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जैन - जागरण के अग्रदूत
शासन-प्रणालीको विचलित कर दिया था । अदालतो, कौसिलो, सरकारी स्कूलोकावायकाट प्रतिदिन जोर पकडता जाता था। मशीनगनोकी वर्षाके मुकाबले पर भारतके राष्ट्रपत्र वाग्वाणोकी वर्षा कर रहे थे । घमासान युद्ध मचा हुआ था, किन्तु दुश्मनको मारनेके लिए नही, स्वय मरनेके लिए । रक्त लेनेके लिए नही, रक्त देनेके लिए। क्योकि अहिंसात्मक युद्ध मारना नही सिखाता है ।
" जिसे मरना नहीं श्राया उसे जीना नहीं श्राता ।"
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इस परिस्थितिमें जन्म लेकर और राष्ट्रका तत्कालीन अस्त्र 'अहिंसा' का नाम धारण कर 'अहिंसा' राष्ट्रकी आवाज में आवाज मिलानेसे कैसे पीछे रह सकता था, किन्तु उसकी आवाज राष्ट्रको आवाजकी प्रतिध्वनि मात्र थी, उसने राष्ट्रिय पत्रोकी बातको दोहराया बेशक, किन्तु कोई 'अपनी बात' न कही । इसका कारण जो कुछ भी रहा हो, परन्तु ० ज्ञानानन्दजीके राष्ट्रप्रेमी होनेमें कोई सन्देह नहीं है । वे पक्के धर्मात्मा होनेपर भी जननी जन्मभूमिको व्यथाको भूले नही थे, राष्ट्रकी प्रत्येक प्रगतिपर उनकी कडी दृष्टि रहती थी और उसपर वे विचार भी करते थे ।
उनकी आन्तरिक अभिलाषा थी कि प्रेसके कार्य में अपने कुछ शिप्योको दक्ष कर दिया जाय और एक विशाल 'छापेखाने' का आयोजन किया जाय । इसलिए वे प्रतिदिन किसी न किसी छात्रको अपने साथ प्रेसमें ले जाते थे । एक दिन मुझे भी ले गये और 'अहिंसा' के 'प्रूफ' -सशोधनका कार्य मुझे सौपकर विश्राम करने लगे । 'प्रूफ' में किसी राष्ट्रिय पत्रकी प्रतिध्वनि थी --- यदि मैं भूलता नही हूँ तो वह एक प्रहसन था, और शायद 'कर्मवीर' से नकल किया गया था । भारतके राजनैतिक मचके सूत्रधार महात्मा गाँधी और अली बन्धु 'प्रहसन' के पात्र थे । 'प्रूफ' में उक्त प्रहसन अधूरा था और में उसके आदि और अन्त से अपरिचित था । प्रूफपर दृष्टि पडते ही मुझे 'मौलाना' गाधी दिखाई दिये । मैं चकराया। आगे बढा तो 'महात्मा' शौकतअलीपर नजर पडी । अव