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________________ ६२ जैन-जागरणके अग्रदूत फलस्वरूप बा० देवकुमारजी आराने अपनी धर्मशाला भदैनी घाटमें पाठगाला स्थापित करनेकी स्वीकृति दे दी। और दूसरे सज्जनोने रुपये आदिके सहयोग देनेका वचन दिया। इस तरह इन युगल महापुरुषोकी सद्भावनाएँ सफल हुई और पाठशालाका कार्य छोटे-से रूपमे शुरू कर दिया गया। वावाजी उसके सुपरिण्टेण्डेण्ट बनाये गये । यही स्याद्वादमहाविद्यालयके स्थापित होनेकी कथा है, जो आज भारतके विद्यालयो में अच्छे रूपसे चल रहा है और जिसमे अनेक ब्राह्मण शास्त्री भी अध्यापन कार्य करते आ रहे है। इसका पूरा श्रेय इन्ही दोनो महापुरुषोको है। पूज्य वावा भागीरथजी वर्णी, और पूज्य प० गणेशप्रसादजी वर्णीका जीवनपर्यन्त प्रेमभाव बना रहा। वावाजी हमेशा यही कहा करते थे कि प० गणेशप्रसादजीने ही हमारे जीवनको सुधारा है । वनारसके बाद आप देहली, खुर्जा, रोहतक, खतौली, शाहपुर आदि जिन-जिन स्थानो पर रहे, वहाँको जनताका धर्मोपदेश आदिके द्वारा महान् उपकार किया है। वावाजीने शुरूसे ही अपने जीवनको निस्वार्थ और आदर्श त्यागीके रूपमें प्रस्तुत किया है। आपका व्यक्तित्व महान् था। जैनधर्मके धार्मिक सिद्धान्तोका आपको अच्छा अनुभव था । समाधितत्र, इप्टोपदेश, स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा, वृहत्स्वयभूस्तोत्र और आप्तमीमासा तथा कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रन्थोके आप अच्छे मर्मज्ञ थे, और इन्हीका पाठ किया करते थे। आपकी त्यागवृत्ति बहुत बढ़ी हुई थी। ४० वर्षसे नमक और मीठेका त्याग था, जिह्वा पर आपका खासा नियन्त्रण था, जो अन्य त्यागियोमें मिलना दुर्लभ है । आप अपनी सेवा दूसरोसे कराना पसन्द नहीं करते थे। आपकी भावना जैनधर्मको जीवमात्रमें प्रचार करनेकी थी और आप जहां कही भी जाते थे, सभी जातियोके लोगोसे मास-मदिरा आदिका त्याग करवाते थे। जाट भाइयोम जैनधर्मके प्रचारका और दस्सोको अपने धर्ममें स्थित रहनेका जो ठोस सेवाकार्य किया है, उसका समाज चिरऋणी रहेगा। -अनेकान्त, मार्च, १९४२
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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