भी न था। शायद ही उन्होंने अपनी उम्नमें किसी नौकरको अपशब्द कहे हों । " देहली अधिवेशन में सभापति पदसे आपने कहा था- "सज्जनो, आज हम अपने में एक ऐसे सज्जनको नही देख रहे है जिसने अपनी सेवाओसे हमारी समाजको सदैव के लिए ऋणी बना दिया है । इनका शुभ नाम श्रीमान, रायबहादुर साहब जुगमन्दरदासजी हैं। आज हमारे बीच आप नही है, अब तो स्वर्गीय रत्न बन चुके है। आपकी सेवाओका पूर्ण विवरण तो लिखा जाना कठिन है । में तो आपकी थोड़ी-सी भी कृतियोका उल्लेख नही कर सका हूँ । हाँ ! इतना तो अवश्य कह सकता हूँ कि आप जैनसमाजके एक असाधारण महापुरुष थे । आपके वियोगसे जैनसमाजकी जो क्षति हुई है, निकट भविष्यमें उसकी पूर्ति नही दीखती । आपकी उदार सेवाओके लिए समाजका मस्तक आपके आगे झुका हुआ है । क्या में यह आशा कर सकता हूँ कि उदार जैन समाज आपके उचित स्मारककी स्थापनापर विचार करेगी ।" में आज इतने दिनके बाद उक्त शब्दोकी कीमत समझ पाया हूँ । यह उनका संकेत किसी अनन्तकी ओर था । खंडवाकी स्वागतकारिणीने जुगमन्दर-सभा-स्थान बनाकर आपके शब्दोको मान दिया था । क्या मैं आशा करूं कि बा० सुमेरचन्दजीकी पवित्र स्मृतिमे जैन समाज कोई अलग स्मारकका आयोजन करेगी । बा० सुमेरचन्दजी कहनेको अव २८ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरणके अग्रदूत ४३४ इस नश्वर गरीरमें हमारे साथ नही है, मगर उनकी आत्मा, ऐसा मालूम होता है कि हमारे चारो तरफ मँडरा रही है । जिस दस्सापूजा-प्रक्षालकी अभिलाषाको लेकर वह खडवेसे आये थे और आते ही जिसमे वह जुट गये थे, क्या वह कार्य पूरा करके हम उनको इस अभिलाषाको पूर्ण करके उनकी आत्माको शान्ति प्रदान कर सकेंगे ? १ श्रा श्रन्दलीब मिलके करें श्राहो जारियां । तू हाय गुल पुकार पुकारूँ मैं हाय दिल || -- जैनसन्देश, आगरा १९३८ १ यह मेरा लिखा संस्मरण जैन सन्देशमें एक नामके लोभी सज्जनने अपने नामसे छपवा दिया था । -गोयलीय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म स्वर्गवास - बाबू अजितप्रसाद वकील नसीराबाद, १८७४ ई० लखनऊ, १७ सितम्बर १९५१ ई० Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म कथा वकील साहबने अपनी जीवनी स्वयं लिखकर एक बहुत बड़ी आवश्यकताकी पूर्ति की है। यह जीवनी 'अज्ञात जीवन' शीर्षकसे २०४२६ श्राकारके २४० पृष्ठोमें मुद्रित है। उसीपरसे हम यह संक्षिप्त सार दे रहे हैं। जाति-मद, कुल-मदकी भावना हेय है, किन्तु अपने पूर्वजोकी गौरवगाथा उत्साहवर्द्धक तथा शक्तिप्रद होती है। हमलोग क्षत्रियकुलोत्पन्न, राजा अग्रकी सतान, वीसा अग्रवाल, जिन्दल गोत्रीय है। रुईका व्यापार करनेसे रुईवाले सेठ कहलाते थे । व्यापार करतेकरते वैश्य कहलाने लगे। इधर चार पीढियोसे अग्रेजी सरकारकी चाकरी करनेसे वैश्य पदसे भी गिर गये और सेठके स्थानमे बावू कहलाने लगे। मै तो वकालतका व्यवसाय और सस्कृत भाषाका अभ्यास करनेसे अपनेको पण्डित कहलानेका अधिकारी समझता हूँ। मेरे चारो पुत्रोने भी वकालतकी उपाधि प्राप्त कर ली है । मेरी छोटी बेटी शान्ति और पोती शारदा दोनोने सस्कृत भाषामे एम० ए० की उपाधि प्राप्त कर ली है। मेरी कनिष्ठ पुत्र-वधू एम० ए० (Previous) पास है। मेरी वडी वेटीकी वेटी प्रेमलताने लन्दन विश्वविद्यालयसे वी० ए० (Hons) डिगरी प्राप्त की है। कर्मणा वर्णव्यवस्था सिद्धान्तानुसार हम लोग किसी प्रकारसे भी वनिये नही है।। हमारे पुरखा खास शहर दिल्लीके रहनेवाले थे । मेरे परपितामह सेठ चैनसुखदासजी नसीराबाद जा बसे थे। मेरे पितामह बनारसीदासजीका जन्म वही हुआ था। वही वे उच्च पदाधिकारी हुए और वही ३५ वर्षकी भरी जवानीमें १९५८ ई० मे उनका शरीरान्त हुआ। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावू अजितप्रसाद वकील मेरे दावा फ़ारसी विद्यामे निपुण और पारगत थे। मेरे पिताजी भी फ़ारसी भाषामे धाराप्रवाह नि संकोच वात कर लेते थे, और मैंने भी फारसीकी ऊंचे दरजेकी पुस्तके पढ़ी है। १८५७ के गदरसे कुछ पहिलेसे दादाजी, पिताजी और बुआजी दिल्लीमे रह रहे थे। वावाजी अकेले ही नसीराबादमे थे । गदर शान्त हो जानेपर उन्होंने दो आदमी लेने के लिए दिल्ली भेजे । लेकिन उनमेसे एक आदमी रास्तेमे मार डाला गया और दूसरा आदमी उन सवको लेकर वैलगाडीसे नसीरावादको रवाना हुआ। रास्तेमे एक मुसलमान सिपाही मिल गया। वह फरकनगरका रहनेवाला था, और यह जानकर कि दादीजी फरकनगरकी बेटी है, वह गाड़ीके साथ-साथ पैदल चलने लगा। आगे चलकर कुछ डाकुओने गाड़ी घेर ली। सिपाहीने ललकारा"जब तक में जिन्दा है गाड़ीपर हाथ न डालना।" उसने डाकुओसे वातचीत की और उनसे कहा कि यह मेरे गांवकी बेटी है । मै थक गया हूँ। तुम लोग ऐसा वन्दोवस्त कर दो कि यह अपनी सुसराल नसीरावाद सही-सलामत पहुँच जाय ।" और दादीजी सकुशल नसीरावाद पहुंचा दी गई। वावाजीके देहान्तके वाद मेरी दादी, पिताजी और माताजीको लेकर दिल्ली आ गई थी। पिताजीका प्रारम्भिक शिक्षण उस जमानेके रिवाजके अनुसार फारसीम हुआ। दिल्लीमे आकर उन्होने घरपर अग्नेजी पढी। फिर स्कूलमे भर्ती हो गये। १८६५ ई० मे वे एण्ट्रेस परीक्षामे उत्तीर्ण हुए और जुलाई १८६५ मे गुरुसराय तहसील (जिला झांसी) में अंग्रेजी भाषाके अध्यापक हुए। फिर अगस्त १८६७ मे शिमले में ४० २० मासिकपर सहायक अध्यापक नियत हुए, एक वर्ष वाद ५ रु० वेतन-वृद्धि हुई। शिमलेमे स्कूलके अतिरिक्त पिताजी सेनाके अग्रेजोको उर्दूका अध्ययन भी कराया करते थे और २० रु० मासिक प्रति घण्टेके हिसावसे वेतन लेते थे। १८७७ ई० में उन्होने वकालतकी परीक्षा दी, किन्तु Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरण के अग्रदूत ४३८ पास नही हुए । १८७७० मे ३०-३५ वर्ष पीछे दिल्लीके बाजारोमे रयोत्सव करनेका सोभाग्य जैनियोको प्राप्त हुआ । अधिकतर विघ्नबाधा हमारे अग्रवाल वैष्णव भाइयोने उपस्थित की थी। उनका सरदार रम्मीमल arat था। दिल्लीके डिप्टी कमिश्नर कर्नल डेविसने जैनियोकी विशेष सहायता की ओर अन्तत. गवर्नर गर लेपिल ग्रिफनसे स्वीकृति प्राप्त हुई। इस कार्य में पिताजीने अग्रभाग लिया था । रथोत्सवके शान्ति - पूर्वक प्रबन्धकी जिम्मेदारी ११ जैनियो और ११ वैष्णवोपर रक्खी गई थी । पिताजी उन ११ व्यक्तियोमे थे । प्रवन्धके लिए करनाल, पानीपत, अम्बाला और रोहतक से भी पुलिस बुलाई गई थी । घण्टो पहले से retreat asकोपर अन्य सडको मिलानके मार्ग बन्द कर दिये गये थे। कोतवालीके सामने रेलसे उतरे हुए सैकडो जैनी पुलिसकी रोकसे विह्वल हो रहे थे । पिताजी यह देखकर कर्नेल डेविसके पास गये । उन्होने पिताजीकी जिम्मेदारीपर नाका खोल देनेकी परवानगी दे दी । उत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ । मेरा जन्म नसीराबाद में वैसाख कृष्ण ४, सवत् १९३१ सन् १८७४ को सूर्योदय समय हुआ । मेरे जन्मसे पहले ४ भाई-बहन गुजर चुके थे । इस कारण मेरे नानाजीके आग्रहसे मेरा जन्म उन्होंके घर हुआ । छठीके कुछ दिन पीछे ही मेरे दोनो कान छेदकर बाली पहना दी गई थी, दोनो हाथो में कडे भी । उन दिनो किरासन तेलका किसीने नाम भी नही सुना था । सरसो - के तेलसे दीपकका प्रकाश होता था । सोते समय दीपक बुझा दिया जाता था । एक रात सोते समय मेरे हाथका कडा कानको वालीमे अटक गया । ज्योज्यो में हाथ सोचता था, कान वालीसे कटता जाता था और मै जोरजोर से चिल्लाता जाता था । दीपक जलाया गया. तो पता चला कि कान कट गया है और खून बह रहा है । वाये कानकी लौ अव भी इतनी कटी हुई है कि उसमें सुरमा डालनेकी सलाई आरपार जा सकती है । इस " Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावू