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________________ १०६ जैन-जागरणके अग्रदूत लिए वे चली, जैनत्वकी साधनाने उन्हें प्रगति दी। श्रद्धा और साधना दोनो दूर तक साथ-साथ चली। श्रद्धा समर्पणमयी है, साधना ग्रहणशील, श्रद्धा साधनामें लीन हो गई। श्रद्धामयी साधना मूक भी है, मुखरित भी। मुखरित साधना, जिसमें अन्तर और बाह्य मिलकर चलते है-बुद्ध, महावीर और गान्धीकी साधना, जिसमे आत्मचिन्तन भी है, जगकल्याण भी। यही पथ चन्दावाईजीने चुना। विगत वर्षों में उन्होने जो आत्मसाधनाकी अन्तरमे तप तपा, वह उनकी आकृतिमें, जीवनके अणु-अणुमें व्याप्त है। प्रत्यक्ष, जिसके अनुसन्धानमे श्रम अभीष्ट नही, और इन्ही वर्षो में उन्होंने लोक-कल्याणकी. जो साधना की, उसका मूर्तरूप आराका 'जैनवाला-विधाम' है देशकी एक प्रमुख सेवा-सस्था । आत्मसाधनामे सन्यासी, लोकव्यवहारमें सासारिक, विश्व और विश्वात्माका समन्वय ही इस महिमामयी नारीको जीवन-साधना है । जीवनमें धार्मिक, व्यवहारमें देशसेवक, सिद्धान्तोमें अतीतकी मूलमे, प्रगतिमे नवयुगकी छायामे, जिसकी एक मुट्ठीमे भूत, दूसरीमें भविष्य और वर्तमान जिसके जीवनोच्छ्वासमे व्याप्त, यही पण्डिता चन्दावाई है। युगका सन्देश वहन करती साधनामयी इस नारीको भी शत-शत प्रणाम । --अनेकान्त, नवम्बर १९४३
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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