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________________ प्रथम दर्शन श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य गहनी मई नन् १९३६ को पत्र मिला-"आप इण्टरव्यू के लिए नन्ने 7 आइये, मार्गव्यय मिल जायगा ।" परने मेरे मनमें गुदगदी पैदा करदी, मेरे हृदयकुञ्जमे मदिर भाव विहगोका कूजन होने लगा। वीणा तारोमे नोया हुआ नगीन मुवन्ति हो उठा। मनने नहा-मफलता निपट है, आजीविका मिल जायेगी, पर हृदयने वेदनाक एक गजल छोयो पकाडकर झकझोरते हुए कहा- यह अधर छन्तगती मुन्धान प्रतिया नवल उल्लाममात्र है। आराम धर्मगान्वना पण्तिा चन्दाबाजीले समक्ष जाना है, बडे-बटे पण्डित उनके पाण्डित्यके समक्ष मूल हो जाने है, तुम नये रॅगस्ट, अनुभवगून्य, मात्र पिताबी कोडे टिक सकोगे? हृदयके इस कयनको कल्पनाने अवहेलना की। वह मुग्न-दुग्य, हार-विषाद. मकल्प-विकल्पके माथ आंग्व-मिचौनी मेलने लगी। कर्मयोगका विग्वानी इम अनन्त विश्वमे साधनागीन होकर ही जीवनके सत्यको प्राप्त करना है। सहता अन्धकारमय क्षिनिज पर एक निमन ज्योतिको प्रभा अवतरित हुई और अन्तम्से ध्वनि निकली कि चलकर लिंपी गुरुवयं पण्डित कैलागचन्द्रजीसे सलाह क्यो न ली जाय? वेदनासे भाराच्छन्न मन लिये गुरुवर्यके समक्ष पहुंचा और कांपने हुए पत्र उनके हाथमे दे दिया। एक ही दृष्टिमे पत्रके अक्षरोको आत्ममात् करते हुए वह बोले---"तुम काम करना चाह्ने हो, आरा अच्छी जगह है, चले जाओ। ७० प० चन्दावाईजीके सम्पर्कसे तुम्हारा विकास होगा, सोना बन जाओगे।" ___ मैंने धीरेसे कहा-"पण्डितजी। डर लगता है। इण्टरव्यूमें क्या कहूंगा।"
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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