अजितप्रसाद वकील ४३९ घटनाके कारण नानाजीने मेरा नाम बूची (कनकटा) रख दिया। ___ करीब दो वर्षकी उमरमें पिताजीके साथ मै दिल्ली चला आया। उन दिनों चेचकका जोर था। मुझे भी चेचक निकली। शुभ कर्मोदयसे वच गया। चेहरेपर चेचकके दाग अवतक मौजूद है। चेहरे और वदनका रग भी मैला हो गया, गोरापन जाता रहा । अत मेरा नाम कल्लू पड़ गया। मिडिल परीक्षाके प्रमाणपत्रमे भी मेरा नाम कल्लूमल लिखा हुआ है। १८८७ मे नवी कक्षामें दाखिल कराते समय मेरा नाम अजितप्रसाद लिखवाया गया। मेरी माताजीका १८८० में क्षयरोगसे शरीरान्त हो गया। रातभर पिताजी मुझे छातीसे लगाये नीचे बैठकमें लेटे रहे और दादी आदि रोतीपीटती रही। सालभरके बाद ही दादीजीके विशेष आग्रहपर पिताजीका पुनविवाह हो गया। विमाता मूर्ख, अनपढ, सकीर्णहृदया थी। पिताजी का प्रेम उसने मुझसे वटवा लिया। एक बार कुतुब मीनार देखने गये। पिताजी, भाभी (विमाता) को पीठपर चढाके ऊपर ले गये। मै रोता हुआ साथ गया कि मैं भी पद्धी चढुंगा, भाभीको उतार दो। पिताजीने थोडी दूर मुझे भी चढा लिया और फिर भाभीको चढा लिया । मुझे इससे दुख हुआ। फिर पिताजीकी वदली रुड़की हो गई । रातको रोज मै पिताजी से चिमटकर सोता । लेकिन आँख लगते ही मेरी जगह भाभी ले लेती। दिनकी दुपहरीमे भी इसी बातपर तकरार होती। कुछ अरसे वाद दादी जी दिल्लीसे आ गईं, तब मुझे मॉका प्यार नसीब हुआ, किन्तु दादीके साथ भी भाभीका वर्ताव ठीक नही रहता था। किसी-न-किसी वातपर आठवें-दसवे दिन दादी-पोते रो लेते थे। दादीजीको मरते दमतक चैन न मिला। बचपनमे दादीजीके साथ रहनेसे मेरे जीवनपर धार्मिक क्रियाओका गहरा प्रभाव पड़ा, और उस प्रभावसे मुझे अत्यन्त लाभ हुआ। मैं उनके Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैन-जागरण के अग्रदूत साथ हर रोज दर्शन करने जाता था । सन् १८९३ मे बी० ए० की परीक्षामे भी मै फर्स्ट आया । मुझे afर्नंग कॉलेज गोल्ड मेडल मिला। मेरा नाम १८६३ की स्नातकसूची में स्वर्णाक्षरोमे कॉलेज हालमें लिखा गया था । उन दिनो आई० सी० एस० की परीक्षा भारतमे नही होती थी । पिताजीके पास इतना धन नही था कि वे मुझे लन्दन भेज सकते। उनकी अनुमतिसे वम्बई गया और सेठ माणिकचन्दजीसे मिला, किन्तु छात्रवृत्ति प्राप्त न हो सकी । लाचार भारतमें ही रहकर १८६४ में एल् एल० वी० और १८६५ में एम० ए० को परीक्षा पास की। मुझे थियेटर देखनेका व्यसन था, किन्तु परीक्षाकी तैयारीमे न देखनेका दृढ सकल्प कर लिया था, और उसे अन्त तक निभाया । अप्रैल १८६५ में ५००रु० के स्टाम्पपर मैने हाईकोर्ट अलाहावादसे वकालत करनेकी अनुमति प्राप्त कर ली । लेकिन मुझे वहाँ एक भी मुकदमा नही मिला । कुछ दिनो बाद लखनऊ चला आया, और १०रु० किराये के मकान में रहने लगा। एक मुशी भी रख लिया । यहाँ मुझे काम मिलने लगा । और ३-४ वर्षके बाद कचहरीमें नाम फैलने लगा । १९०१ में मैने रायवरेलीकी मुन्सिफीका पद ग्रहण किया । १९०६ ई० में ६२ वर्षकी उम्र में मेरे घुटनेपर सिर रखे हुए पिताजीका प्राणान्त हो गया । रायबरेलीमें तीन माह मुन्सिफी करनेके वाद में लखनऊ वापिस आ गया, और प्रयत्न करनेपर में सरकारी वकील हो गया । १६१६ में १५ बरस तक सरकारी वकालत करते-करते में उकता गया । सरकारी वकीलका वेतन उस समय २५ रु० प्रतिदिन था। सरकारी वकालतके १६ वरसके समयमें मेरा सतत उद्देश्य यही रहा कि मैं अन्याय या अत्याचारका निमित्त कारण न हो जाऊँ । मैने कभी गवाहोको नही सिखाया, न ऐसी गवाहीपर जोर दिया जो मेरी समझमें झूठ थी। सरकारी वकीलका कर्तव्य है कि प्रजाके साथ न्यायपूर्वक व्यवहारमें सहायक हो । वह पुलिसका वकील नही है, जैसा लोग साधारणतया समझते Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ । वाबू अजितप्रसाद वकील है। मेरा यह भी प्रयल रहा कि दैनिक फीस २५ रु० के वजाय ५० रु० कर दी जाय, किन्तु असफल रहा। आखिर असन्तुष्ट होकर १९१६ ई० में मैने त्यागपत्र दे दिया। सन् १९१० में मै आल इण्डिया जैन एसोसियेगनके वार्षिक अधिवेशनका अध्यक्ष निर्वाचित होकर जयपुर गया। पं० अर्जुनलाल सेठी वी० ए० ने 'जन-शिक्षण-समिति' स्थापित कर रखी थी। एक आदर्श सस्था थी। श्री दयाचन्द गोयलीय छात्रालयके प्रवन्धक और समितिमें अध्यापक भी थे। श्री गेन्दनलाल सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट वोर्ड रुड़की तथा भगवानदीनजी असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर, दिल्ली-निवासी जगन्नाथ जौहरी, भाई मोतीलाल गर्गसे भी वहाँ मिलना हुआ और सर्वसम्मतिसे यह निश्चय हुआ कि एक ब्रह्मचर्याश्रमकी स्थापना की जाय । परिणामस्वरूप पहली मई १९११, अक्षयतृतीयाके दिन हस्तिनागपुरमें श्री ऐलक पन्नालालजीके आशीर्वादपूर्वक "श्री ऋषभब्रह्मचर्याश्रम"की स्थापना हुई। अक्षयतृतीयाकी पुण्यतिथिमें राजा श्रेयांसने हस्तिनागपुरमें एक वर्पके उपवासके पश्चात् भगवान् ऋषभदेवको इक्षुरसका आहार दिया था। ___ भगवानदीनजीने नौकरीसे त्यागपत्र देकर २६ वर्षकी आयुमें ही आजन्म ब्रह्मचर्य्यव्रत ले लिया। तीन बरसके इकलौते बेटेको आश्रमका ब्रह्मचारी बना दिया। उनकी पत्नी वम्बई श्राविकाश्रममें चली गई । अधिष्ठाता पदका भार भगवानदीनजीने स्वीकार किया। मत्रिपद मुझे दिया गया। हस्तिनागपुर मेरठसे २६ मील दूर है। १६ मील घोडागाड़ीका रास्ता था, शेष ७ मील वैलगाडीसे या पैदल जाना पड़ता था। तीन दिनकी छुट्टीमें मै भी चला जाया करता था। सरकार उन दिनो ऐसी सस्थाओको सन्देहकी दृष्टि से देखती थी। जहाँतक मुझे मालूम हुआ एक पुलिसका जासूस आश्रममें अध्यापकके रूपसे लगा हुआ था। जैन-समाजके पडिताई पेशेवर और धनिकवर्गको भी आश्रमके कार्यमें पूर्ण श्रद्धा नही थी । परिणाम यह हुआ कि ४ वरस पीछे मुझको Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - जागरणके अग्रदूत और भगवानदीनजीको त्याग-पत्र देना पडा और एक-एक करके गेन्दनलालजी, व्र० सीतलप्रसादजी, भाई मोतीलालजी, जौहरी जगन्नाथजी, बाबू सूरजभानजी आदि सभी आश्रमसे हट गये । नामको वह आश्रम अव भी मथुरानगरके चौरासी स्थानपर चल रहा है, किन्तु जो बात सोची थी, वह असम्भव हो गई । ४४२ दृष्टान्तरूप इतना लिखना अनुचित न होगा कि जब मैने त्यागपत्र दिया, उस समय ६० ब्रह्मचारी आश्रममें थे । शिक्षणका प्रभाव उनपर इतना था कि एक दिन सबके साथ में भोजन करने बैठा । सव ब्रह्मचारी साधारणतया भोजन कर चुके, मुझसे खाया ही नही गया । तव भगवानदीनजीने नमक दाल-श - शाकमें डाल दिया । फिर तो मैने भी भोजन कर लिया। भगवानदीनजीने बतलाया कि बालकोके मनमें यह दृढ श्रद्धा है कि भोजन स्वादके लिए नही, बल्कि स्वास्थ्यके लिए किया जाता है, जो भोजन अघिठाताजी देंगे, अवश्य स्वास्थ्यप्रद होगा । समस्त विद्यार्थी अपने जूठे बर्तन स्वय मांजते, स्वय कुएँसे पानी भरते, अपने वस्त्र स्वय धोते थे, और आज्ञाकारी इतने थे कि भगवानदीनजीका इशारा पाते ही एक लडका कुऍमें कूद गया, रस्सेसे उसे तुरन्त बाहर निकाला गया । एक वालक उस वियावान जगलमें ५-६ मीलकी दूरीसे आदेश मिलनेपर अकेला ही आश्रम पहुँच गया । बालक निर्भीक, विनयी और आज्ञाकारी थे । १९१० ई० में लखनऊ में मकान बनवाया । अजिताश्रम उसका नाम रखा गया । १९११ में गृहप्रवेशके अवसरपर भारत - जैन - महामण्डलकी प्रवन्धकारिणीका अधिवेशन हुआ । फिर १९१६ में महामण्डल और जीवदया सभाके विशाल सम्मिलित अधिवेशन हुए । अजिताश्रमका सभामण्डप सजावट में लखनऊभरमें सर्वोत्तम था । सभाध्यक्ष प्रख्यात पत्रसम्पादक मि० बी० जी० होनमैन थे। वक्ताओ में महात्मा गाधी भी थे | अधिवेशनमें उपस्थिति इतनी अधिक थी कि छतो और वृक्षोपर भी लोग चढे हुए थे । सामनेकी सडक रुक गई थी, खडे रहने को भी कही Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू अजितप्रसाद वकील ४४३ जगह न थी। श्री सम्मेदशिखर, गोम्मटेश्वर, गिरनारजी आदि तीर्थोकी भक्तिपूर्वक वन्दनाएँ की। १९१० में गोम्मटेश्वर स्वामीका महामस्तकाभिषेक था। उस ही अवसरपर महासभाके अधिवेशनका भी आयोजन किया गया था। प० अर्जुनलाल सेठी, महात्मा भगवानदीन भी पधारे थे। एक रोज महात्माजीने एक चट्टानपर अर्घ रख दिया, दूसरे दिन देखा कि वहाँपर सामग्रीका ढेर चढा हुआ है। वह स्थान पूज्य मान लिया गया। जनता अन्धश्रद्धासे चलती है, विचार-विवेकसे काम नही लेती। एक दिन यह चर्चा चली कि यात्राके स्मारक रूप कुछ नियम सवको लेना चाहिए। भगवानदीनजीने कहा कि सब लोग गालीका त्याग कर चलें, गालीका प्रयोग बुरा है । लेकिन इस कुटेवका ऐसा अभ्यास पड़ गया है कि किसीकी भी हिम्मत नहीं हुई कि गालीका यावज्जीवन त्याग कर दे। अन्तत. सबने यह नियम लिया कि जहाँतक वनेगा, गालीका प्रयोग न करेंगे। यदि करे तो प्रायश्चित्तस्वरूप दण्ड लेंगे। उस नियमका परिणाम अच्छा हुआ। जव कभी ऐसा अशुभ अवसर आता है तो मैं उस दिनकी वार्ताको याद कर लेता हूँ और कषायावेगको रोक लेता हूँ। परिणामशुद्धिरूप त्याग, खाने-पीनेको वस्तु-त्यागसे कई गुना अच्छा और पुण्याश्रवका कारण है, किन्तु ऐसी प्रथा चल पड़ी है कि त्यागीवर्ग तथा साधुवर्ग गृहस्थोसे खाने-पीनेकी वस्तुओका ही त्याग कराते है। यदि कषायका त्याग कराएँ तो जैनसमाज और जैनधर्मका महत्त्व संसार में फैल जाय, महती धर्मप्रभावना हो। गिरनारजीसे हम लोग वम्वई आये, रास्तेमे गुरुवर्य वादिगजकेसरी पं० गोपालदासजी वरैया, प० माणिकचन्द कौन्देय, खूबचन्द, देवकीनन्दन, वंशीधर (शोलापुरवाले), मक्खनलालजीका भी साथ हो गया था। हमारे स्वागतके लिए स्टेशनपर वम्बईके प्राय सभी दि० जैनसमाजके प्रतिष्ठित सज्जन उपस्थित थे। प्लेटफार्मपर लाल बन्नात विछाई गई थी। मुख्य बाज़ारोमेसे जुलूस निकाला गया। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके श्रग्रदूत २८ दिसम्बर १९१२ को बम्बई प्रान्तिक सभाकी पहली बैठक शुरू हुई । प० धन्नालालजीने मगलाचरण किया । सेठ हीराचन्द नेमिचन्दके प्रस्ताव करनेपर में सभापति चुना गया । मैने अपने भाषण मे जातिभेद-सम्वन्धी कुछ बाते कही तो कुछ सभासद् ऐसे बिगडे कि उन्हे शान्त करना दुप्कर हो गया । मूर्खताके सामने बुद्धिको हारना पडा और अल्पजनमतने बहुमतको दवा लिया | केवल दस-बीस महात्माओने ऐसा हुल्लड मचाया कि उस दिनकी सभाका कार्य समाप्त कर देना पडा । बादमें मालूम हुआ कि वाहरके सेठ लोगोकी तरफसे दो गुप्तचर भेजे गये थे और उन्हीकी कृपाकटाक्षसे यह सब कार्य्य हुआ । उन्होने बाज़ी - मार लेनेका तार उसी रोज दे दिया था । अन्ततः इस अधिवेशनमे सफलता अवश्य प्राप्त हुई । जो लोग अशान्ति उठानेवाले थे, और जिन्हें कुछ वाहरसे आये हुए महात्माओने वहकाकर उत्तेजित किया था, उन्होने पीछेसे पश्चात्ताप किया और उनमेंसे कई भाइयोने मेरी विदाईके समय स्टेशनपर आकर प्रेमपूर्वक विदाई दी । प० अर्जुनलाल सेठीको नजरबन्दीसे मुक्त करानेमे मैने १९१३ से १९२० तक निरन्तर प्रयत्न किया । व्र० सीतलप्रसाद, वैरिस्टर जगमन्दरलाल तथा महात्मा गाधीने पर्याप्त सहयोग दिया, कोशिश की । मेरा विवाह बाल्यावस्थामे ही कर दिया गया । माताजीके मरने के कुछ दिन बाद छह वरसकी उमरमे ही मेरी सगाई हो गई । पत्नी मुझसे डेढ वरस छोटी थी । हम दोनो नई मन्दिरकी जनानी ड्योढोके मैदानमे अनारके वृक्षके नीचे अनारकी कलियाँ चुन-चुनकर खेला करने थे । विवाह छह वरस पीछे हुआ । विद्योपार्जनका शौक मुझे वचपनसे था । अपनी कक्षा में सर्वोच्च रहता था । विवाहके समय १२ वरसका था । विषयवासना जागृत नही हुई थी । एड्रेस परीक्षा उत्तीर्ण हो चुका था । मई १८८६ में पत्नी दिल्ली से लखनऊ आई । सहवासके लिए मुझे और उसे लैम्प जलाकर कमरे में चन्द कर दिया गया। वह लैम्पके पास बैठी रही, में पलगपर लेटा रहा। हाथ ४४४ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ वावू अजितप्रसाद वकील में लघुसिद्धान्तकौमुदी थी, व्याकरणके सूत्रोकी पुनरावृत्ति कर रहा था। न में पत्नीके पास गया, न वह मेरे पास आई । उसने कई दफा वाहर जानेको दर्वाजा खटखटाया, और आखिर दर्वाजा खोल दिया गया। इस तरहके बरावर प्रयत्न किये गये, परन्तु हम आपसमे वार्तालाप तक नहीं करते थे। ___ सहधर्मिणीका स्वास्थ्य प्रवल था। ३१ वरसके वैवाहिक जीवनमे छह वच्चोकी जननी होनेपर भी उसको कभी हकीम, वैद्यकी आवश्यकता नही पडी। धार्मिक क्रियाकाण्डमें उसका गहरा श्रद्धान था। निर्जल उपवास महीनेमे एक-दो हो जाते थे। कभी-कभी निरन्तर दो दिनका निर्जल उपवास हो जाता था। और भी अनेक नियमोका पालन करती थी। पतली दवाका तो आजन्म त्याग था, केवल सूखी दवाकी छूट रखी थी, जिसके प्रयोगका कभी अवसर नही आया | १६१८ की अप्टाह्निकामे दो रोज़का उपवास करनेके बाद उसे हैजा हो गया और लाख प्रयत्न करने पर भी न बच सकी। गृहिणीके देहान्तके पहले ही मैने सरकारी वकालतसे तो त्यागपत्र दे दिया था। उसके देहान्तपर सव कानूनी पुस्तके तथा असवाव नीलाम करके दोनो कोठियाँ वेचकर, काशीवासके अभिप्रायसे वनारस चला गया। ___ काशी-स्याद्वाद-विद्यालयकी प्रवन्धकारिणी समितिका सदस्य मै उसकी स्थापनाके समयसे बरसो तक रहा। जो वालक वहां भर्ती होते थे, उनको भोजन, वस्त्र, विना दाम मिलते थे, और पढ़ाई निःशुल्क थी ही। फिर भी कुछ विद्यार्थी ऐसी सकीर्ण प्रवृत्तिके थे कि समाजके प्रतिष्ठित सज्जनोसे गुप्त पत्र लिखकर आर्थिक सहायता प्राप्त कर लेते थे। इस व्यवहारसे महाविद्यालयकी मह्मिामे वट्टा लगता था। एक सज्जनने कितने ही कपड़ेके थान भेंट किये । कमेटीने विद्यार्थियोंके वस्त्र एक प्रकारके वनवा देनेका प्रस्ताव किया। इसपर विद्यार्थियोने विद्रोह मचा दिया कि हम सिपाहियोकी-सी वर्दी नही पहनेंगे। हम अपने मनका Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जैन-जागरणके अग्रदूत कपडा और अपनी पसन्दकी काटका वस्त्र बनवायेंगे। विद्यार्थियोमे यह भी कुटेव थी कि रसोईके समय अपनी-अपनी ' घीकी हाँड़ी लेकर जाते थे । कमेटीने निश्चय किया कि घी विद्यार्थियोके पास न रहे । सब घी दालमे रँघते समय डाल दिया जाय और रूखी रोटी परसी जाये । इसपर भी विद्रोह बढ गया। उद्दण्डताके कारण कुछ विद्यार्थियोको विद्यालयसे पृथक् करना पड़ा। मामला फिर कमेटीके सामने पेश हुआ। मैने इसपर प्रवन्ध-समितिसे त्यागपत्र दे दिया। जैन जातिके विद्यार्थियोने महाविद्यालयको गिराकर अनाथालय-सा वना दिया है, और इसी कारण कोई प्रतिष्ठित सज्जन अपने वालक इस जैनसस्थामें पठनार्थ नही भेजते।। १७ नवम्बर १९२२ को लखनऊसे दिल्ली पहुँचा । पचायती मन्दिरको पञ्चकल्याणक-प्रतिष्ठाके अवसरपर महासभाको निमन्त्रित करनेका प्रस्ताव मैने जोरसे भाषण देकर स्वीकार करा लिया, किन्तु मुख्य नेता, अधिकारप्राप्त पुरुषोका सहयोग नहीं मिला। महासभाके अधिवेशनमें तुरन्त सदस्यपत्र भरवाकर सदस्य बना लिये गये । वैरिस्टर चम्पतरायजीके जैनगजट (हिन्दी) के सम्पादक होनेके प्रस्तावका समर्थन करनेको लाला देवीसहाय फीरोजपुर खडे हुए। उनको एक महाशयने पकडकर विठा दिया और अनियमित अनिधिकार बहुमतसे एक पण्डितपेशा महाशयको सम्पादक बनानेका प्रस्ताव पास करा लिया। ऐसी खुली धाँधली देखकर कितने ही सदस्य उठ खडे हुए और दूसरे मण्डपमें एकत्र होकर भारतवर्षीय दि० जैन परिषद्को स्थापना की। प्रथम अध्यक्ष रायवहादुर सेठ माणिकवन्दजी सेठी झालरापाटनवाले निर्वाचित हुए। ७० सीतलप्रसादजीने सदस्य-सूचीपर प्रथम हस्ताक्षर किये। तीर्थक्षेत्र-कमेटीकी स्थापना जैनसमाजके वास्तविक दानवीर सेठ माणिकचन्दजीने की थी। वे स्वय उसके महामन्त्री थे। रोजाना कार्यालयमें आकर ४-५ घण्टे कार्य करते थे। