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पूज्य काकाजी
श्री खुशालचन्द्र गोरावाला
बाबाजी विहार करते हुए सवत् १६८२ के अगहनमे मड़ावरा ( झासी) पधारे थे। मैं उस समय महरौनीमे दर्जा ६ (हिन्दी मिडिल ) मे पढ़ता था, लेकिन श्री १०८ मुनि सूर्यसागरजी विहार करते मडावरा पहुँचे थे, इसलिए आहार दानमे सहायता देनेके लिए माताजीने मुझे भी गाँव बुला लिया था । सयोगकी बात है कि जिस दिन स्व० बाबाजी मडावरा पधारे, उस दिन मुनि महाराजका मेरे घर आहार हुआ था और मं आहारदाता था । फलत अगवानीके समय ही लोगोने परिचय देकर मुझे बाबाजीकी अनुग्रहदृष्टिका पात्र वना दिया था। बावाजी इस वार जितने दिन मड़ावरा रहे, उतने दिन में यथायोग्य उनकी परिचर्या में उपस्थित रहा । एक दिन अपराह्नमे वावाजी अन्य त्यागियोकी प्रेरणाके कारण ग्रामका ऊजड किला देखने गये । साथमे अनेक बालकोके साथ में भी था, उस समय मैंने किलेसे सम्बद्ध कुछ ऐतिहासिक किवदन्तियाँ वावाजीको सुनाई । एकाएक बाबाजीने पूछा "तुम क्या पढ़ते हो ?” मेरे उत्तर देने पर उन्होने पूछा "मिडिलके बाद क्या पढ़ोगे ?" “घरके लोगोका अग्रेजी पढानेका इरादा है ।" उत्तर सुनते ही बोले - " तुम्हारे गांवके ही पडित गणेशप्रसादजी वर्णी है, इसलिए धर्म जरूर पढ़िओ ।" इसके बाद और क्या-क्या हुआ सो तो मुझे याद नही, पर इतना याद है कि मिडिलका नतीजा निकलने पर जव मँझले भइयाने ललितपुर भेजने की चर्चा की तो काकाजीने कहा -- "किस्तान नही बनाना है, धर्म पढ़ेगा।” में आज सोचता हूँ कि मेरी तरह न जाने कितने और बालकोको धार्मिक शिक्षा चावाजी की ही उस सत्य प्रेरणासे मिली है, जिसे उनका सहधर्मी वात्सल्य
कराता था ।