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________________ बावू अजितप्रसाद वकील ४४७ ७ मार्च १९१२ को श्वेताम्बर जैन-सघकी ओरसे दिगम्बर जैनसमाजके विरुद्ध हजारीबागकी कचहरीमें नालिश पेश की गई । उनका दावा था कि सम्मेदशिखरजी निर्वाणक्षेत्रस्थित--टौक, मन्दिर, धर्मशाला सब श्वेताम्बर सघ द्वारा निर्मित हुई है। दि० जैनियोको श्वेताम्बर सघकी अनुमतिके बिना प्रक्षाल-पूजा करनेका अधिकार नही है, न वह धर्मशालामें ठहर सकते है। इस मुकदमे में उभयपक्षके कई लाख रुपये व्यर्थ व्यय हुए ! १६१७ में मै और भगवानदीनजी काग्रेस अधिवेशनके अवसरपर कलकत्ते गये और वहाँ महात्मा गावीसे मिलकर निवेदन किया कि आप इस मुकदमेबाजी और मनोमालिन्यका अन्त करा दे। महात्मा गाधीने हमारी प्रार्थना ध्यानसे सुनी और मामलेका निर्णय करना स्वीकार किया, और कहा कि चाहे जितना समय लगे, मै इस झगड़ेका निवटारा . कर दूंगा; किन्तु उभयपक्ष इकरारनामा रजिस्ट्री कराके मुझे दे दे कि मेरा निर्णय उभयपक्षको नि सकोच स्वीकार और माननीय होगा। हम दोनो कितनी ही वार रायवहादुर बद्रीदासजीकी सेवामें उनके निवासस्थानपर गये और उनसे प्रार्थना की कि वह श्वेताम्बर समाजकी ओरसे ऐसे इकरारनामेकी रजिस्ट्री करा दें। हम दि० समाजसे रजिस्ट्री करा देनेकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते है। लेकिन उन्होने वातको टाल दिया और मेल-मिलापके सव प्रयत्न व्यर्थ हुए। परिणामत जैनसमाजके प्रचुर द्रव्यका अपव्यय और पारस्परिक मनोमालिन्यकी वृद्धि हुई। वकील और पैरोकार-मुख्तार अमीर हो गये। मैने ७ वर्षतक १९२३ से १६३० तक तीर्थक्षेत्र कमेटीका काम किया। ४६,००० रु० मेरे नामसे तीर्थक्षेत्र कमेटीकी वहीमें दान खाते जमा है। १९२६ में काकोरी षड्यन्त्रका मुकदमा चला। मैने रामप्रसाद विस्मिलकी नि शुल्क वकालत की। मैने उसे सलाह दी कि वह काकोरी डकैती करना और क्रान्तिकारी दलका सदस्य होना स्वीकार कर ले। मै उसे प्राणदण्डसे वचा लंगर; क्योकि उसने किसी भी डकैतीमें किसी
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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