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावू अजितप्रसाद वकील ४४७ ७ मार्च १९१२ को श्वेताम्बर जैन-सघकी ओरसे दिगम्बर जैनसमाजके विरुद्ध हजारीबागकी कचहरीमें नालिश पेश की गई । उनका दावा था कि सम्मेदशिखरजी निर्वाणक्षेत्रस्थित--टौक, मन्दिर, धर्मशाला सब श्वेताम्बर सघ द्वारा निर्मित हुई है। दि० जैनियोको श्वेताम्बर सघकी अनुमतिके बिना प्रक्षाल-पूजा करनेका अधिकार नही है, न वह धर्मशालामें ठहर सकते है। इस मुकदमे में उभयपक्षके कई लाख रुपये व्यर्थ व्यय हुए ! १६१७ में मै और भगवानदीनजी काग्रेस अधिवेशनके अवसरपर कलकत्ते गये और वहाँ महात्मा गावीसे मिलकर निवेदन किया कि आप इस मुकदमेबाजी और मनोमालिन्यका अन्त करा दे। महात्मा गाधीने हमारी प्रार्थना ध्यानसे सुनी और मामलेका निर्णय करना स्वीकार किया, और कहा कि चाहे जितना समय लगे, मै इस झगड़ेका निवटारा . कर दूंगा; किन्तु उभयपक्ष इकरारनामा रजिस्ट्री कराके मुझे दे दे कि मेरा निर्णय उभयपक्षको नि सकोच स्वीकार और माननीय होगा। हम दोनो कितनी ही वार रायवहादुर बद्रीदासजीकी सेवामें उनके निवासस्थानपर गये और उनसे प्रार्थना की कि वह श्वेताम्बर समाजकी ओरसे ऐसे इकरारनामेकी रजिस्ट्री करा दें। हम दि० समाजसे रजिस्ट्री करा देनेकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते है। लेकिन उन्होने वातको टाल दिया और मेल-मिलापके सव प्रयत्न व्यर्थ हुए। परिणामत जैनसमाजके प्रचुर द्रव्यका अपव्यय और पारस्परिक मनोमालिन्यकी वृद्धि हुई। वकील और पैरोकार-मुख्तार अमीर हो गये। मैने ७ वर्षतक १९२३ से १६३० तक तीर्थक्षेत्र कमेटीका काम किया। ४६,००० रु० मेरे नामसे तीर्थक्षेत्र कमेटीकी वहीमें दान खाते जमा है। १९२६ में काकोरी षड्यन्त्रका मुकदमा चला। मैने रामप्रसाद विस्मिलकी नि शुल्क वकालत की। मैने उसे सलाह दी कि वह काकोरी डकैती करना और क्रान्तिकारी दलका सदस्य होना स्वीकार कर ले। मै उसे प्राणदण्डसे वचा लंगर; क्योकि उसने किसी भी डकैतीमें किसी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासभा के जन्मदाता वंश - परिचय श्री गुलाबचन्द्र टीग्या राजा लक्ष्मणदासजीके पूर्वज श्री जिनदासजी, जयपुर राज्यान्तर्गत मालपुरा गाँवके रहनेवाले थे । आर्थिक स्थिति ठीक नही होनेके कारण जिनदासजीके दोनो पुत्र -- फतहचन्दजी, मनीरामजी, - जयपुर चले गये । लेकिन वहाँकी भी व्यावसायिक स्थिति से मनीराम - जैसे महत्त्वाकाक्षी परिश्रमी युवकको सन्तोष नही मिला । उनका उद्योगी स्वभाव किसी विशाल क्षेत्रमें कुलांचे भरनेको उतावला हो उठा । उन दिनो यातायातमें अनेक विघ्न वाधाओ और आपदाओका मुकाबिला करना पडता था । कोई साहसी युवक घरसे बाहर पाँव रखनेका प्रयत्न करता भी था तो उसके पाँवोमें मोह-ममताकी ज्रजीर इस तरह डाल दी जाती थी कि वह छटपटाकर रह जाता था। लेकिन मनीरामजी स्वभावत. स्वावलम्बी और इरादेके मजबूत थे, उनके पथ में यह सब विघ्न-बाधाएँ क्या आड़े आती ? ने जयपुरसे अज्ञात दिशाकी ओर निकल पड़े । "जो बाहिम्मत हैं उनका रहमते हक साथ देती है । क्क़दम ख़ुद आगे बढके मंज़िले मकसूद लेती है ॥" - गोयलीय भाग्यकी बात, जिस धर्मशालामें मनीरामजी विश्राम कर रहे थे, उसीमें सेठ राधामोहनजी पारिख मृत्युशय्यापर पडे हुए छटपटा रहे थे । स्वार्थी नोकर सामान लेकर चम्पत हो गये थे । राज्य-सम्मानित और धनिक होते हुए भी निरीह और लाचार बने मृत्युकी घडियाँ गिन रहे थे । उनकी यह स्थिति देखकर मनीरामजीका दयालु हृदय द्रवित हो उठा । पारिखजी जिस शोचनीय अवस्थामें पडे हुए थे, उन्हें देखकर किसी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत हमने ला० जम्बूप्रसादजीको नही देखा, पर इस सारी स्थितिकी हम सही-सही कल्पना करते हैं, तो एक दृढ आत्माका चित्र हमारे सामने आ जाता है । आँधियोंमें अकम्प और सघपोंमें शान्त रहनेवाली यह दृढता, परिस्थितियोकी ओर न देखकर, लक्ष्यकी ओर देखनेवाली यह वृत्ति हो वास्तव में जम्बू प्रसाद थी, जो लाला जम्बूप्रसाद नामके देहके भस्म होनेपर भी जीवित है, जागृत है, और प्रेरणाशील है । इस तस्वीरका एक कोना और हम झांक लें। अवतक देखे तीनो गहरे रंग है, दृढताके और अकम्पके, पर चौथे कोनेमें वडे 'लाइट कलर' है-हल्के-हल्के झिलमिल और सुकुमार । धर्मके प्रति आस्था जीवनके साथ लिये ही जैसे वे जन्मे थे । कॉलेज में भी स्वाध्याय- पूजन करते और धर्म कार्योंमें अनुरक्त रहते । कॉलेजमें उन्हें एक साथी मिले ला० धूर्मासिंह । ऐसे साथी कि अपना परिवार छोडकर मृत्युके दिन तक उन्हीके साथ रहे । ला० जम्बूप्रसादके परिवारमें इसपर ऐतराज़ हुआ, तो वोले- में यह स्टेट छोड सकता हुँ, धूर्मासिंहको नही छोड सकता, और वाकई जीवनभर दोनोने एक दूसरेको नही छोडा । दत्तक पुत्रोका सम्बन्ध प्राय अपने जन्म परिवारके साथ नहीं रहता, पर वे बराबर सम्पर्क में रहे और सेवा करते चल । अपने भाईकी बीमारीमें १०० रु० रोजपर वर्षो तक एक विशेषज्ञको रखकर, जितना खर्च उन्होने किया, उसका योग देखकर आँखें खुली ही रह जाती है ' १९२१ में, अपनी पत्नीके जीवनकालमें हो आपने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था और वैराग्यभावसे रहने लगे थे। अप्रैल १९२३ में वे देहलीकी विम्वप्रतिष्ठामें गये और वहाँ उन्होने यावन्मात्र वनस्पतिके आहारका त्याग कर दिया | जून १९२३ में उन्होने अपने श्रीमन्दिरकी वेदीप्रतिष्ठा कराई और इसके बाद तो वे एकदम उदासीन भावसे सुख-दुख में समता लिये रहने लगे । आरम्भसे ही उनकी रुचि गम्भीर विषयोके अध्ययनमें थी - कॉलेज में वी० ए० में पढते समय, लॉजिक, फिलासफी और संस्कृत साहित्य ५२६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ जम्वूप्रसाद ५२७ उनके प्रिय विपय थे। अपने समयके श्रेष्ठ जैन विद्वान् श्री पन्नालालजी न्यायदिवाकर सदैव उनके साथ रहे और लालाजीका अन्तिम समय तो पूर्णतया उनके साथ शास्त्रचर्चा में ही व्यतीत हुआ। उनकी तेजस्विता, सरलता और धर्मनिष्ठाके कारण समाजका मस्तक उनके सामने झुक गया और समाजने न सिर्फ उन्हें 'तीर्थभक्तशिरोमणि' की उपाधि दी, अपना भी शिरोमणि माना । अनेक संस्थाओके वे सभापति और सचालक रहे और समाजका जो कार्य कोई न कर सके, उसके करनेकी क्षमता उनमें मानी जाने लगी। समाजकी यह पूजा पाकर भी, उनमें पूजाकी प्यास न जगी। उन्होने जीवनभर काम किया, यशके लिए नही, यह उनका स्वभाव था, विना काम किये वे रह नहीं सकते थे। उनकी मनोवृत्तिको समझनेके लिए यह आवश्यक है कि हम यह देखें कि सरकारी अधिकारियोके साथ उनका सम्पर्क कैसा रहा? उनके नामके साथ, अपने समयके एक प्रतापी पुरुष होकर भी, कोई सरकारी उपाधि नही है। इस उपाधिके लिए खुशामद और चापलूसीकी जिन व्याधियोकी अनिवार्यता है, वे उनसे मुक्त थे। उनके जीवनका एक क्रम था-आज तो सरकारी अधिकारी ही अपने मिलनेका समय नियत करते है, पर उन्होने स्वय ही सायकाल ५ वजेका समय इस कार्यके लिए नियत कर रक्खा था। ज़िलेका कलक्टर यदि मिलने आता, तो उसे नियमको पाबन्दी करनी पड़ती, अन्यथा वह प्रतीक्षाका रस लेनेके लिए बाध्य था । लखनऊ दरवारमें गवर्नरका निमन्त्रण उन्हें मिला। उन्होने यह कहकर उसे अस्वीकृत कर दिया कि मै तो ५ वजे ही मिल सकता हूँ, विवश, गवर्नर महोदयको समयकी ढील देनी पड़ी। आजके अधिकाश धनियों का नियम तो दारोगाजीकी पुकारपर ही दम तोड़ देता है। कई वार उन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनानेका प्रस्ताव आया, पर उन्होने कहा-"मुझे Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जैन-जागरणके अग्नदूत अवकाश ही नहीं है।" यह उनके अन्तरका एक और चित्र है, साफ और गहरा। १० अगस्त १९२३ को वे यह दुनिया छोड़ चले। मृत्युका निमन्त्रण माननेसे कुछ ही मिनट पहले उन्होने नये वस्त्र वदले और भूमिपर आनेकी इच्छा जताई। उन्हें गोदमें उठाया गया और नीचे उनका शव रखा गया। जीवन और मृत्युके बीच कितना सक्षिप्त अन्तर । ला० जम्बूप्रसाद, एक पुरुप, सघर्प और शान्ति दोनोमें एक रस | वे आज नहीं है, किन्तु उनकी भावना आज भी जीवित है । -अनेकान्त १९४३ WM Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RepoPES -- OookOVOPULoob Cडया १ वि० स० १९२६ जन्म वि० स० १९७५ स्वर्गवास Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेड मथुरादास टडया श्री 'तन्मय' बुखारिया . .. .. 'आपका नाम ?' 'निवास स्थान " 'ललितपुर । 'ललितपुर ? कौन-सा ललितपुर ?' 'ललितपुर, जिला झाँसी।' 'जिला आ आ झाँसी ई ..ई, सेठ मथुरादासका ललितपुर ?' अब मेरी बारी थी। साश्चर्य मैने उत्तर दिया-'सेठ मथुरादास ? सेठ मथुरादासको तो मैं जानता नही । आप शायद किसी दूसरे ललितपुरकी बात कह रहे है " ___'खैर, होगा। आप जाइए। कमरा न० ११ खाली है, उसमें सामान रख लीजिए।' उस समय मेरी आयु लगभग १६-१७ वर्षकी रही होगी। वात इन्दौरकी एक धर्मशालाकी है। कमरा प्राप्त करने जव मै व्यवस्थापक के पास गया, उस समय जो बातें हुई, वहीं ऊपर अकित है । उस समय मेरा ज्ञान, अनुभव और परिचय आदि इतना अत्यल्प था कि यदि मै मेट मथुरादासको नही जान सका तो यह उचित तथा स्वाभाविक ही था। किन्तु, 'नही जानता', उस समय यह मैने कह तो दिया, पर मेरे सहज जिज्ञासु और कुतूहलप्रिय हृदयमे, सेठ मथुरादासजीके प्रति परिचयेच्छा अवश्य ही अंकुरित होकर रह गई और उसीका परिणाम है यह लेख । आखिर कौन है ये सेठ मथुरादास, जिनके नामसे ही ललितपुरको लोग जानने लगे है, इस कौतूहलने मुझे गान्त नही रहने दिया और इसीलिए Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मथुरादास टडैया ५३१ जब यात्राले घर वापिस आया तो यथावसर और यथाप्रसंग मैने बड़ेवुजुर्गोते पूछ-ताछ प्रारम्भ की। उत्तर-स्वरूप उनसे जो कुछ सुननेको मिला, वह आज भी मेरे सश्रद्ध हृदयकी चिर-स्मरणीय निधि है, और आज जब कि मुझमें इतनी समझ आ गई है कि मैं 'हिन्दुस्तान, गाँधीका हिन्दुस्तान', इस उक्तिमे निहित भावको जल्दी ही ग्रहण कर लेता हूँ, तव सोचता हूँ कि सेठ मथुरादासजीसे सम्बन्वित यह जन-कथन, ललितपुर, सेठ मथुरादासजीका ललितपुर', क्या ऐसी ही बड़ी उक्तियोका छोटा संस्करण नहीं है। गाँधीके नामसे, ससार हिन्दुस्तानको जानता है, पर क्या यह भी सच नहीं है कि मेरे छोटे से ललितपुरको लोग सैठ मथुरादास के नामसे जानते है ? ___ इकेहरा-छरेहरा शरीर, ठिंगना कद, ऊंचा और चौड़ा ललाट, गोरा रंग, दोनो आँखोके आकारमे इतना कम और सूक्ष्म अन्तर कि वह दोप न होकर कटान बन गया। पहनावेमे महाजनी ढंगकी बुन्देलखंडी वोती अथवा सराई (चूडीदार पायजामा), तनीदार अंगरखा, सिरपर मारवाडीसे सर्वथा भिन्न बुन्देलखडी लाल पगड़ी, गलेमे सफेद दुपट्टा । स्वभाव, मानो मोम और पाषाण-दोनोका सम्मिश्रण । क्षण भरमें नावेग, क्षण भरमे करुण । बादाम या नारियलकी भांति ऊपरसे कठोर, भीतरसे कोमल-अन्त सलिल, पाषाणके नीचे प्रवहमान निझर । बिना गाली दिये बात नहीं करेंगे, किन्तु गाली वह जो शब्दोंसे तो गाली लगे किन्तु भावनामें आगीवाद-सी । स्वभावकी इस अप्रियकर विशिष्टता के होते हुए भी लोकप्रिय इतने कि सरकारकी ओरसे कई वर्षों तक स्थानीय म्युनिसिपल वोर्डके वाइस चेयरमैन नियुक्त होते रहे । एक बार अखिल भारतवर्षीय परवार-सभाके सभापति भी चुने गये थे। धर्मसाधना उनकी प्रकृति थी और आयुर्वेद हॉवी । फलत धार्मिक और आयुर्वेदिक दोनो ही विषयोंके सुन्दर नथोंका विशाल सत्रह किया। पुस्तकालय और औपवालयकी त्यापना की। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जैन-जागरणके अग्रदूत दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धिका प्रमुख कारण थां, उनका वह समम और उदार हृदय, जो क्षेत्रपालजीकी धर्मशालासे प्रतिदिन २-४ किन्ही भी अनजान-अपरिचित यात्रियोको सस्नेह अपने घर लिवा लाया करता था और उन्हें सप्रेम तथा ससम्मान भोजन कराके सन्तुष्ट और सुखी होता था। उनके इस स्वभावसे सामजस्य करनेकी दिशामे घरकी महिलाएं इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि १५-२० मिनिटके भीतर गरम पूडी और दो साग तैयार कर देना उनके लिए अत्यन्त सामान्य बात थी। न जाने किस समय अतिथि आजाएँ और भोजन बनाना पड जाय, चूल्हा कभी बुझ ही न पाता था। ललितपुरका सुप्रसिद्ध मदिर 'क्षेत्रपाल' उन्हीके परिश्रम और सरक्षणका फल है । एक बार स्थानीय वैष्णवोने उसपर अपना अधिकार घोषित किया था, किन्तु यह सेठ मथुरादासजीका ही साहस था कि उन्होने उसको अदालती और गैरअदालती-दोनो ही तरीकोसे लड़कर जैनमदिर प्रमाणित और निर्णीत कराया। उनके लिए क्षेत्रपाल सम्मेदशिखर और गिरिनार-सा ही पूज्य था। किस प्रकार उसकी यशोवृद्धि हो, प्रसिद्धि हो, आर्थिक स्थिति सुदृढ हो, वह तीर्थ, यात्रियोंके लिए आकर्षणका केन्द्र वने-यही उनके जीवनको सबसे बड़ी महत्त्वाकाक्षा थी। उनका प्रिय क्षेत्रपाल, जैनगति-विधियोका एक सक्रिय केन्द्र बन सके, इसीलिए उन्होने, वहाँ अभिनन्दन पाठशालाकी स्थापना की, जो अभी थोडे दिनो पहले ही वन्द हुई है। क्षेत्रपालके प्रति, सेठजीके मोह की पराकाष्ठा थी कि वे अपने पीनेके लिए जल भी, एक मील दूर क्षेत्रपाल स्थित कुएसे ही मँगाया करते थे । क्षेत्रपालके निकटस्थ कुछ भूमि, उन्होने स्थानीय जैन समाजसे कुछ विशेष शर्तोपर प्राप्त कर, अपने लिए एक वगीचेका निर्माण कराया था, जो आज भी है । प्रतिदिन प्रात काल ही इस वगीचेसे फूलोकी एक वडी टोकरी उनकी दूकानपर पहुंच जाया करती थी कि नगरके किसी भी व्यक्तिको-विशेषतया हिन्दुओको, जिन्हे पूजाके लिए फूल अभीष्ट होते है, वे सहज-सुलभ हो सके। जब तक Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मथुरादास टडैया ५३३ जीवित रहे, प्रतिदिन प्रात और सायकाल क्षेत्रपाल जाकर पूजन करना तथा शास्त्र-प्रवचन सुनना-उनकी नियमित रुचि थी। क्षेत्रपालमें सुन्दर धार्मिक ग्रथोका सग्रह हो सके, इस इच्छासे उन्होने न केवल वहुत से वहुमूल्य ग्रथोको प्रयत्नपूर्वक प्राप्त ही किया वल्कि बहुत-से लिखधारियो (हायसे ग्रथोकी नकल करनवाले लेखको) को आश्रित रखकर उनसे भी नथ लिखाये। ___ उनकी पारिवारिक आर्थिक स्थितिकी आज जो सबलता है, उसका वहत वडा श्रेय उनके व्यवसाय-कौशलको ही है। वम्बई, टीकमगढ, महरौनी, पछार, वामौरा, चैदेरी, हरपालपुर आदि-आदि कई मडियोमें उनकी गद्दियाँ थी, जिनकी सुव्यवस्था वे अपने सुयोग्य भतीजे पन्नालालजी टडयाके सहयोगसे करते थे। ___उनकी अनुकरणीय विशेषता थी कि इतने निपुण और बड़े व्यापारी होनेपर भी 'वनियापन' उन्हे छ नहीं गया था। उनके मुनीम, नौकर-चाकर जहाँ उनकी गालियाँ सुननेके अवश पात्र थे, वहाँ उनके अत्यन्त उदार सरक्षणके अधिकारी भी। सम्मेदशिखरके आसपास, सम्भवतः