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जैन-जागरणके अग्नदूत अवकाश ही नहीं है।" यह उनके अन्तरका एक और चित्र है, साफ और गहरा।
१० अगस्त १९२३ को वे यह दुनिया छोड़ चले। मृत्युका निमन्त्रण माननेसे कुछ ही मिनट पहले उन्होने नये वस्त्र वदले और भूमिपर आनेकी इच्छा जताई। उन्हें गोदमें उठाया गया और नीचे उनका शव रखा गया। जीवन और मृत्युके बीच कितना सक्षिप्त अन्तर । ला० जम्बूप्रसाद, एक पुरुप, सघर्प और शान्ति दोनोमें एक रस | वे आज नहीं है, किन्तु उनकी भावना आज भी जीवित है ।
-अनेकान्त १९४३
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