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________________ पं० ऋपभदास १९५ सभाचतुर और महान् उच्च कोटिके वक्ता और उपदेशक थे। उनके देहान्तके कारण यह दौरा वन्द हो गया और महासभा भी वन्द हो गई। फिर इसके दो वर्पके बाद मैने मथुरा जाकर यह महासभा स्थापित कराई थी और जैनगजट जारी किया था, जो अब चल रहे है । दौरा करते समय जब यह दोनो विद्वान् सहारनपुर आये थे, तब मैंने प० ऋपभदामजी का लिखा हुआ ५० भीमसनजीके महान् तर्कका उत्तर इन दोनो विद्वानोको दिखाकर पूछा था कि यह उत्तर ठीक है या नही ? जिसको देखकर उन्होने कहा था कि यह उत्तर अत्यन्त ही उच्च कोटिका है और किसी महान् गिरोमणि जैन विद्वान्का लिखा हुआ है, तब मैने जाहिर किया कि यह ऋपभदासजीका लिखा हुआ है तो उन्होने किसी तरह भी विश्वास नहीं किया और कहा कि हम उसको अच्छी तरह जानते है । यह उत्तर ऐसे नौजवानका नही हो सकता है, यह तो किसी महान् अनुभवी विद्वान् का ही लिखा हुआ है। तव मैने ऋपभदासजीको बुलवाकर इन विद्वानोके सामने पेश किया, और कहा कि आप इनकी भली-भाँति परीक्षा कर लें, यह इन्हीका लिखा हुआ है । तिसपर मुंशी मुकुन्दरायजीने दो घण्टे तक तर्कमें उनकी कड़ी परीक्षा ली और अन्तमें आश्चर्यके साथ यह मानना ही पड़ा कि यह महान् उत्तर इन्हीका लिखा हुआ है। इसके बाद मेरा उनका यही मशविरा हुआ कि इस विपयपर एक ऐसी महान् पुस्तक लिख दी जावे, जिसमें सव ही तर्क-वितर्कोका उत्तर आ जावे और कोई भी वात ऐसी बची न रहे, जिसकी वावत किसी विद्वान् से पूछनेकी जरूरत रहे । इस मशविरेके वाद ही उन्होंने 'मिथ्यात्वनाशक नाटक' लिखना शुरू किया और एक वर्षकी रात-दिनकी भारी मिहनतके वाद यह महान् अद्भुत भारी पुस्तक तैयार हो पाई । तैयारीके कुछ दिनो पीछे ही, उनकी दूकानमें रातको चोरी होकर यह पुस्तक भी चोरी चली गई। पक्का सन्देह उनका यही था कि पुस्तकके ही चुरानेके वास्ते ईर्ष्यावश किसीने यह चोरी कराई है, जिसपर उन्होने धैर्य धर, फिर दोबारा
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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