कलकत्ता या पटना, व्यावसायिक कार्यसे जाकर भी, उनका एक मुनीम वन्दनार्थ शिखरजी भी क्यो नही गया, इसपर उस मुनीमको उन्होने इतना डाटा कि उसे दूसरी बार, ऐसा ही अवसर आनेपर शिखरजीकी यात्रा करनी ही पड़ी। मार्गमे क्यो उस मुनीमने अपनी एक वक्तकी खुराकमे केवल तीन आने ही खर्च किये और इस प्रकार सेठ मथुरादासकी मुनीमौके पद को लज्जित किया, इसपर उन्होने उसको इतनी गालियाँ दी कि सुनने वालोको कानोपर उँगलियाँ रख लेनी पडी। नौकरी करते-करते जो नौकर या मुनीम मर गया, उसके बाल-बच्चोको आजीवन पेंशन देना और उनके सुख-दुखकी खोज-खवर एक कौटुम्बिककी भाँति ही रखना-आज कितने धनी ऐसा करते है ? सेठ मथुरादासके लिए यह सामान्य वात थी! वयोवृद्ध चौधरी पलटूरामजी, जो आज भी जीवित है और सेठ मथुरादासजीकी चर्चा आते ही जिनके नेत्र सजल तथा कंठ आर्द्र हो उठता Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जैन-जागरण के अग्रदूत है, उनके एक प्रकारसे दाहिने हाथ ही थे । ललितपुर -समाजमे, चौधरी जी अपनी पचायत चातुरीके लिए विख्यात है । व्यवहार-कौशलकी यह देन --- उन्होने सेठ मथुरादासजीके चरणोमें बैठकर ही प्राप्त की थीइसको वे आज भी गर्व और कृतज्ञतासे स्वीकार करते है, और इन पक्तियो का लेखक चौधरीजीके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है कि सेठजीके सम्बन्ध मे इतनी अधिक और प्रामाणिक सामग्री उन्होने उसको दी। सेठजी, एक बार, एक विवाहमे सम्मिलित होने मुंगावली गये । चौधरी पलटूराम भी साथ थे । सहसा न जाने क्या सूझी कि चौधरीजीको बुलाकर बोले- 'अरे, पल्टुआ 1 ( चौधरीजीके प्रति यही उनका स्नेहसिक्त सम्बोधन था ) सुना है, यहाँ जज साहब रहते है ? उनसे मिलना चाहिए ।' चौधरीजीने उत्तर दिया--'अच्छी बात है, शामको चले चले ।' इस सुझावपर चौधरीजीको उन्होने इतनी गालियाँ दी कि चौधरी सहमकर रह गये । बोले, 'अवे पल्टुआ ! इतना बडा हो गया, पर तुझमें इतनी अकल नही आई ? में मिलने जाऊँगा ? अबे, वह कामकर कि जज साहब खुद अपने डेरेपर मिलने आये ।' चौधरीजीमे, चातुर्य जन्मजात रहा है, तत्काल बोले--- ठीक है, दीजिये मुझे तीन सौ रुपये - ऐसा ही होगा ।' रुपयोकी व्यवस्था हो गई। बाज़ार जाकर चौधरीजीने दो-चार स्थानीय पचोको साथ लिया । सस्तेका जमाना था । बहुत-सी धोतियाँ, कम्बल, कापियाँ, किताबें, पेंसिले, दावाते आदि खरीदी । स्थानीय पाठशालाओके विद्यार्थियो को सूचित किया । गाँवमे जो गरीब थे, उनको ख़बर कराई । सामानको एक सार्वजनिक स्थानपर व्यवस्थित किया । पचोंको लेकर जज साहवके बँगलेपर पहुँचे । निवेदन किया कि आज सायकाल, स्थानीय विद्यार्थियो और गरीबोको, सेठ मथुरादासजी ललितपुरवालोकी ओरसे पुरस्कार वितरित किये जायेंगे, सेठजीकी इच्छा है कि यह कार्य आपके कर-कमलो से सम्पन्न हो । जज्र साहबने प्रस्तावको सहर्ष स्वीकृत किया । कार्य हुआ । सेठजीकी उदारतासे जज साहब इतने प्रभावित हुए कि दूसरे दिन उनके Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मथुरादास टडया ५३५ डेरेपर पहुँचे और उनको अपने घर भोजनके लिए निमत्रित किया। चौधरी जी कह रहे थे कि जज साहवने उस दिन जो स्वागत-सत्कार किया, वह आज भी उनकी स्मृतिमें हरा है। अपने जीवनमें उन्होने शायद ही कोई यात्रा ऐसी की हो, जिसमें मार्ग-व्यय आदिके अतिरिक्त २००-४०० रु० उनके और भी खर्च न हुए हो । विवाह-बारात आदिकी यात्राएँ भी उनके इस स्वभावकी अपवाद नही थी। किसीकी भी वारातमे जाते समय घरसे १०-२० सेर मिठाई-पूडी, काफी पान-सुपारी, इलायची आदि साथमें ले जाना और रास्ते भर बारातियोकी इस प्रकार खातिर करते चलना, मानो उन्हींके लड़केकी बारात हो, आज किसके द्वारा यह उदारता साध्य है ? तीर्थ, विमान, अधिवेशन आदि धार्मिक या सार्वजनिक यात्राओके समय समस्त सह्यात्रियोके सुखदुःखका दायित्व, मानो नैतिक रूपसे वे अपना ही समझते थे, और अपनी इस वृत्तिके प्रभावमे पैसा तो उदारतापूर्वक वे खर्च करते ही थे, अवसर आ पड़नेपर तन-मन देनेमे भी उन्हें सकोच नही होता था। एक बार प्रवासमे उनके सहयात्री श्री दमरू कठेल जव बीमार हो गये थे, तो उनके पाँव तक उन्होने बेझिझक दावे थे। अपने नगर ललितपुर और प्रदेश बुन्देलखडके प्रति उनके हृदयमें नैसर्गिक ममता थी। एक वार, कुण्डलपुरमे महासभाके अधिवेशनके समय, एक व्यक्ति द्वारा बुन्देलखडके प्रति अपमान-जनक शब्द कहे जाने पर, उन्होने इतना सख्त रुख अख्तियार किया कि आराके प्रसिद्ध रईस और अधिवेशनके सभापति स्वय देवकुमारजी उन्हें मनानेके लिए आये और मुश्किलसे उन्हें शान्त कर सके । ललितपुरके प्रति लोगोमे सम्मान की भावना आये-उनका सदैव यही प्रयत्न रहा करता था। मस्तापुररथ-यात्राके समय वे तत्कालीन भावी सिंघईसे अपना यह आग्रह स्वीकार कराके ही माने थे कि पहले ललितपुरके विमानोका स्वागत किया जाय । उस समय समाज-सुधारके न तो इतने पहलू ही थे और न उनके प्रेरक बहुत-से दल ही। समाजमे नारीकी स्थितिके सम्बन्धमें उनका Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरण के अग्रदूत ५३६ दृष्टिकोण बिलकुल सीधा-सादा था । एक इसी विषय में ही क्यो, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें वे 'मर्यादा' के हामी और पोषक थे । मदिरोमे स्त्रियां अधिक तडक भडकसे न आये, उनकी गतिमे नारी सुलभ लज्जा हो, न कि उच्छृंखल चचलता, उनकी पैनी दृष्टि सदैव यह 'मार्क' करने के लिए तत्पर रहा करती थी । एक बार, सम्मेदशिखर क्षेत्रपर पजाव प्रदेशकी कुछ स्त्रियाँ कुएँपर बैठी हुई नग्न स्नान कर रही थी । यह दृश्य, सेठजीसे न देखा गया । उसी समय कई थान मँगवाकर, कुछ वल्लियाँ खड़ी करके उनके सहारे एक पर्दा-सा तनवा दिया । उनकी धर्म-साधना केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित नही थी । सम्भवत. यदि कभी अवसर आ जाता तो धर्मके लिए अपने प्राण दे देने मे भी उन्हे सकोच न होता । एक बार, स्थानीय जैन मंदिरपर, होली खेलनेवाले कुछ लोगोने गोवर फेंक दिया। खबर सेठजी तक पहुँची । सब काम छोड़, उसी समय एस० डी० ओ० के पास दौडे गये । एस० डी० ओ० अग्रेज था, पर चर्चिल - परम्पराका नही । सेठजीका बहुत सम्मान करता था । तत्काल मौकेपर पहुँचकर जांच कराई। अपराधियोकी खोज की। जिन लोगोने यह निंद्य हरकत की थी, उन्हीसे गोवर साफ कराया गया । नसेनी भी उनको नही दी गई। एक दूसरेके कन्धोपर चढकर ही उन्हे गोवर पोछना पडा । इसी प्रकार 'हिंसा परमो धर्मः' भी उनका मात्र मौखिक सिद्धान्त ही नही था । व्यवहारमे भी उसका प्रयोग उन्हे अभीष्ट रहता था । एक बार एक गाय भागती-भागती आई और सेठजीके मकान में घुमती चली गई। पीछे-पीछे उसका स्वामी कसाई भी दौडता हुआ आया । सेठजीने स्थिति समझी और नौकरोको आदेश दिया कि वह घरकी अन्य गाय भैसोके साथ 'थान' पर बाँध दी जाय। कसाई, कसाई पीछे था और व्योपारी पहले | मौकेको ताड गया। गायके अनाप-शनाप दाम माँगने लगा, किन्तु सेठजीके आगे उसकी एक भी चालाकी न चली। उन्होने चार भले आदमियोको बुलाकर निर्णय लिया और उचित मूल्य देकर उस कसाईको विदा किया । