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जैन-जागरणके अग्रदूत हो यह ईश्वरके प्रति द्रोह है। फिर | पतिव्रत-पतिके द्वारा व्रत, पतिके द्वारा पूजा । पूजा लक्ष्यकी, मत साध्यकी प्राप्तिका ।
तव यह लक्ष्य क्या है ? साध्य क्या है। व्यक्तिको समष्टिके प्रति एकता, अणुको विराटमें लीनता, भेद-उपभेटोकी दीवारे लांघकर, अज्ञान गिरिके उस पार हँसते-खेलते प्रभु-परमात्मामें जीवकी परिणति ।
ओह, तव पति है साधन, पति है पथ, पति है अवलम्ब, न साध्य ही न लक्ष्य ही । पर साधन नही, तो साध्य कहां, पथके विना प्रिय प्राप्ति कैसी और वह हो गया भग?
भगवान्की कृपासे फिर ज्ञानका आलोक । भग कैसा | लहर जब सरितामे लीन होती है, तव क्या वह नाग है ? वीज जब मिट्टीमें मिल वृक्षमे वदलता है, तब क्या वह नाश है ? ऊहूँ यह नाश नहीं है, यह परिणति है। पति है लहर, सरिता है समाज, पति है वीज, वृक्ष है समाज । पति नहीं है । इस नहीका अर्थ है प्रतीकको परिणति ।
नारी लक्ष्यकी ओर गतिशील, कल भी थी, आज भी है, यही उसका व्रत है। कल इस व्रतका प्रतीक था पति । आज है समाज । गतिके लिए तल्लीनता अनिवार्य है। कल तल्लीनताका आधार था पति, आज है समाज । कल नारी पतिके प्रेममे लीन थी, आज समाजके प्रेममे लीन है। यह लीनता स्वय अपनेमे कोई पूर्ण तत्त्व नही, पूर्णताका प्रशस्त पथ है। नारीका लक्ष्य अविचल है, जो कल था, वही आज है, पर पथ परिवर्तित हो गया, प्रतीक बदला, साधन वदले, इंगलैडका यात्री अदनपर अपना जलपोत त्याग हवाई जहाज पर उड चला। उसे इंगलैड ही जाना था, और इंगलैड ही जाना है यात्राके साधनोका परिवर्तन यात्राके लक्ष्य का परिवर्तन नही। ___ज्ञानके आलोककी इस किरणमालामे स्नानकर नारी जैसे जाग उठी, जी उठी। निराशा आशाके रूपमे वदल गई, वेदना प्रेममें अन्तहित, स्तब्धता स्फुरणामें, सामने स्पष्ट लक्ष्य, पैरोमे गति, मनमे उमग, जीवनमें उत्साह । मस्तिष्क सद्भावनाओसे पूर्ण, हृदय प्रेमसे। कही किसीका