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________________ १९० - जैन-जागरणके अग्रदूत देखनेकी दीपशिखावत् चिर-प्रज्वलित महान् भावनासे उन्होने जैन शिक्षालयोके लिए पाठ्य-साहित्यका निर्माण-यज्ञ प्रारम्भ किया था। __वह यज्ञ उनकी खुदकी दृष्टिमे अपूर्ण रह गया, यही उनका अन्त समयका पछतावा था, और दूसरा कल्पवृक्ष-जिसका बीज उन्होने भा० जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्थाके रूपमे वोया था, वह अपने यौवनकालमें ही क्षयरोगग्रस्त हो गया। __ युक्ति-अयुक्ति और सभव-असभवका विचार मै नही करना चाहता, मै तो चाहता हूँ कि आज जैन-समाजको कविवर प० बनारसीदासजी, पडितप्रवर टोडरमलजी, दीवान अमरचन्दजी और प० पन्नालालवाकलीवाल जैसे महापुरुषोकी आवश्यकता है, और उसकी पूर्ति हो जाय तो जैन-समाज जी जाय । -दिगम्बर जैन, दिसम्बर १९४३
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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