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________________ सेठ जम्वूप्रसाद ५२७ उनके प्रिय विपय थे। अपने समयके श्रेष्ठ जैन विद्वान् श्री पन्नालालजी न्यायदिवाकर सदैव उनके साथ रहे और लालाजीका अन्तिम समय तो पूर्णतया उनके साथ शास्त्रचर्चा में ही व्यतीत हुआ। उनकी तेजस्विता, सरलता और धर्मनिष्ठाके कारण समाजका मस्तक उनके सामने झुक गया और समाजने न सिर्फ उन्हें 'तीर्थभक्तशिरोमणि' की उपाधि दी, अपना भी शिरोमणि माना । अनेक संस्थाओके वे सभापति और सचालक रहे और समाजका जो कार्य कोई न कर सके, उसके करनेकी क्षमता उनमें मानी जाने लगी। समाजकी यह पूजा पाकर भी, उनमें पूजाकी प्यास न जगी। उन्होने जीवनभर काम किया, यशके लिए नही, यह उनका स्वभाव था, विना काम किये वे रह नहीं सकते थे। उनकी मनोवृत्तिको समझनेके लिए यह आवश्यक है कि हम यह देखें कि सरकारी अधिकारियोके साथ उनका सम्पर्क कैसा रहा? उनके नामके साथ, अपने समयके एक प्रतापी पुरुष होकर भी, कोई सरकारी उपाधि नही है। इस उपाधिके लिए खुशामद और चापलूसीकी जिन व्याधियोकी अनिवार्यता है, वे उनसे मुक्त थे। उनके जीवनका एक क्रम था-आज तो सरकारी अधिकारी ही अपने मिलनेका समय नियत करते है, पर उन्होने स्वय ही सायकाल ५ वजेका समय इस कार्यके लिए नियत कर रक्खा था। ज़िलेका कलक्टर यदि मिलने आता, तो उसे नियमको पाबन्दी करनी पड़ती, अन्यथा वह प्रतीक्षाका रस लेनेके लिए बाध्य था । लखनऊ दरवारमें गवर्नरका निमन्त्रण उन्हें मिला। उन्होने यह कहकर उसे अस्वीकृत कर दिया कि मै तो ५ वजे ही मिल सकता हूँ, विवश, गवर्नर महोदयको समयकी ढील देनी पड़ी। आजके अधिकाश धनियों का नियम तो दारोगाजीकी पुकारपर ही दम तोड़ देता है। कई वार उन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनानेका प्रस्ताव आया, पर उन्होने कहा-"मुझे
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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