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________________ बाबा भागीरथ तर्णी "कौन रोजाना आहार करने जानेकी इल्लतमे परे ? धावकोको नो मातार बनानेमे परेशानी होती ही है, अपना समय भी एक घण्टेगे अधिक गयं ही चला जाता है। यह महात्माजीने निराकुलताता बन गन्न बार निकाला। बस आप पाव गेहं भिगो दिये और ना नियं, फिर पार्टको निश्चिन्त । न कही जाने-आनेको चिन्ता, न कही गहन्याने गम्भाषण की परेशानी। इतना नमय स्वाध्यायके लिए और मिला।" उन्ही बिनागे में निमग्न होकर किसीको वताये बिना २०-२५ रोजने भीगे गेहें नया लेते थे । यो तो वाबाजी २५-३० वर्पने नमक, घी, दूध-दही नही गाने थे। केवल उवाले साग और सी रोटियां साने थे। जब जो मात्माजी के इस अनोखे आहारके सम्बन्ध मुना तो यह उबला नाग और जलांनी रोटी भी छोड दी। परन्तु वडोकी वाते वढी होती है । महात्माजी ४-५ रोज ही खूनी दस्त प्रारम्भ हो गये तो रोने उन्हें भीगे गहें मानने मना कर दिया और इसकी सूचना भी नवजीवनमे निकल गई, पन्नु बाबाजीको नवजीवन कौन पढकर नुनाता? उनका क्रम जारी रहा! अब समझाते है तो समझते नही, नवजीवन पटनेको देते है तो पढते नही, सुनाते है तो हँसकर टाल देते है । मैने मेधे हुए कण्ठने निवेदन किया-"महाराज, यह तो महात्माजीकी एक माधना थी। स्वास्थ्यके लिए हानिकर सिद्ध हुई तो उन्होने तर्क कर दी। वे तो जीवनमे अनेक तरहके प्रयोग करते है। आत्मा और मनके लिए अनुकूल हना तो जारी रखते है, अन्यथा छोड देते है। आपने भी केवल यही जाननेको कि गेहूं चबानेसे शरीर चल सकता है या नही, महात्माजीके प्रयोगका अनुकरण किया । जव महात्माजी उसे हानिकारक समझकर छोट बैठे और जनताको भी इसकी हानिसे अवगत कर दिया तब आपको भी यह प्रयोग छोड़ देना चाहिए।" ___गरज हमारे दिनभर रोने-धोनेसे तग आकर उन्हें भीगे गेहूँ छोड़ने पडे और फिर वही नमक-धी रहित आहार स्वीकार करना पड़ा।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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