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जैन - जागरण के अग्रदूत
एक दिन आपने अपने बड़े भाईसे साफ-साफ कह दिया कि मुझे विवाह नही करना, मेरे भाव दीक्षा लेनेके है । भाईने बहुत समझाया कि तुम लग्न करो चाहे न करो, तुम्हारी इच्छा, किन्तु दीक्षा मत लो। परन्तु बहुत समझाने पर भी उनका विरागी चित्त ससारमे नही लगा । दीक्षा लेने से पहले आप कितने ही महीनो तक आत्मार्थी गुरुकी खोज में काठियावाड, गुजरात और मारवाडके अनेक गाँवो में घूमे । अन्तमें सवत् १९७० में मार्गशीर्ष सदी नवमी, रविवारके दिन उमरालामें ही alera सम्प्रदाय हीराचन्दजी महाराजसे दीक्षा ले ली ।
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दीक्षा लेनेके पश्चात् आपने श्वेताम्बर आम्नायके शास्त्रोका गहरा अभ्यास किया। आपकी ज्ञानपिपासा और सुशीलताकी स्थाति शीघ्र ही सौराष्ट्र में फैल गई । जब कोई मुनि कहता - 'चाहे जितना उग्र चारित्र पालन करो, किन्तु यदि सर्वज्ञ भगवान्ने अनन्त जन्म देखे होगे तो उनमेसे एक भी जन्म घटनेका नही ।' आप तुरन्त बोल उठते - 'जो पुरुषार्थी है, उसके अनन्त जन्म सर्वज्ञ भगवान्ने देखे ही नही ।'
सं० १९७८ मे भगवान् कुन्दकुन्द विरचित समयसार ग्रन्थ आपके हाथमें आया । उसे पढते ही आपके आनन्दकी सीमा न रही। आपको ऐसा प्रतीत हुआ कि जिसकी खोजमें थे, वह मिल गया । समयसारका आपपर अद्भुत प्रभाव पडा, और आपकी ज्ञानकला चमक उठी ।
स० १९९१ तक कानजीने स्थानकवासी साधुकी दशामे काठिया - arsh अनेक गाँवो विहार किया और लोगोको जैनधर्मका रहस्य समarter यत्न किया । अपने व्याख्यानोमे आप सम्यग्दर्शनपर अधिक ज़ोर देते थे । 'दर्शन-विशुद्धिसे ही आत्म-सिद्धि होती है' यह आपका मुख्य सूत्र रहा है । वे अनेक वार कहते - " शरीरको चमडी उखाड़कर उसपर are fasadपर भी क्रोध नही किया, ऐसा चारित्र जीवने अनन्त वार पाला है, किन्तु सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त नही किया । लाखो जीवोसम्यक्त्व सुलभ नहीं है । की हिंसा से भी मिथ्यात्वका पाप अधिक है ।. -लाखो करोडोसे किसी एक चिरलेको ही वह प्राप्त होता है । आज तो
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