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ सेठ मथुरादास टडैया निरन्तर देना, और बदलेमे कुछ भी पानेकी आशा न करना, उनके जीवनका यह आदर्श था। एक वार टीकमगढ़की एक स्त्री अपने तीन भूखे-प्यासे बच्चो-सहित उनके दरवाजे आ गिरी। बोली, जैन हूँ, तीन दिनसे निराहार हूँ। सेठजीने तत्काल उसको ससम्मान प्रश्रय दिया। उसके स्नानादिकी व्यवस्था की। भोजनकी सामग्नी दी, बर्तन दिये कि वह स्वयमेव शुद्ध विधिपूर्वक बनाकर खा ले । सेठजीको कुतुहल हुमा कि स्त्री, वास्तवमे, जैन है या यो ही झूठ बोलती है । पल्टूराम चौधरीको साथ लेकर, छिपकर उसकी भोजन बनानेकी विधिका निरीक्षण करने लगे। स्त्री रसोई बना रही थी, उधर बच्चे भूखके मारे चिल्ला रहे थे। स्त्रीने पहली ही रोटी तवेपर डाली कि बच्चोका धैर्य समाप्त हो गया। वे उसी अधकच्ची रोटीको ले लेनेके लिए लपके । सेठजीसे यह करुणाजनक दश्य न देखा गया। उसी समय नौकरके हाथ थोडी-सी मिठाई भेज दी। क्षुधातुर वच्चोको सब कहाँ ? एक बच्चेने एक साबित लड्डू अपने छोटे-से मुंहमे डूंस लिया और उसे निगलनेके लिए व्याकुलतापूर्वक रुआसा हो उठा । जैसे-तैसे स्त्रीने उसके मुंहमेंसे लड्डूको तोड-तोडकर निकाला और फिर अपने हाथो थोड़ा-थोड़ा-सा खिलायो । तत्पश्चात् हाथ धोकर रोटियां सेकने लगी। वह जैन थी और विधिपूर्वक ही उसने भोजन बनाया खाया ।' सेठजी सन्तुष्ट हुए, किन्तु साथ ही क्षुधाजनित व्यथाको साक्षात् देख इतने विगलित भी हुए कि वे उस दिन एकान्तमे बैठकर घंटो रोते रहे । उस स्त्री और उसके बच्चोको रोटी कपडो और वेतनपर नौकर रख लिया। मरते समय वेतन-स्वरूप जमा हुए उसके रुपये तथा अपनी ओरते भी २५० ६० देकर उसको इन शब्दोके साथ बिदा किया कि शायद उनकी मृत्युके वाद उनके उत्तराधिकारी उसके साथ निर्वाह न कर सकें, अत वह जाये और उन रुपयोसे कोई छोटी-मोटी पूंजीकी जीविका प्राप्त करके गुज़र करे। चाहे पारिवारिक हो चाहे सामाजिक, चाहे नागरिक हो, चाहे प्रादेशिक, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें उनकी उदारता स्पष्टतया परिलक्षित थी। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जैन-जागरणके अग्रदूत अपनी पुत्री शान्तिका विवाह किया तो इस धूमधामसे कि वारात देखनेके लिए आसपासके गाँवसे इतने आदमी आये कि उस दिन प्रत्येक घरमे २-२, ४-४ अतिथि ललितपुरमें थे। प्रत्येक नागरिकके घर मिठाई वायने' के रूपमें पहुंचाई गई। कोई भी सामाजिक त्योहार या पर्व ऐसा नहीं होता था, जिसपर सेठजीकी ओरसे समस्त समाजकी 'पगत' नही की जाती हो । जिस नगर या गाँवकी यात्रा की, वही गरीवो और विद्यार्थियो को पुरस्कार वितरित किये । कोई भी याचक चाहे वह चन्दा लेनेवाला हो, चाहे सामान्य भिक्षुक, कभी उनके दरवाजेसे खाली हाथ वापिस नहीं गया। सेठ पन्नालाल टडया, उनके सुयोग्य भतीजे थे। पुत्र एक ही हैहुकमचन्द टडैया, बिल्कुल वही रूपरग; आज भी है । मथुरादासजी 'की न्याय-प्रियता, उदारता, स्वाभिमान-भावना और व्यवहार-कौशलसौभाग्यवश, स्वभावकी सभी विशिष्टताएँ पन्नालालजीको वशोत्तराधिकारमें मिली थी। सेठ मथुरादासजी द्वारा स्थापित बहुत-सी परम्पराएं सेठ पन्नालालजीने बहुत दिनो तक यथारूप प्रचलित रखी। कालवश आज सेठ पन्नालालजी भी स्वर्गस्थ है । सेठ मथुरादासजी और पन्नालालजीकी महानताके अवशेष, यद्यपि उनके वर्तमान वशज अभिनन्दनकुमारजी टडैया तथा जिनेश्वरदासजी और हुकमचन्दजी द्वारा आज भी कुछकुछ सुरक्षित है, किन्तु निश्चय ही तुलनाकी दृष्टिसे वे पासग भी नहीं है, किन्तु जहाँ तक मथुरादासजी तथा पन्नालालजी द्वारा अपनाई गई विशेषताओसे तुलनाका प्रश्न है, वही तक यह वात घटित है । नगरके अन्यान्य परिवारोकी तुलनामे तो आज भी इसी वशका पलड़ा भारी ठहरेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सेठ मथुरादासजीका जन्म लगभग स० १९२९-३० में और मृत्यु सं० १९७५ में हुई। धन्य है उनके पिता सेठ मुन्नालालजीको, जिन्होने ऐसे पुत्र-रत्नको प्राप्त किया था। १५ जुलाई १९५१ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAA सर मोतीसागर AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र मोतीसागर जीका नाम सुना था, दूरसे एक बार देखा " भी था। १९३० के असहयोग आन्दोलनमें तीन माहको मुझे सजा मिली कि जेलमे ही १२४ धाराके अन्तर्गत दो वर्षकी कैदका हुक्म और सुना दिया गया। कही दूसरे कार्यकर्ताओके | साथ भी इस तरहका गैरकानूनी व्यवहार न हो, इसी आशकासे काँग्रेस-कार्यालयसे अपील करनेका आदेश प्राप्त हुआ। अपीलको धन कहाँसे आवे, इस दर्देसरसे तो चुपचाप जेल काटना ही श्रेयस्कर समझा गया। न जाने सर मोतीसागर जीके कानमें यह भनक कैसे पड़ी? चटपट उन्होने नि शुल्क अपीलकी पैरवी की जिम्मेवारी स्वय अपने आप ले ली। जरूरी कागजात भी मंगवा लिये और अपील सनवाईकी तारीख भी निश्चित हो गई। लेकिन भाग्यकी अमिट रेखाएँ कौन मेट सकता है ? अपीलकी तारीखसे दो दिन पूर्व अकस्मात् उनका स्वर्गवास हो गया। मुझे लाहौरसे तार मिला तो मैने विषाद भरे स्वरमें कहा-'यहाँ न्यायकी आशा न देख, वे ईश्वरकी अदालतमें फरियाद करने गये है। इन्साफ होनेपर ही वापिस आएंगे।" लेकिन उनका साधु और परोपकारी मन इस दुनियासे ऐसा उचाट हुआ कि वापिस आनेका नाम तक नहीं लिया। -गोयलोय ३१ अक्टूबर १९५९ - - - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खर मोतीसागर : एक राजा साधु श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ITसकी भी एक तस्वीर होती है और दूरकी भी। पासको तस्वीरमें हाथ-नाक ही नहीं, तिल और रेखाएँ भी साफ दिखाई दे जाती है। दूरकी तस्वीरमें यह सव वात तो नही होती, पर चित्रकार अच्छाहो, तो झिलमिल वातावरणका एक अद्भुत सौन्दर्य उसमें अवश्य होता है। __स्वर्गीय सर मोतीसागरको मैने कभी नहीं देखा, पर उन्हें पूरी तरह जाननेवालोसे उनके सम्बन्धमें इतना सुना है कि मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि मै बहुत दिन उनके पास रहा हूँ। भावनाकी इसी छायामें जब-जब मै उनकी समीपता अनुभव करता हूँ, मुझे लगता है, मैं एक ऐसे व्यक्तित्वके पास बैठा हूँ, जिसमें पुराने युगके दो व्यक्तित्व एक साथ समाये हुए है.एक चमकदार राजाका और दूसरा शान्त साधुका, और शक्तिके साथ भस्तिका ऐसा सरल स्पर्श मुझे मिलता है कि जैसे अभी-अभी मैं किसी उपवनसे घूमकर लौटा हूँ। x x तीन सस्मरणोमें उनके तीन चित्र है, जो मिलकर उनका एक ऐसा चित्र बनाते है, जिसमें एक्स-रेकी तरह उनका अन्त करण तक साफ दिखाई देता है ? कालेजके विद्यार्थी-साथियोमें मोतीसागरकी सच्चरित्रताका आतङ्क था। वे न कभी किसी अश्लील वातचीतमें भाग लेते, न कार्यकलापमें । इससे साधी उनका आदर तो करते, पर कुढते भी और सदा इस फिक्र रहते कि कैसे इसकी भगताई ढीली पड़े। एक दिन मोतीसागरके पिताजी कही वाहर गये थे कि कुछ साथियोने उनसे कहा-"मोती! कल शामको हम तुम्हारे घर आवेंगे !" दे वहुत खुश हुए। