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________________ ५३२ जैन-जागरणके अग्रदूत दूर-दूर तक उनकी प्रसिद्धिका प्रमुख कारण थां, उनका वह समम और उदार हृदय, जो क्षेत्रपालजीकी धर्मशालासे प्रतिदिन २-४ किन्ही भी अनजान-अपरिचित यात्रियोको सस्नेह अपने घर लिवा लाया करता था और उन्हें सप्रेम तथा ससम्मान भोजन कराके सन्तुष्ट और सुखी होता था। उनके इस स्वभावसे सामजस्य करनेकी दिशामे घरकी महिलाएं इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि १५-२० मिनिटके भीतर गरम पूडी और दो साग तैयार कर देना उनके लिए अत्यन्त सामान्य बात थी। न जाने किस समय अतिथि आजाएँ और भोजन बनाना पड जाय, चूल्हा कभी बुझ ही न पाता था। ललितपुरका सुप्रसिद्ध मदिर 'क्षेत्रपाल' उन्हीके परिश्रम और सरक्षणका फल है । एक बार स्थानीय वैष्णवोने उसपर अपना अधिकार घोषित किया था, किन्तु यह सेठ मथुरादासजीका ही साहस था कि उन्होने उसको अदालती और गैरअदालती-दोनो ही तरीकोसे लड़कर जैनमदिर प्रमाणित और निर्णीत कराया। उनके लिए क्षेत्रपाल सम्मेदशिखर और गिरिनार-सा ही पूज्य था। किस प्रकार उसकी यशोवृद्धि हो, प्रसिद्धि हो, आर्थिक स्थिति सुदृढ हो, वह तीर्थ, यात्रियोंके लिए आकर्षणका केन्द्र वने-यही उनके जीवनको सबसे बड़ी महत्त्वाकाक्षा थी। उनका प्रिय क्षेत्रपाल, जैनगति-विधियोका एक सक्रिय केन्द्र बन सके, इसीलिए उन्होने, वहाँ अभिनन्दन पाठशालाकी स्थापना की, जो अभी थोडे दिनो पहले ही वन्द हुई है। क्षेत्रपालके प्रति, सेठजीके मोह की पराकाष्ठा थी कि वे अपने पीनेके लिए जल भी, एक मील दूर क्षेत्रपाल स्थित कुएसे ही मँगाया करते थे । क्षेत्रपालके निकटस्थ कुछ भूमि, उन्होने स्थानीय जैन समाजसे कुछ विशेष शर्तोपर प्राप्त कर, अपने लिए एक वगीचेका निर्माण कराया था, जो आज भी है । प्रतिदिन प्रात काल ही इस वगीचेसे फूलोकी एक वडी टोकरी उनकी दूकानपर पहुंच जाया करती थी कि नगरके किसी भी व्यक्तिको-विशेषतया हिन्दुओको, जिन्हे पूजाके लिए फूल अभीष्ट होते है, वे सहज-सुलभ हो सके। जब तक
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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