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________________ ४४५ वावू अजितप्रसाद वकील में लघुसिद्धान्तकौमुदी थी, व्याकरणके सूत्रोकी पुनरावृत्ति कर रहा था। न में पत्नीके पास गया, न वह मेरे पास आई । उसने कई दफा वाहर जानेको दर्वाजा खटखटाया, और आखिर दर्वाजा खोल दिया गया। इस तरहके बरावर प्रयत्न किये गये, परन्तु हम आपसमे वार्तालाप तक नहीं करते थे। ___ सहधर्मिणीका स्वास्थ्य प्रवल था। ३१ वरसके वैवाहिक जीवनमे छह वच्चोकी जननी होनेपर भी उसको कभी हकीम, वैद्यकी आवश्यकता नही पडी। धार्मिक क्रियाकाण्डमें उसका गहरा श्रद्धान था। निर्जल उपवास महीनेमे एक-दो हो जाते थे। कभी-कभी निरन्तर दो दिनका निर्जल उपवास हो जाता था। और भी अनेक नियमोका पालन करती थी। पतली दवाका तो आजन्म त्याग था, केवल सूखी दवाकी छूट रखी थी, जिसके प्रयोगका कभी अवसर नही आया | १६१८ की अप्टाह्निकामे दो रोज़का उपवास करनेके बाद उसे हैजा हो गया और लाख प्रयत्न करने पर भी न बच सकी। गृहिणीके देहान्तके पहले ही मैने सरकारी वकालतसे तो त्यागपत्र दे दिया था। उसके देहान्तपर सव कानूनी पुस्तके तथा असवाव नीलाम करके दोनो कोठियाँ वेचकर, काशीवासके अभिप्रायसे वनारस चला गया। ___ काशी-स्याद्वाद-विद्यालयकी प्रवन्धकारिणी समितिका सदस्य मै उसकी स्थापनाके समयसे बरसो तक रहा। जो वालक वहां भर्ती होते थे, उनको भोजन, वस्त्र, विना दाम मिलते थे, और पढ़ाई निःशुल्क थी ही। फिर भी कुछ विद्यार्थी ऐसी सकीर्ण प्रवृत्तिके थे कि समाजके प्रतिष्ठित सज्जनोसे गुप्त पत्र लिखकर आर्थिक सहायता प्राप्त कर लेते थे। इस व्यवहारसे महाविद्यालयकी मह्मिामे वट्टा लगता था। एक सज्जनने कितने ही कपड़ेके थान भेंट किये । कमेटीने विद्यार्थियोंके वस्त्र एक प्रकारके वनवा देनेका प्रस्ताव किया। इसपर विद्यार्थियोने विद्रोह मचा दिया कि हम सिपाहियोकी-सी वर्दी नही पहनेंगे। हम अपने मनका
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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