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________________ जैन-जागरणके अग्रदूत एक रोज सुबह उठकर देखा तो वाबाजी अपने कमरेसे मय अपनी चटाई और कमण्डलके गायव है। बादमे मालूम हुआ कि पहाड़ी-धीरज दिल्लीके श्रावकोंके अनुरोधपर कुछ दिनोके लिए वहाँ चले गये है। ८-१० रोज बाद जाकर देखा तो उनका पाँव टखनेसे लेकर घुटने तक बुरी तरह सूजा हुआ है। उसमेसे पीप और रक्त बह रहे है और बाबाजी ठोकरेसे रगड-रगडकर उसे और भी लहूलुहान कर रहे है और मट्टी थोपते जा रहे है। ____ मै देखकर खिजलाहटके स्वरमै बोला-"महाराज, किसीको बताया भी नही, दस डाक्टरोका प्रबन्ध किया जा सकता था। सुनकर खिलखिलाकर हँसे, फिर वोले-"भैया, तुम तो बड़ी जल्दी घबरा जाते हो, शरीर तो मिट्टी है, मिट्टीमें एक दिन मिल जायगो, याकी चाकरी कवली करूँ, तुम ही बताओ?" मेरी एक न चली, मिट्टी लगा-लगाकर ही पाँव ठीक कर लिया। इतना बडा तपस्वी, सयमी, निस्पृही, निरहकारी, क्षमाशील और पूजा-प्रतिष्ठाके लोभका त्यागी मुझे अपने जीवनमे अभी तक दूसरा देखनेको नहीं मिला। -'ज्ञानोदय' दिसम्बर १९५०
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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