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वावा भागीरथ वर्णी
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नियमसे करने लगे । इन कार्यो मे आपको उतना रस जाया कि कुछ दिन पश्चात् आप अपना धन्धा छोडकर त्यागी बन गये, और आपने बालब्रह्मचारी रहकर विद्याभ्यास करनेका विचार किया । विद्याभ्यान करनेके लिए आप जयपुर और खुर्जा गये । उम समय आपकी उम पच्चीन वर्षकी हो चुकी थी । खुजमें अनायास ही पूज्य प० गणेगप्रसादजीका समागम हो गया, फिर तो आप अपने अभ्यासको और भी लगन तथा दृढ़ता के साथ सम्पन्न करने लगे। कुछ समय धर्मशिक्षाको प्राप्त करने के लिए दोनो ही आगरेमें प० बलदेवदासजी के पास गये और पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका पाठ प्रारम्भ हुआ । पश्चात् प० गणेशप्रसादजीकी इच्छा अर्जन न्यायके पढनेकी हुई, तब आप दोनो बनारस गये और वह भेलूपुरा की धर्मशाला में ठहरे ।
एक दिन आप दोनो प्रमेयरत्नमाला और आप्तपरीक्षा आदि जैन न्याय - सम्वन्धी ग्रन्थ लेकर प० जीवनाथ शास्त्रीके मकान पर गये । सामने चौकी पर पुस्तके और १ रु० गुरुदक्षिणा स्वरूप रख दिया, तब शास्त्रीजीने कहा- "आज दिन ठीक नही है कल ठीक है ।" दूसरे दिन पुन निश्चित समय पर उक्त शास्त्रीजीके पास पहुँचे । शास्त्रीजी अपने स्थानसे पाठ्य स्थान पर आये और आसन पर बैठते ही पुस्तके और रुपया उठाकर फेंक दिया और कहने लगे कि "में ऐसी पुस्तकोका स्पर्श तक नही करता ।" इस घटनासे हृदयमे क्रोधका उद्वेग उत्पन्न होने पर भी आप दोनो कुछ न कह सके और वहाँसे चुपचाप चले आये । अपने स्थान पर आकर सोचने
कि यदि आज हमारी पाठशाला होती तो क्या ऐसा अपमान हो सकता था ? अब हमे यही प्रयत्न करना चाहिए, जिससे यहां जैनपाठशालाकी स्थापना हो सके और विद्याके इच्छुक विद्यार्थियोको विद्याभ्यासके समुचित साधन सुलभ हो सके। यह विचार कर ही रहे थे कि उस समय कामा मथुराके ला० झम्मनलालने, जो धर्मशालामे ठहरे हुए थे, आपका शुभ विचार जानकर एक रुपया प्रदान किया । उस एक रुपयेके ६४ कार्ड खरीदे गये, और ६४ स्थानोको अभिमत कार्यकी प्रेरणारूपमे डाले गये ।