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________________ बावू अजितप्रसाद वकील ४३९ घटनाके कारण नानाजीने मेरा नाम बूची (कनकटा) रख दिया। ___ करीब दो वर्षकी उमरमें पिताजीके साथ मै दिल्ली चला आया। उन दिनों चेचकका जोर था। मुझे भी चेचक निकली। शुभ कर्मोदयसे वच गया। चेहरेपर चेचकके दाग अवतक मौजूद है। चेहरे और वदनका रग भी मैला हो गया, गोरापन जाता रहा । अत मेरा नाम कल्लू पड़ गया। मिडिल परीक्षाके प्रमाणपत्रमे भी मेरा नाम कल्लूमल लिखा हुआ है। १८८७ मे नवी कक्षामें दाखिल कराते समय मेरा नाम अजितप्रसाद लिखवाया गया। मेरी माताजीका १८८० में क्षयरोगसे शरीरान्त हो गया। रातभर पिताजी मुझे छातीसे लगाये नीचे बैठकमें लेटे रहे और दादी आदि रोतीपीटती रही। सालभरके बाद ही दादीजीके विशेष आग्रहपर पिताजीका पुनविवाह हो गया। विमाता मूर्ख, अनपढ, सकीर्णहृदया थी। पिताजी का प्रेम उसने मुझसे वटवा लिया। एक बार कुतुब मीनार देखने गये। पिताजी, भाभी (विमाता) को पीठपर चढाके ऊपर ले गये। मै रोता हुआ साथ गया कि मैं भी पद्धी चढुंगा, भाभीको उतार दो। पिताजीने थोडी दूर मुझे भी चढा लिया और फिर भाभीको चढा लिया । मुझे इससे दुख हुआ। फिर पिताजीकी वदली रुड़की हो गई । रातको रोज मै पिताजी से चिमटकर सोता । लेकिन आँख लगते ही मेरी जगह भाभी ले लेती। दिनकी दुपहरीमे भी इसी बातपर तकरार होती। कुछ अरसे वाद दादी जी दिल्लीसे आ गईं, तब मुझे मॉका प्यार नसीब हुआ, किन्तु दादीके साथ भी भाभीका वर्ताव ठीक नही रहता था। किसी-न-किसी वातपर आठवें-दसवे दिन दादी-पोते रो लेते थे। दादीजीको मरते दमतक चैन न मिला। बचपनमे दादीजीके साथ रहनेसे मेरे जीवनपर धार्मिक क्रियाओका गहरा प्रभाव पड़ा, और उस प्रभावसे मुझे अत्यन्त लाभ हुआ। मैं उनके
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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