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गुरु गोपालदास बरैया
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दरजे अच्छा है, जो अन्यश्रद्धानी होते हुए सर्वधर्म समभावी होनेका दावा करता है । वह तो सर्वधर्म समभावका नाटक खेलता है, या ढोग रचता है । पण्डितजीने कभी किसी चीजका नाटक नही खेला, वे जब जो कुछ थे, सच्चे जीसे थे और सचाई ही तो पूज्य है, वही तो धर्म है, वही तो अँधेरे से उजालेकी तरफ लेजानेवाली चीज है और वह पण्डितजी में थी । इस सचाईके बलपर ही वह झट ताड जाते थे कि में अवतक कौन-सा नाटक खेलता रहा हूँ, और कौन-सा ढोग रचता रहा | अपनी परीक्षा में जैसे ही उन्होने नाटकको नाटक और ढोगको ढोग समझा कि उसे छोडा । जैसे ही उन्होने परीक्षासे यह जाना कि सोमदेवकृत 'त्रिवर्णाचार' आर्प ग्रन्थ नही है, वैसे ही उन्होने उसको अलग किया और उसके आधारपर जो पूजाकी क्रियाएँ करते थे, उन्हें धता बताई । धता बताई शब्द जरा भी हम चढकर नही कह रहे है, उन्होने इससे ज्यादा कड़ा शब्द इस्तेमाल किया था ।
धर्मके मामले में उनकी कही हुई खरी-खरी बातें आज बच्चे-बच्चे की जवानपर है, उन्हें हम दुहराना नही चाहते। हम तो यहाँ सिर्फ इतना ही कहेंगे कि पण्डित गोपालदासजी वरैया सचाईके साथ विचारस्वाधीनता का दरवाजा खोल गये और आज जो स्वामी सत्यभक्तके रूपमें पण्डित दरवारीलालजी स्वाधीन विचारोका चमत्कार दिखा रहे है, वह उसी द्वारसे होकर आये हैं, जिसका दरवाजा पण्डितजी हिम्मत करके खोल गये थे ।
पण्डितजीने सम्यक्त्व, देवता, कल्पवृक्ष, केवलज्ञान, मुक्ति इनके वारेमें ऐसी-ऐसी बातें कही, जिनसे एक मर्तबा समाजमें खलबली मची, पर वैसा तो होना ही था, कुछ दिनो पण्डितजीकी हँसी उडाई गई, फिर जोरका विरोध किया गया, फिर सहन किया गया और फिर मान लिया
गया ।
पण्डितजीने क्या-क्या काम किये, इनको गिनाकर हम क्या करें, ये काम मुरेना महाविद्यालयका है । हम तो सिर्फ वो ही बातें लिखना