SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-जागरण अन्त है. लेकर भाग जल है और न उन झोठीनी कगह, जो दिनो नो नो नो नोगे ना मानते है। उनकी कलमके करिश्मे है. जो अपने ही दुलन रोते और अपने ही नबनें हमने है। यही गरण है कि नोतर पनी तनवीसमें रंगांकी मन ही नही हल्ली हो, नावनागेनी ना हर जगह मन्त्री हुई है। हां, उन्नं कुछ कहनेकी अनिरंत्र में नहीं जो जन्मन लिए नहीं, मेटन देखकर अन्नमारीमें मज्ञानेने लिए ही मिना खरीदने है। जानता हूँ ज्ञानपीना साधनमानदण्ड उनकी प्यानले लिए नी पोल है, पर ने अपनी निजारिता आगर उसे न्यो ! अरब इन बचनने नाली श्री गोपनीयके लिए या कहूँ, जो मदा सानोनी उपेना जर, नायनाने ही पीछे पागल रहा मान जिनके निर्माण में ब्रह्माने पनगत कर गायरल दिन. निना माल और सपूतकी नेत्रावृतिको एक ही जगह मेन्टिन कर दिया। हमारे ही बीत्र है, वे जो वनं गाना बनाते है और हमारे ही वौत्र है, वेजो नन्दिरोगनिगंग करने है, परन्ग इन पुन्नका निमांग धर्मगाला लोर नन्दिरने निनांग कम पवित्र है। कन्हयालाल मिन्न 'अनार सहारनपुर, १८ दिनम्बर १९५१
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy