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________________ ५६ जैन-जागरणके अग्रदूत था ओर आश्रममे ही ठहरे थे। आश्रमके नजदीक ही पहाड था, जहां लोग शौच आदिको जाते थे। मै आश्रमकी छतपर खडा हुआ था कि देखा १५-२० मिनिटके अन्दर ४-५ वार वावाजी उघरको गये-आये। मनमे वहम-सा हुआ, जाकर देखा तो वहाँ रक्तके पतनाले छूटे हुए है। देखकर जी घवरा गया। हे अरहत, यह बावाजीको क्या हुआ? कोई ऐसी-वैसी चीज तो किसीने नही खिला दी। दौडकर वावाजीके कमरेमें गया तो सहज स्वभाव बोले-"भैया, होतो कहा, ये तो शरीर है, यामें तो हजारो रोग भरे पडे है, कब कौन-सौ उभर आवेगो, याकी सार-सम्भार कौन करे?" और फिर लोटा लेकर पहाडकी तरफ चलते हुए। मैने साथ चलते-चलते कहा--"महाराज ! मुझे वहकाइये मत । स्पष्ट वताइये कि किस कारण यह सब हुआ है। परन्तु वे है कि हँसते हुए पहाडकी तरफ लपके जा रहे है और कहते जा रहे है-"भय्या, तुम तो वावरे हो, या शरीरको कितनो ही खवाओ'पिवाओ पर ऐव देनेसे नाय चूके । पढो नाय तेने पल रुधिर राध मल थैली, कीकस बसादित मैली। नव द्वार बहें घिनकारी, अस देह करे किम यारी॥ मै दौडकर शहरसे मुख्य-मुख्य ४-५ जैनियोको बुला लाया। बावाजीका यह हाल देखकर उनके भी तोते उड गये, दिल धक-धक करने लगा। मेरी खुद नब्ज रुक-रुककर-सी चलने लगी। वावाजीके अचानक खतरेमें 'पड जानेकी तो चिन्ता थी ही, परन्तु पुलिस खूनकी गन्ध सूंघती हुई आश्रम में आ धमकेगी। वावाजी तो अपनी इच्छासे मर रहे है, और मुझे उनकी सेवा करनेको पुलिस वेमौत उनके पास पहुँचा देगी, यह भय भी कम न था, क्योकि उन दिनो लाहौर और दिल्ली षड्यन्त्रके मुख्य कार्यकर्ता मेरे पास आया-जाया करते थे। बहुत अनुनय-विनय करनेपर मालूम हुआ कि बावाजी २०-२५ रोजसे भीगे हुए गेहूँ खाकर जीवन-निर्वाह कर रहे हैं। उन दिनो महात्मा गान्धीने इस तरहका प्रयोग किया था। इन्होने सुना तो ये प्रफुल्ल हो उठे।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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