________________
जैन-जागरणके श्रग्रदूत
२८ दिसम्बर १९१२ को बम्बई प्रान्तिक सभाकी पहली बैठक शुरू हुई । प० धन्नालालजीने मगलाचरण किया । सेठ हीराचन्द नेमिचन्दके प्रस्ताव करनेपर में सभापति चुना गया । मैने अपने भाषण मे जातिभेद-सम्वन्धी कुछ बाते कही तो कुछ सभासद् ऐसे बिगडे कि उन्हे शान्त करना दुप्कर हो गया । मूर्खताके सामने बुद्धिको हारना पडा और अल्पजनमतने बहुमतको दवा लिया | केवल दस-बीस महात्माओने ऐसा हुल्लड मचाया कि उस दिनकी सभाका कार्य समाप्त कर देना पडा । बादमें मालूम हुआ कि वाहरके सेठ लोगोकी तरफसे दो गुप्तचर भेजे गये थे और उन्हीकी कृपाकटाक्षसे यह सब कार्य्य हुआ । उन्होने बाज़ी - मार लेनेका तार उसी रोज दे दिया था । अन्ततः इस अधिवेशनमे सफलता अवश्य प्राप्त हुई । जो लोग अशान्ति उठानेवाले थे, और जिन्हें कुछ वाहरसे आये हुए महात्माओने वहकाकर उत्तेजित किया था, उन्होने पीछेसे पश्चात्ताप किया और उनमेंसे कई भाइयोने मेरी विदाईके समय स्टेशनपर आकर प्रेमपूर्वक विदाई दी ।
प० अर्जुनलाल सेठीको नजरबन्दीसे मुक्त करानेमे मैने १९१३ से १९२० तक निरन्तर प्रयत्न किया । व्र० सीतलप्रसाद, वैरिस्टर जगमन्दरलाल तथा महात्मा गाधीने पर्याप्त सहयोग दिया, कोशिश की ।
मेरा विवाह बाल्यावस्थामे ही कर दिया गया । माताजीके मरने के कुछ दिन बाद छह वरसकी उमरमे ही मेरी सगाई हो गई । पत्नी मुझसे डेढ वरस छोटी थी । हम दोनो नई मन्दिरकी जनानी ड्योढोके मैदानमे अनारके वृक्षके नीचे अनारकी कलियाँ चुन-चुनकर खेला करने थे । विवाह छह वरस पीछे हुआ ।
विद्योपार्जनका शौक मुझे वचपनसे था । अपनी कक्षा में सर्वोच्च रहता था । विवाहके समय १२ वरसका था । विषयवासना जागृत नही हुई थी । एड्रेस परीक्षा उत्तीर्ण हो चुका था । मई १८८६ में पत्नी दिल्ली से लखनऊ आई । सहवासके लिए मुझे और उसे लैम्प जलाकर कमरे में चन्द कर दिया गया। वह लैम्पके पास बैठी रही, में पलगपर लेटा रहा। हाथ
४४४