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________________ ४४१ । वाबू अजितप्रसाद वकील है। मेरा यह भी प्रयल रहा कि दैनिक फीस २५ रु० के वजाय ५० रु० कर दी जाय, किन्तु असफल रहा। आखिर असन्तुष्ट होकर १९१६ ई० में मैने त्यागपत्र दे दिया। सन् १९१० में मै आल इण्डिया जैन एसोसियेगनके वार्षिक अधिवेशनका अध्यक्ष निर्वाचित होकर जयपुर गया। पं० अर्जुनलाल सेठी वी० ए० ने 'जन-शिक्षण-समिति' स्थापित कर रखी थी। एक आदर्श सस्था थी। श्री दयाचन्द गोयलीय छात्रालयके प्रवन्धक और समितिमें अध्यापक भी थे। श्री गेन्दनलाल सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट वोर्ड रुड़की तथा भगवानदीनजी असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर, दिल्ली-निवासी जगन्नाथ जौहरी, भाई मोतीलाल गर्गसे भी वहाँ मिलना हुआ और सर्वसम्मतिसे यह निश्चय हुआ कि एक ब्रह्मचर्याश्रमकी स्थापना की जाय । परिणामस्वरूप पहली मई १९११, अक्षयतृतीयाके दिन हस्तिनागपुरमें श्री ऐलक पन्नालालजीके आशीर्वादपूर्वक "श्री ऋषभब्रह्मचर्याश्रम"की स्थापना हुई। अक्षयतृतीयाकी पुण्यतिथिमें राजा श्रेयांसने हस्तिनागपुरमें एक वर्पके उपवासके पश्चात् भगवान् ऋषभदेवको इक्षुरसका आहार दिया था। ___ भगवानदीनजीने नौकरीसे त्यागपत्र देकर २६ वर्षकी आयुमें ही आजन्म ब्रह्मचर्य्यव्रत ले लिया। तीन बरसके इकलौते बेटेको आश्रमका ब्रह्मचारी बना दिया। उनकी पत्नी वम्बई श्राविकाश्रममें चली गई । अधिष्ठाता पदका भार भगवानदीनजीने स्वीकार किया। मत्रिपद मुझे दिया गया। हस्तिनागपुर मेरठसे २६ मील दूर है। १६ मील घोडागाड़ीका रास्ता था, शेष ७ मील वैलगाडीसे या पैदल जाना पड़ता था। तीन दिनकी छुट्टीमें मै भी चला जाया करता था। सरकार उन दिनो ऐसी सस्थाओको सन्देहकी दृष्टि से देखती थी। जहाँतक मुझे मालूम हुआ एक पुलिसका जासूस आश्रममें अध्यापकके रूपसे लगा हुआ था। जैन-समाजके पडिताई पेशेवर और धनिकवर्गको भी आश्रमके कार्यमें पूर्ण श्रद्धा नही थी । परिणाम यह हुआ कि ४ वरस पीछे मुझको
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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