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________________ ५१ ० सीतलप्रसाद । भी उनके साथ गये । उससे पहिले भी हमे कम्पिना गर्व न देखी थी, जो उस रोज़ ब्र० जीके साथ देखा । वो तरह जीने जाना कि जसाई खेड़ामे प्राचीन जिनमूर्तियां है— पडे । दोपहर हो गया जब हम लोग वहां पहुँने, भूम पर आकुलता हम लोगोके मुसोपर नाच रही थी । किसने कहा कर लिया जावे, तव स्थानका निरीक्षण किया जावे । न० जी ने -न कर सके | सब लोग चुपचाप उनके पीछे-पीछे चल दिये और और जिनमूर्तियोका पता लगाते फिरे ! ० जीने कई मूर्तियों गोकी प्रतिलिपि ली। तभी मैंने जाना कि प्रतिलिपि कैसे लेते है और प्राचीन लेगी को पढनेका भी चाव हुआ ! करने में प्र० लिए च पा I ? 1 शायद सन् १६२८ के जाड़ोमे में बम्बई गया था । ० जी जैन चोडिङ्ग में ठहरे हुए थे । मैं गया और उनसे मिला। उन्होंने जैन जानि की उन्नति के लिए किस तरह नि.स्वायं सेवक तैयार किये जावे, उनपर बहुत-सी बातें की । जैन-सिद्धान्तके विषयमें भी कई बाते बना । न-भूगोल का ठीकसे अध्ययन नही हुआ है, यह भी बताया और कहा कि पृथ्वीको -गोल माननेमे एक वाघा आती है और वह यह कि गोलाकार इतर भाग का जीव ऊर्ध्वगत्तिसे किस प्रकार सिद्धलोक पहुँचेगा लिए जैन मान्यता पृथ्वीको नारगीकी तरह गोल नहीं मान सकती ! जीवकी अनन्तराशिपर भी उन्होने जो कहा वह सरल और जीको ग्ननेवाला था । उन्होंने जैन महिलाओकी दयनीय दशापर भी अपने विचार दर्शायें । उनके विचारोसे भले ही कोई सहमत न हो, परन्तु वह वस्तुस्थितिके ज्ञापक और समयकी आवश्यकताके अनुरूप थे, यह हर कोई माननेको वाक्य होगा । उस दिन उन्होने श्राविकाश्रममं धर्मोपदेश दिया। में समझा, न० जी वह पिता है जो पुत्र-पुत्रियोकी समान हितकामनामे हर समय निमग्न रहता है । जैन धर्म प्रचारकी भावना उनके रोम-रोममं समाई थी । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियोंमें जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रजीने भारतके
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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