________________
१४६
जैन-जागरणके अग्रदूत एक पण्डितजी ही थे जो धर्म और व्यवहार में कही भी सचाईको हाथसे नही खोते थे। तभी तो वह उन पण्डितोकी नज़रमें गिर गये जो धर्मके ज्ञाता थे, पर उसपर अमल करनेके अभ्यासी नही थे।।
पण्डितजी अणुव्रती थे, पर साथ-ही-साथ परीक्षा-प्रधानतामें पूरा विश्वास रखते थे, और जैसे-जैसे वह परीक्षा-प्रधानताको समझते जाते थे, वैसे-वैसे उसपर अमल करते जाते थे। दूसरो शब्दोमें वह धीरेधीरे परीक्षा-प्रधानी बनते जा रहे थे कि मौत उन्हें उठाकर ले गई। कोई अवचला यह सवाल उठा सकता है कि क्या वह शुरु-शुरूमें परीक्षाप्रधानी तही थे? हम उसे जवाब देंगे-हाँ, वह नहीं थे। वह शुरू-शुरूमें अन्धश्रद्धानी थे, कोरे कट्टर दिगम्वरी थे। उनकी कट्टरता दिनोदिन कम होती जा रही थी और अगर वह जीते रहते तो वह कट्टरता खत्म हो जाती
और फिर वह दिगम्बरी न रहकर जैन बन जाते और अगर कुछ और उमर पाते तो सर्वधर्म समभावी होकर इस दुनियासे कूच करते।
हम ऊपरके पैरेमें बहुत बड़ी बात कह गये है, पर वह छोटे मुंह बडी बात नहीं है। हमने पण्डितजीको बहुत पाससे देखा है। पण्डितजी हमको बहुत प्यार करते थे और जब भी हम उनसे मिले, उन्होने पूरी एक रात हमसे बिल्कुल जी खोलकर बातें की और हमारी वातें खुले दिलसे सुनी। हमसे जब वह वात करते थे तो एकदम अभिन्न हो जाते थे। हम ये सव कहकर भी यह नही कहना चाहते कि उन्होने हमसे कबूला कि वह कट्टर दिगम्बरी थे। इस तरह बेतुकी वात हम क्यो पूछने लगे और वह हमसे क्यो कहने लगें? हम तो ऊपरकी वात सिर्फ इसलिए लिख रहे है कि हमने उन्हें पाससे देखा है और उनका खुला हुआ दिल देखा है। वस उस नाते और सिर्फ उस नाते हम यह कहना चाहते है कि हम जो कुछ ऊपर कह आये है, वो वह है कि जो हमने नतीजा निकाला है ।
हमने यह नतीजा कैसे निकाला, यह बतानेसे पहले हम यह कह देना चाहते है कि जो आदमी परीक्षाप्रधानी बनने जा रहा है, वह किसी धर्म या पन्थका कितना ही कट्टर अनुयायी क्यो न हो, उस आदमीसे लाख