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जैन-जागरणके अग्रदूत चिल्लाकर यह भी कहता है कि यह मैं ही हूँ जो भूखोका पेट भर रहा हूँ। पर अर्जुनलाल सेठीने इस तरह भीख मांगकर पाये हुए रुपयेसे न कभी किसीपर एहसान जमाया और न कभी प्लेटफार्मसे तो क्या कोनेकतरेमे भी अपने दानकी कोई बात कही। वह सच्चे मानोमे त्यागी था। उसने अपने आपको कभी पैसेका मालिक नही समझा, पर समझा तो यह समझा कि वह पोस्टमैन है जो इधरसे रुपया लाता है और उपर दे देता है। यहाँ हो सकता है कि कोई व्यवहार-धर्मके रंगमें बुरी तरहसे रंगा हुआ यह सवाल उठा बैठे कि अर्जुनलाल सेठी भीख मांगकर ही नही पैसा इकट्ठा करते थे, बल्कि इस तरहसे भी रुपया जुटा लेते थे, जिसे वह जानते थे कि यह रुपया ठीक तरहसे हासिल नही किया गया। उसे हम क्या कहे, उसे दलीलोसे समझाना किसी तरहसे नही हो सकता। उसे तो हम यही कहेंगे कि वह एक मर्तवा अपने भीतर आज़ादीकी आग सुलगाये और देखे कि उस आगकी जब लपटे उठती है तो वह क्या करता है और व्यवहार-धर्मको कैसे निभाता है। अर्जुनलाल सेठीको निश्चय और व्यवहार-धर्मके दोनो रूपोकी जानकारी वहुत काफी थी और इस नाते वह पण्डित नामसे पुकारे जाते थे। पर वह कोरे पण्डित नही थे । कोई दिन ऐसा नही जाता था जिस दिन वह रातको वैठकर अपने दिन भरके कामका अकेलेमें पर्यालोचन नही कर जाते थे। उन्होने तो कभी अपने मुंहसे नहीं कहा पर उनके पास रहकर हमारा यह अनुभव है कि उनका जीवन सचमुच जलमे कमलकी तरह था। __जयपुर कालेजसे बी० ए० करने के बाद उनके लिए रियासतमें नौकरी का मार्ग खुला हुआ था, उनके साथियो और करीवी रिश्तेदारोमेंसे कई उस रास्तेको अपना चुके थे। पर ये कैसे अपनाते, इन्हें नौकरीसे क्या लेना था, इन्हे तो उसी राज्यके जेलखानेका मेहमान बनना था ।
बी० ए० इन्होने फारसी लेकर किया था और सस्कृत घरपर सीखी थी। धर्मशिक्षाके मामलेमे वे चिमनलाल वक्ताको अपना गुरु मानते थे. हमने वक्ताजीके व्याख्यान सुने है। श्रोताओको समझानेकी शैली