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बाबू अजितप्रसाद वकील
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जगह न थी।
श्री सम्मेदशिखर, गोम्मटेश्वर, गिरनारजी आदि तीर्थोकी भक्तिपूर्वक वन्दनाएँ की। १९१० में गोम्मटेश्वर स्वामीका महामस्तकाभिषेक था। उस ही अवसरपर महासभाके अधिवेशनका भी आयोजन किया गया था। प० अर्जुनलाल सेठी, महात्मा भगवानदीन भी पधारे थे। एक रोज महात्माजीने एक चट्टानपर अर्घ रख दिया, दूसरे दिन देखा कि वहाँपर सामग्रीका ढेर चढा हुआ है। वह स्थान पूज्य मान लिया गया। जनता अन्धश्रद्धासे चलती है, विचार-विवेकसे काम नही लेती।
एक दिन यह चर्चा चली कि यात्राके स्मारक रूप कुछ नियम सवको लेना चाहिए। भगवानदीनजीने कहा कि सब लोग गालीका त्याग कर चलें, गालीका प्रयोग बुरा है । लेकिन इस कुटेवका ऐसा अभ्यास पड़ गया है कि किसीकी भी हिम्मत नहीं हुई कि गालीका यावज्जीवन त्याग कर दे। अन्तत. सबने यह नियम लिया कि जहाँतक वनेगा, गालीका प्रयोग न करेंगे। यदि करे तो प्रायश्चित्तस्वरूप दण्ड लेंगे। उस नियमका परिणाम अच्छा हुआ। जव कभी ऐसा अशुभ अवसर आता है तो मैं उस दिनकी वार्ताको याद कर लेता हूँ और कषायावेगको रोक लेता हूँ। परिणामशुद्धिरूप त्याग, खाने-पीनेको वस्तु-त्यागसे कई गुना अच्छा और पुण्याश्रवका कारण है, किन्तु ऐसी प्रथा चल पड़ी है कि त्यागीवर्ग तथा साधुवर्ग गृहस्थोसे खाने-पीनेकी वस्तुओका ही त्याग कराते है। यदि कषायका त्याग कराएँ तो जैनसमाज और जैनधर्मका महत्त्व संसार में फैल जाय, महती धर्मप्रभावना हो।
गिरनारजीसे हम लोग वम्वई आये, रास्तेमे गुरुवर्य वादिगजकेसरी पं० गोपालदासजी वरैया, प० माणिकचन्द कौन्देय, खूबचन्द, देवकीनन्दन, वंशीधर (शोलापुरवाले), मक्खनलालजीका भी साथ हो गया था। हमारे स्वागतके लिए स्टेशनपर वम्बईके प्राय सभी दि० जैनसमाजके प्रतिष्ठित सज्जन उपस्थित थे। प्लेटफार्मपर लाल बन्नात विछाई गई थी। मुख्य बाज़ारोमेसे जुलूस निकाला गया।