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________________ गुरु गोपालदास वरैया १४९ कुछ भी सही, हाँ तो उनकी सगिनी उनके अणुव्रतकी कसोटी थी और उन्होने जीवनभर उनका साथ ऐसा निभाया कि जो एक अणुव्रती ही निभा सकता था 1 पण्डितजीने जीते जी दूसरी प्रतिमासे आगे वढनेकी कोशिश नही की, लेकिन एकसे ज्यादा ब्रह्मचारियोको हमने उनके पाँव छूते देखा, वह सचमुच इस योग्य थे । आज जो तत्त्व-चर्चा घर घरमें फैली हुई है और ऐसी बन गई है, मानो वह माँके पेटसे ही साथ आती हो, ये सब पण्डितजीकी मेहनतका ही फल है । वे गहरी - से गहरी चर्चाको इतनी आसान बना देते थे कि एक बार तो तत्त्वोका बिल्कुल अजानकार भी ठीक-ठीक समझ जाता था । यह दूसरी बात है कि अपनी अजानकारीके कारण वह उसे ज्यादा देरके लिए याद न रख सके । इसलिए उन्होने (जैन - सिद्धान्त - प्रवेशिका' नामकी एक किताब लिख डाली थी, उसे आप जैन - सिद्धान्तका जेबीकोश यानी पाकेट डिक्सनरी कह सकते है । पडितजीकी जीवनीसे जो कुछ सीख ली जा सकती है, उसका निचोड हम यह समझें है १ सच्चे या अणुव्रती बनना है तो निर्भीक वनो । २ निर्भीक वनना है तो किसीकी नौकरी मत करो, अपना कोई रोजगार करो । ३ रोजगार करते हुए अगर धर्म या धर्मचर्चाके वक्ता बनना चाहते हो तो अणुव्रतका ठीक-ठीक पालन करो, तभी दुकान चल सकेगी। ४ अणुव्रतोको अगर ठीक-ठीक पालन करना है तो अपनी हद बाँधो । ५. अपनी हद वाँघनी है तो किसी कर्त्तव्यसे बँधो । ६ कर्त्तव्यको ही अधिकार मानो । ७ अधिकारी बनो, अधिकारके लिए मत रोओ । - ज्ञानोदय, जुलाई १९५१
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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