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जैन-जागरण के अग्रदूत
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चाहते है, जिनका हमारे दिलपर असर है । पण्डितजीको जो सगिनी मिली थी, वह उन्हीके योग्य थी, उनकी सगिनी उनके अणुव्रतोकी परीक्षाकी कसौटी थी, पर पण्डितजी उस कसोटीपर हमेशा सौटच सोना हो साबित हुए । उनकी सगिनीके स्वभावके बारेमें हमने सुना ही सुना है, पर वह सुना ऐसा नही है कि जिसपर विश्वास न किया जाय । हमारा देखा हुआ कुछ भी नही है, कोई ये न समझे कि हम ऐसी बात कहकर पूर्वापर - विरोध कर रहे है। चूंकि अभी तो हम कह आये हैं कि हमने पण्डितजीको पाससे देखा है और जब पाससे देखा है तो क्या सगिनीको नही देखा था, हाँ, देखा था पर हमने कभी उनको ऐसे रूपमें नही देखा, जैसा सुन रक्खा था, और इसके लिए तो हम एक घटना लिखे ही देते है ।
इटावा में 'तत्त्व - प्रकाशिनीसभा का जलसा था । पण्डितजी अपनी afrat समेत वहाँ आये हुए थे । उनकी सगिनी उस वक्त प्रेमीजीके लडके को जो उस वक्त वर्ष था डेढ वर्षका होगा, गोदमें खिला रही थी । वह लड़का उनकी गोदमें बुरी तरह रो रहा था, हम उस वक्त तक उनको पण्डितजीकी संगिनीकी हैसियतसे नही जानते थे । इसलिए हमने उनकी गोदसे उस लड़केको छीन लिया, और सचमुच छीन लिया, ले लिया नही । छीन लिया हम यो कह रहे है कि हमने उस बच्चेको लेते वक्त कहा तो कुछ नही, पर लेने के तरीकेसे ये बताया कि हम यह कह रहे है कि तुम्हें बच्चा खिलाना नही आता और होनहारकी बात कि वह बच्चा हमारी गोदमें आकर चुप हो गया । यह सब कुछ प्रेमीजी खड़े-खडे देख रहे थे । वे थोड़ी देर चुपके से हमारे पास आकर बोले कि "आप वडे भाग्यशाली है ।" मैने "पूछा- क्यो ?" बोले--"आपने पण्डितानीजीसे बच्चा छीन लिया और आपको एक शब्द भी सुननेको नही मिला । हम तो उस न जाने क्या-क्या अदाजा लगा रहे थे ।"
उस दिन बाद हम जब भी पण्डितजीसे मिले, हमने तो उनको इसी स्वभावमें पाया । यही वजह है कि हम उनके स्वभावके बारेमें जो इस मनी -अनार्द वात ÷ 1