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________________ जैन-जागरण के अग्रदूत १०२ और धर्मशास्त्र दोनोने उसके पथमें ऊँचे-ऊंचे 'बोर्ड' खडे किये है, जिनपर लिखा है, सयम, ब्रह्मचर्य, त्याग, सतीत्व और वन्दनीय, पर व्यवहारमे प्राय जेठ, देवर, श्वशुर और जाने किस-किसको पशुताका शिकार । रेलवे डिपार्टमेण्टके 'सफरी' विभागके कर्मचारियोकी तरह जव आवRear हो, पिताके घर और जव ज़रूरत हो श्वशुरके द्वार जा 'कर्तव्यपालन' के लिए बाध्य, ऐसा कर्तव्य पालन, जिसमे रस नही, अधिकार नही, ममता नही, कैदीकी मशक्कतको तरह अनिवार्य, पर महत्त्वहीन और मानहीन | यह हमारे राष्ट्रके मध्ययुगकी विधवा है, समाजका अग होकर भी, सामाजिक जीवनके स्पन्दनसे शून्य । साँस चलता है, केवल इसीलिए जीवित; अन्यथा जीवनके सव उपकरणोसे दूर, जिसने सव कुछ देकर भी कुछ नही पाया, वलिदान के बकरेकी तरह वन्दनीय | जिसने ठोकरे खाकर भी सेवा की और रोम-रोममे अपमानकी सुइयोसे विधकर भी विद्रोह नही किया । हमारे सास्कृतिक पतनकी प्रतिविम्व और सामाजिक ह्रासको प्रतीक इस वैधव्यमूर्तिको भी प्रणाम 1 * * * पति मर गया है, पत्नी १६ वर्षकी है । हँसनेको उत्सुक-सी कली पर विपदाका जव पहाड़ टूटा, माँके विलापका धुवाँ जब आकाशमं भर चला, परिवार और पास-पडोस जब कलेजेकी कसकमे कराह उठे, तव पिताने धीमे, पर दृढ स्वरमे कहा -- रोओ मत, उसकी चूडियाँ मत उतागे, मैं अपनी बेटीका पुनर्विवाह करूंगा तो जैसे क्षण भरको बहती नदी ठहर गई । साथियोने हिम्मत तोडी, पचोन पचायत के प्रपच रचे, सुसराल - वालोने कानूनी शिकजोकी खूंटियाँ ऐंठकर देखी, पर सुधारक पिता दृढ रहा। उसन युगकी पुकार सुनी और एक योग्य वरके साथ अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया, धूमधामसे, उत्साहसे, गम्भीरतासे । कन्याका मन आरम्भ में हिरहिराया, फिर अनुकूल हुआ और फिर उसका मन अपने नये घरमे रम गया । पतिके प्रति अनुरक्त, परिवारके प्रति सहृदय और अपनी सन्तानमें लीन वह जीवनकी नई नाव खे चली ।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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