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________________ जैन-जागरणके अग्रदूत प० सन्तलालजीने दिया था, दूषित वताकर स्वय नवीन उत्तर लिखकर भेजा, जिससे यह वहस विल्कुल ही नवीन रूपमें बना दी गई । इस समय प० सन्तलालजीका देहान्त हो चुका था। इस कारण रायसाहबने भीमसैनजीका लिखा हुआ यह नवीन उत्तर वा नवीन तर्क मेरे पास भेजकर जैन पण्डितोसे इसका उत्तर लिखकर भेजनेको बहुत दवाया। रायसाहवका यह खयाल था कि प० भीमसैनजी-जैसे महान् विद्वान्के इस नवीन तर्कका जवाब किसी भी जैन पण्डितसे नही दिया जावेगा। इस ही कारण उन्होने बडे गर्वके साथ मुझको लिखा था कि यदि तुम्हारे जैन पडित इसका उत्तर न दे सकें तो तुम जैनधर्मपरसे अपना श्रद्धान त्यागकर आर्यसमाजी हो जाओ। मैने प० भीमसैनजीकी इस बहसको सहारनपुरमें सव ही जैन विद्वानोको दिखाया और इसका उत्तर लिखनेकी प्रार्थना की, परन्तु कोई भी इसका उत्तर लिखनेको तैयार नही हुआ। जब इस भारी लाचारी का जिक्र प० ऋषभदासजीसे किया गया तो उन्होने कहा कि घबराओ मत इसका उत्तर मै लिख दूंगा, और छ दिनोके वाद उन्होने उसका उत्तर लिखकर मेरे पास भेज दिया और वह मैने रायसाहवके पास भेज दिया, जिसको पढकर रायसाहब और उनके आर्यसमाजी विद्वान् ऐसे कायल हुए कि फिर आगे इस बहसको चलानेकी उनकी हिम्मत नहीं हुई और बहस बन्द कर दी गई। इन ही दिनो पं० चुन्नीलाल और मुशी मुकुन्दराय मुरादाबाद-निवासी दो महान् जैन परोपकारी विद्वान् सारे हिन्दुस्तान में जैन जातिकी उन्नति और उत्थानके वास्ते दौरा करते फिरते थे। जहाँजहाँ वे जाते थे, वहाँ-वहाँ जैन-सभा और जैन-पाठशाला स्थापित कराते थे। इस प्रकार उन्होने सैकडो स्थानोपर सभा और पाठशाला स्थापित करा दी थी। मथुरामें जैन-महासभा और अलीगढमें जैनमहाविद्यालय भी उन्होने ही स्थापित कराये थे। दो साल इस प्रकार दौरा करनेके वाद मुशी मुकुन्दरायको गठियाबाय हो गई, तो भी उन्होने दौरा करना नहीं छोडा । फिर एक वर्षके बाद उनका देहान्त हो गया । वे महान् विद्वान्,
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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