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দুলহা ত্যাগ
श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ' .inar गति मर गया, पत्नीकी उन १६ वर्ष है। मां-बाप विलख रहे हैं,
भाई रो रहे हैं, वहन वेहाल है, शहरभरमै हाहाकार है, पर जिसका नव कुछ लुट गया, वह स्नान करके गार कर रही है, आँखोमे अजन, माँगमें मिन्दूर और गुलाबी चुनरिया, चेहरेपर रूप बरस पड़ा है, अग-अग में स्फुरणा है और जिह्वाम मिश्री, जिनसे कभी सीधे मुंह नहीं वोली, आज उनसे भी प्यार ।
शहर भरके लोग एकत्र, युवककी अर्थी उठी, अर्थीके आगे, नारियल उछालती, पर्दे के उस बीहड़ अंधकारमै भी खुले मुंह गीत गाती, ढोलके मद भरे घोप पर थिरकती, उसीकी ताल पर अपनी नई चूड़ियाँ खनखनाती, वह १६ वर्षको सुकुमारी नारी उमगानकी ओर जाती, भारत के चिर अतीतम हमे दिखाई देती है।
उसका पति मर गया, पर वह विधवा नहीं, यह हमारी संस्कृतिका महा वरदान है । पतिके साथ रही है, पतिके साथ रहेगी-चिताके ज्वालामय वाहन पर आत्ढ़ हो, किसी अक्षयलोककी ओर जैसे देहधरे ही वह उडी जा रही है, जहां रूप है, कुरूप नही, मगल है अमगल नही, मिलन है, वियोग नही । यह भारतके स्वर्णयुगकी महामहिमामयी सती है, उसे शत-शत प्रणाम ।
पति मर गया है, पत्नीकी उम्र १६ वर्ष है, उसके जीवनमे अव आह्लाद नहीं, आगा नही, दुनियाके लिए वह एक अशकुन है, सासके निकट डायन, मांके लिए बदनसीव, वह मानव है, भगवान्के निवासका पवित्र मन्दिर, पर मानवका कोई अधिकार उसे प्राप्त नहीं । समाज