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________________ जैन-जागरणके अग्रदूत गुरुदेवने प्रेमभरे शब्दोमे कहा-"डरनेकी बात नही, संभलकर उत्तर देना।" वार्षिक परीक्षा समाप्त होनेपर ५ मईके प्रात.काल कल्पनाके कमनीय पखो पर उडता हुआ, उल्लासकी वीणा पर भव्य भावनाओको कोमल अंगुलियाँ फेरता, अनेक अरमानोको हृदयमै समेटे, खिन्न मन मैना सुन्दर भवन (नयी धर्मशाला) आरामै आ पहुँचा। दरबानने एक कोठरी ठहरनेको दे दी, सामान एक किनारे रख नित्यकर्मसे निवृत्त हुआ; और स्नान, देवदर्शनके पश्चात् कर्मचारियोंसे मालूम किया कि प० चन्दावाईजीके दर्शन कहाँ होगे? धर्मगालाके मैनेजर काशीनाथजीने कहा-"कलसे वे कोठी (श्री वायू निर्मलकुमारजीके भवन) मे आई हुई है । आप अभी ७ वजे उनसे कोठीमें ही मिल आइये, दो बजे वह आश्रम चली जायेंगी।" मैने नम्रतापूर्वक कहा-~-"कृपया मुझे कोठीका रास्ता बतला दें, यदि अपने यहाँके आदमीको मेरे साथ कर दे तो मैं अपनेको धन्य समझू ।' उन्होंने मेरे साथ सहानुभूति प्रकट की और धर्मशालाके सेवक चतुर्गुणको मेरे साथ कोठी तक कर दिया। वहां जाकर मैने दरबानसे पूछा-"श्री प० चन्दाबाईजीसे मुलाकात कहाँ होगी ?" उसने कहा कि "आप छोटी बहूजीसे मिलना चाहते है ? इस समय तो वह मन्दिरमे सामायिक कर रही है।" मैंने कहा-"नही जी, मुझे प० चन्दावाईजीसे मिलना है, जो वालाविश्रामकी सचालिका है ।" कठिनाई यह थी कि दरबान भोजपुरीमें बोलता था और में बोलता था हिन्दीमें । दोनो ही परस्पर एक दूसरेकी बातोको ठीक तरहसे समझनेमें असमर्थ थे। वडी देरतक वह छोटी बहूजी, छोटी बहूजी कहता रहा और मै प० चन्दावाईजीको पूछता रहा। इसी बीच ऊपरसे कोई रसोइया आया और वह हम दोनोकी बातोको सुनकर बोला-"हाँ, हाँ, वही धनुपुरा वाली वहूजी | अभीअभी सामायिक करके आई है । आप क्या चाहते हैं ? मैं ऊपर पूछकर आता हूँ, अपना नाम बतला दीजिये।"
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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