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________________ श्रात्मार्थी श्री कानजी महाराज सब अपने-अपने घरका सम्यक्त्व मान बैठे है ।" उस तरह अनेक प्रकारसे आप सम्यक्त्वका माहात्म्य लोगोके चित्तपर बैठानेका यत्न करने । प्राय. देसा जाता है कि साधुओके व्यारयान में वृद्धजन ही आते हैं, परन्तु आपके व्याख्यानमे शिक्षितजन - वकील, डाक्टर वगैरह भी आते थे। जिस गाँवमे आप पधारते, उस ग्राममे घर-घर धार्मिक वायुमण्डल छा जाता । तथा जैनधर्मके प्रति अनन्य श्रद्धा, दृढता और अनुभवके वलपर निकलनेवाले आपके वचन नास्तिकोको भी विचारमं डाल देते और कितनोको ही आस्तिक बना देते । ९५ पहले तो आप स्थानकवासी सम्प्रदायमे होने से व्याख्यानोमे मुख्यतया श्वेताम्बर शास्त्र पढते थे, किन्तु अन्तिम वर्षोमं नमयसार आदि अन्योको भी सभामे पढ़ा करते थे । यह क्रम स० १६६१ तक चलता रहा, किन्तु अन्तरंग में वास्तविक निर्ग्रन्य मार्ग ही सत्य मालूम होनेने स० १९९१ के चैत्र सुदी १३ मंगलवारको भगवान् महावीरके जन्मदिवसके अवसर पर आपने धर्म-परिवर्तन कर लिया और सत्यके लिए काठियावाड़के सोनगढ नामक छोटेसे गॉवमे जाकर बैठ गये । जो स्थानकवासी सम्प्रदाय कानजी मुनिके नामसे गौरवान्वित होता था, उसमे इस परिवर्तनले हलचल होना स्वाभाविक ही था, किन्तु वह हलचल क्रमसे शान्त हो गई। जिन लोगोका उनमे विश्वास था, वे ऐसा विचार कर कि 'महाराजने जो किया वह समझकर ही किया होगा' तटस्थ वन गये और मुमुक्षु तथा विचारक वर्ग तो पहले से भी अधिक उनका भक्त वन गया । परिवर्तनके वाद आपका मुख्य निवास सोनगढमे ही है । आपकी उपस्थितिसे सोनगढ़ एक तीर्थधाम-सा वन गया है । विभिन्न स्थानोसे अनेक भाई-बहन आपके उपदेशका लाभ लेने सोनगढ आते रहते हैं । उनके निवास तथा भोजनके लिए वहाँ एक जैन अतिथिगृह है । उसमे सब भाई समयसे एक साथ भोजन करते है ।' अनेक मुमुक्षु भाई-बहनोने तो वहाँ अपना स्थायी निवास स्थान बना लिया है ।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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