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________________ जैन-जागरणके अग्रदूत इस छोरसे उस छोरतक घूमकर धर्मभेरी वजाई थी, उसी प्रकार इस वीसवी शतीमे ७० जी ने भारतका कोई कोना वाकी न छोडा, जहां उन्होने धर्मामृतकी वर्षा न की हो । अनेक अजैन विद्वानो और श्रीमानोको उन्होने जैनधर्मके महत्त्वसे अवगत कराया, साधारण जनताको भी उन्होने धर्मका स्वरूप वताया। भारत में ही नहीं, वह वर्मा और सीलोन भी धर्म-प्रचारकी भावना लेकर गये और यथाशक्य प्रचार भी किया। यदि सुविधा होती तो वह चीन और जापान भी जाते । यूरुप जाकर धर्मप्रचार करनेके लिए भी वह तैयार थे, परन्तु उनके साथ एक और जैनी होना जरूरी था जो उनकी सयम-पालनाको निर्विघ्न रखता । यह सुविधा न जुट सकी, इसी कारण वह विलायत न पहुंच पाये । योग्य साथी न मिलनेके कारण वह कैलाशकी यात्रा भी नही कर पाये। जैन-धर्मकी स्थितिका पता लगानेके लिए वह सब तरहकी कठिनाइयां सहन करनेको तत्पर रहते थे। निस्सन्देह इस शतीके जैनियोमे वह एक ही थे। उनके गुणोका स्मरण कहाँ तक किया जावे ? निस्सन्देह व० जीने जैनियोको सोतेसे जगाया- उन्हे ज्ञानदान दिया और सम्यक् मार्गपर लगाया । वह धर्म और सघके लिए जीये और धर्म एवं सपके लिए ही उनका निधन हुआ। वह आधुनिक जैन सघकी अमर विभति है और उनके स्वर्ण-कार्यो के भारसे जैन-सघ हमेशा उपकृत रहेगा । -'वीर' सीतल अंक १९४४ ई०
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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