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________________ [ यह पत्र सेठीजीने मुख्तार साहवको लिखा था, जो कि अनेकान्त वर्ष १ किरण ४ में प्रकाशित हुआ था।] बन्धुवर, अनेकान्त-साम्यवादीकी जय अनेक द्वन्द्वोके मध्य निर्द्वन्द्व 'अनेकान्त'की दो किरणें सेठीके मोहतिमिराच्छन्न बहिरात्माको भेदकर भीतर प्रवेश करने लगी तो अन्तरात्मा अपने गुणस्थान-द्वन्द्वमसे उनके स्वागतके लिए साधन जुटाने लगा। परन्तु प्रत्याख्यानावरणकी तीन उदयावलीने अन्तरायके द्वारा रूखा जवाब दे दिया, केवल अपायविचयकी शुभ भावना ही उपस्थित है। आधुनिक भिन्न-भिन्न एकान्ताग्रह-जनित साम्प्रदायिक, सामाजिक एव राजनैतिक विरोध व मिथ्यात्वके निराकरण और मथनके लिए अनेकान्ततत्त्ववादके उद्योतन एव व्यवहाररूपमें प्रचार करनेकी अनिवार्य आवश्यकताको मै वर्पोसे महसूस कर रहा हूँ। परन्तु तीव्र मिथ्यात्वोदयके कारण आम्नाय-पथ-वादके रागद्वेष में फंसे हुए जैन नामाख्य जनसमूहको ही जैनत्व एवं अनेकान्त-तत्त्वका घातक पाता हूँ, और जैनके अगुवा वा समाजके कर्णधारोको ही अनेकान्तके विपरीत प्ररूपक वा अनेकान्ताभासके गर्तमें हठ रूपसे पडे देखकर मेरी अव तक यही धारणा रही है कि अनेकान्त वा जैनत्व नूतन परिष्कृत शरीर धारण करेगा जरूर, परन्तु उसका क्षेत्र भारत नही, किन्तु और ही कोई अपरिग्रह-वादसे शासित देश होगा। अस्तु, अनेकान्तके शासनचक्रका उद्देश्य लेकर आपने जो झडा उठाया है, उसके लिए मै आपको और अनेकान्तके जिज्ञासुओको वधाई देता हूँ और प्रार्थनारूप भावना करता हूँ कि आपके द्वारा कोई ऐसा युगप्रधान प्रकट हो, अथवा आप ही स्वय तद्रूप अन्तर्वाह्य विभूतिसे सुसज्जित हो, जिससे एकान्त हठ-शासनके साम्राज्यकी पराजय हो, लोकोद्धारक विश्व-व्यापी अनेकान्त शासनकी व्यवस्था ऐसी दृढतासे स्थापित हो कि
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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