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जागरणके अग्रदूत में उनके अहसानोसे कितना दवा हुआ हूँ ? आज एक पुत्र अपने पिताको उनकी मौजूदगीमें किन शब्दोमें श्रद्धाजलि दे, समझ नहीं पा रहा हूँ। मुझे सकोच है, तो इतना ही कि हम उनकी उच्चता और गभीरताको पा न सके, उनके वारिस होकर भी। आज जब अपने भावोको उनके समक्ष प्रकट करनेका सुअवसर मिला है, तो मैं तो परमेश्वरसे यही प्रार्थना करूंगा कि परिवारके लिए, समन्न जैन समाज एवं व्यापारिक समाजके लिए वे शतायु हो और हम रावपर उनकी सरपरस्ती बनी रहे। ___ आज सेठ हुकमचन्दजी हमारे बीच मौजूद है। अत उनके पसर व्यक्तित्वका महत्त्व हम समझ नहीं पा रहे है । मेरी मान्यता है कि भारतके व्यावसायिक एव औद्योगिक गगनमण्डलमें फिर कभी सेठ साहब-नसा प्रतापी सितारा प्रकट होना अमभव नही. तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। सो भगवान् उन्हें चिरायु करें, यही मेरी पुन पुन प्रार्थना है । हुकुमचन्द-अभिनन्दन-ग्रन्थ मई, १९५१ + - + Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · * जान स्टुअर्ट मिल जार्ज बर्नार्ड शा जिगर मुरादावादी जिनदास जिनविजय मुनि जिनेन्द्रचन्द्र जिनेश्वरदास (टडैया ) जिनेश्वरदास 'माईल' अनुक्रमणिका जुगलकिशोर मुख्तार जियालाल जीवनाथ शास्त्री जीवराम लल्लूराम शास्त्री १५३ जीवाजी राव सिन्धिया ४७६ जीवाराम जुहारमल मूलचन्द्र सेठ जैम्स प्रेट (प्रो०) जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्रकिशोर जौक ज्ञानचन्द्र २५५ १२८ ३३६, ३६३ ४७८, ४८६ | ज्योतिप्रसाद २६५, २७० २२ ३१८, ३४७ ६, २७५, २७६ टोडरमल ६१, ७८ ७५ जुगमन्दरदास २४, ३१८, ३४७, ३४८, ४३३, ५४५, ५४६ जुगमन्दिरलाल जैनी (वैरिस्टर) ३११, ३२१, ४४४, ४४८ ५५, १६६, २०७, २०८, २११, २१६, २१७, २१८, २२३, २३८, २६७, २७८, ५५८ १५१ ३१२ २२६, २३६, २६३, ४६१ ३०७, ३०६, ३२० ३३१ ६, २७७, २६६ ५३८ झम्मनलाल २२६, ३१२, झूताराम सिंघई ज्ञानानन्द १७६, १७७, १७८, १७६, १८०, १८१, १८२, १८४, ठाकुरप्रसाद डेविस कर्नल 이 त तख्तमल जैन 'तन्मय' वृखारिया तारणस्वामी ५९५ तुलसी तुलसीदास ( विद्यार्थी) तुलसीराम ५१७ ४२२, ५५८ ६१, ६७ ३४६ १५६ ७६,७८ ४३८ ५८६ १६, ५३० ३५ १६, ३७३ ७१ ३१३ दमरू कठेल ५३५ दयाचन्द्र गोयलीय २८६ २६०, २६२, २३, २६४, २६५, २६६, २६७, २६८, २६६, ३६६, ४४१ दयानन्द (स्वामी) १९३ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिसागर वर्णी नेमिसुन्दर वीवी पद्मनन्दि पद्मश्री पन्नालाल पन्नालाल अग्रवाल ११६, ३०६, ५१६, प्रकाश ५२० प्रकाशचन्द्र १२० प्रतापमुनि प्रतापसिंह ३४, ६६ प्रभाचन्द्र प पन्नालाल ऐलक पन्नालाल टडैया पन्नालाल न्यायदिवाकर पन्नालाल वाकलीवाल अनुक्रमणिका ३५, २२५, ४०३, ४७६, ५४६ ३२, ४४१, ५०७ ५३३, ५३८ ५७२ ७५, १८५, १८६, १८७, १८६, १६०, २५१, पीतचन्द्र पुण्यविजय (मुनि) पूज्यपाद प्यारीवाई ५५८ प्रभुदास ३० | प्रभूराम प्रेमचन्द्र प्रेमलता प्रेमसागर २८१, ३०७, ३१०, ३१५ परमानन्द जैन शास्त्री ५६ पलटूराम चौधरी ५३३, ५३४, ५३७ पाँचोदेवी ३४४ पात्रकेसरी २२०, २३६ पारसदास ( रा ० ब ० ) ६, ५५७ पार्वतीदेवी ३६१, ३६२, ५०७ प्यारेलाल प्यारेलाल ( पडित ) प्यारेलाल (वकील) 1 २३३ ६१, २३= फतहचन्द्र फतहचन्द्र सेठी फिसकोन फूलकुमारी फ्रेजर फेजर वॉकवे फैयाज अली खाँ बच्चूलाल २६६ | बद्रीदास रायवहादुर ३६६ ३४५, ३५६, ३६८ ३१३ ३६६ ११७ | वनारसीदास ५९७ ५० वनारसीदास एम० ए० २७६ | वनारसीदास चतुर्वेदी ३८४, ३८८ वनारसीदास (पडित ) ३६५, ३१७ | बनारसीदास ( प्रो० ) २३८ ११८, ५१८ ३१२ २६३ ४३६ _५४२, ५४३ वधावर आई० सी० एस० बनवारीलाल स्याद्वादी ४७८, ४८६ ५५६ ३१३ ५००, ५०२ ४१७ ४०८ ३४ε ५१८ ४४७ ३६६ ३६१ ४३६ ३१४, ३४८ २४५ १९० २३२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ वरातीलाल बर्क बर्क ( बिजनौरी) बलदेवदास वशेशरनाथ बहजाद लखनवी वाडीलाल मोतीलाल शाह जैन-जागरणके अग्रदूत वैजामिन फ्रेंकलिन वैजनाथ वैजावाई ३४४ २२ | भवानीदास सेठी ३५३ | भागचन्द्र सेठ १२८ ५५१ | भागीरथ वर्णी ५३, ५६, ६२,७८, ६०, ६१, ७६ वावूलाल वकील बालगंगाधर तिलक ३१४, ३२६, ३५२ बालमुकद (पण्डित) & बालमुकुन्द पोस्टमास्टर वाहुबली वी० जी० हार्नीमैन बुद्ध वुलन्दराय वकील बृजवासीलाल वरदास ५५७ ३५६ | भीमसैन ३२६ | भीष्मपितामह ३१८ २०६ १२१ ४४२ | भगलसेन १०६, ३५८, ५४४ भारमल्ल (राजा) ८२, १६९, २८०, ३०७ ६, २५, २७ भोईदेवी जैन अग्रवाल भोज भोलानाथ दरख्शां ३१ १९२ २६ मक्खनलाल ( पडित ) ४४३, ५६१ २२७ ३२, ११६, ३१२, ३२२, ३६६, ४६७, ४६८, ४६६, ५००, ५०२, ५०३, ५०५, ५०६, ५०७ मगनलाल ५०२ ५५१ मण्डन मिश्र ६८ ३१३ मथुरादास (पंडित) १८१ | मथुरादास (वी ए) ४८६ मथुरादास इजिनियर १६३ | मक्खनलाल भगतसिंह भगवानदास भगवानदास (डा०) भगवानदास सेठ भगवानदीन महात्मा १६, १४५, २६२ ३१२, ३२७, ३६७, ३७३, ४४१, ४४२, ४४३, ४४७, ४५६, ४६१ भजनलाल रसोइया १२७ २३८ १६३, १४, १६५ २३, १३३ २०८ मगलसैन जमीदार २२६ | मक्खनलाल जैन ठेकेदार ४५४ | मगनवाई १५१ ४७६ 55,58 २३१ १५१ १७०, ३२८ १९३ । मथुरादास टडैया ५२९, ५३०, ५३१, ५३२, ५३३, ५३४, ५३८ मथुरादास सेठ ४८५, ४८६, ५५७ मथुराबाई ११४, ११५ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका 603 हरिभाई देवकरण सेठ 152 | हीरालाल 66, 70, 71 हरिसत्य भट्टाचार्य 188, 316, 317 | हीरालाल कागलीवाल 585 हरिहर गास्त्री 188 | हीरालाल (डा०) 128 हर्मन जैकोबी 38, 312, 314 | हुकमचन्द्र खुगालचन्द्र सेठ 313 हमरत सहवाई 360 हुकमचन्द्र टडैया 538 हाराण वाबू कविराज 130 हुकुमचन्द्र (सेठ) 18, 128,483, हाडिंग 346, 578 583, 584, 585, 586, 560 हिमाशुराय 544 हुलासराय 557 हीराचन्द्र हेमचन्द्र मोदी 245, 266, 268 हीराचन्द्र नेमिचन्द्र 275, 276, ! हेमचन्द्राचार्य 238 277, 444 | ह्य रोज 955 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 जन-जागरणके अग्रदूत 350 3 8 GS ture बंकटेश्वर-समाचार वोन्ता रत्नकरण्ड श्रावकाचार 75, 186, बौद्धजनतत्त्वज्ञान 277 राजपतानेके जैन वीर 200, 386 भगवनी-आगवना रामदुलारी भान्य और पुन्पार्थ 282/ रामायण भाग्नमित्र भारतीय विद्या | लघुकामदी 150,445, 505 भारतीय लज्जावतीका किस्सा भावपाहुड लाइट आफ एगिया 544 लाटीसहिता 220 मंगलादेवी लिवर्टी मनमोहिनी नाटक 281 लीडर मनोरजन 261, 262 मराज और अग्रेज़ 454 वर्णी-अभिनन्दन-अन्य महाभारत 331 वमुनन्दि श्रावकाचार 222 माइन रिव्यू 36, 256, 352 विश्ववाणी मितव्ययिता 262 / वीर 18, 28, 36, 45, 46, मिथ्यात्वनायक नाटक 165, 196 / 52, 138, 171, 202, 30, मेरी जीवनगाया 54, 163, 164 66, 400, 406, 420 मेरी भावना 209, 216, 216 वीर पुप्पाञ्जलि मैत्रीधर्म 302 | वेदान्तपरिभाषा 314 मोक्षमार्गप्रकाश ર૭૭ मोमगात्र 186,464 गती 110 गान्तिधर्म . यगस्तिलक चम्पू | शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण 221 युवकोकी दुर्दशा 282 | गेर-ओ-सुखन 226 282 238 | श्राविकाधर्मदर्पण 43 217 302 योनिप्रामृत Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 जैन जागरणके अग्रदूत 266 | मोराजी भवन भारत जैन महामण्डल 278, 300, 312, 442 / यशोविजय श्वेताम्बर जैन पाठभारतधर्म महामण्डल 402 शाला भारतवीय दि० जैन महासभा 31, 35, 30, 36, 178 भारतवर्षीय दि० जैन महा लन्दन विश्वविद्यालय 436 विद्यालय चौरासी 176 लेजिस्लेटिव एसेम्बली भारतवर्षीय दि० जैनपरिपद् 40, लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज 576 403, 415, 416, 446, 502 भारतवीय दि० जैन-परीक्षालय 153 वगीय अहिंसा परिषद् 188 भारतीय जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी वगीय सार्वधर्म परिषद् 313, 320 सस्था 186, 158, 186, 160 वर्द्धमान जैन वोडिंग हाउस, भारतीय ज्ञानपीठ जयपुर वर्द्धमान लाइनेरी 346 मथुरा महाविद्यालय 178, 176 वर्द्धमान विद्यालय 346, 352 महाराज कालेज वान यूनिवर्सिटी, जर्मनी 312 महाराष्ट्र जैन सभा 154 वालिंटियर कोर, देहली . 571 मध्यभारत हिन्दी साहित्यसमिति 454 वीर सेवा-मन्दिर 55, 60, 306, 223 माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला 254, 267 व्यवस्था विधिविधायिनी सभा, माणिकचन्द्र परीक्षालय 64, 74 माध्व जीनिंग फैक्टरी लि० 152 / मिलिटरी एकेडेमी 580 शान्तिनाथ मन्दिर 116 मिन विश्वविद्यालय 357 | शान्तिनाथ जिनालय मुन्नालालजीकी धर्मशाला 46 / शान्तिनिकेतन 352, 411 मैदागिनकी धर्मशाला, काशी 186 ) शिवचरणलाल फण्ड मैनासुन्दर-भवन (नई धर्मशाला), श्राविकाश्रम, वम्बई आरा 108 / श्वेताम्बर जैन संघ 261 322 इन्दौर 316