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________________ जैन-जागरणके अग्रदूत हमने ला० जम्बूप्रसादजीको नही देखा, पर इस सारी स्थितिकी हम सही-सही कल्पना करते हैं, तो एक दृढ आत्माका चित्र हमारे सामने आ जाता है । आँधियोंमें अकम्प और सघपोंमें शान्त रहनेवाली यह दृढता, परिस्थितियोकी ओर न देखकर, लक्ष्यकी ओर देखनेवाली यह वृत्ति हो वास्तव में जम्बू प्रसाद थी, जो लाला जम्बूप्रसाद नामके देहके भस्म होनेपर भी जीवित है, जागृत है, और प्रेरणाशील है । इस तस्वीरका एक कोना और हम झांक लें। अवतक देखे तीनो गहरे रंग है, दृढताके और अकम्पके, पर चौथे कोनेमें वडे 'लाइट कलर' है-हल्के-हल्के झिलमिल और सुकुमार । धर्मके प्रति आस्था जीवनके साथ लिये ही जैसे वे जन्मे थे । कॉलेज में भी स्वाध्याय- पूजन करते और धर्म कार्योंमें अनुरक्त रहते । कॉलेजमें उन्हें एक साथी मिले ला० धूर्मासिंह । ऐसे साथी कि अपना परिवार छोडकर मृत्युके दिन तक उन्हीके साथ रहे । ला० जम्बूप्रसादके परिवारमें इसपर ऐतराज़ हुआ, तो वोले- में यह स्टेट छोड सकता हुँ, धूर्मासिंहको नही छोड सकता, और वाकई जीवनभर दोनोने एक दूसरेको नही छोडा । दत्तक पुत्रोका सम्बन्ध प्राय अपने जन्म परिवारके साथ नहीं रहता, पर वे बराबर सम्पर्क में रहे और सेवा करते चल । अपने भाईकी बीमारीमें १०० रु० रोजपर वर्षो तक एक विशेषज्ञको रखकर, जितना खर्च उन्होने किया, उसका योग देखकर आँखें खुली ही रह जाती है ' १९२१ में, अपनी पत्नीके जीवनकालमें हो आपने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था और वैराग्यभावसे रहने लगे थे। अप्रैल १९२३ में वे देहलीकी विम्वप्रतिष्ठामें गये और वहाँ उन्होने यावन्मात्र वनस्पतिके आहारका त्याग कर दिया | जून १९२३ में उन्होने अपने श्रीमन्दिरकी वेदीप्रतिष्ठा कराई और इसके बाद तो वे एकदम उदासीन भावसे सुख-दुख में समता लिये रहने लगे । आरम्भसे ही उनकी रुचि गम्भीर विषयोके अध्ययनमें थी - कॉलेज में वी० ए० में पढते समय, लॉजिक, फिलासफी और संस्कृत साहित्य ५२६
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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