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जैन-जागरणाके दादा भाई
श्री कन्हैयालाल मिश्र, प्रभाकर
हमारे चिर अतीतमें, जीवनकी एक विषम उलझनमे फंसे, सस्कृतके र कविने दुखी होकर कहा था--
"जानामि धर्म, न च मे प्रवृत्तिः!
जानाम्यधर्म, न च मे निवृत्तिः !" धर्मको मैं जानता तो हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है । अधर्म को भी मै जानता हूँ, पर हाय, उससे मै वच नहीं पाता!
__ जीवनकी यह स्थिति वडी विकट है। अचानक गिरना सरल है, जानकर गिरना कठिन, जानकर और फिर स्कनेकी इच्छा रहते । भूलसे गिरनेमें शरीरकी क्षति है, जानकर गिरनेमें आत्माका हनन है। हमारा समाज आज इसी आत्म-हननकी स्थितिमें जी रहा है । कौन नहीं जानता कि स्त्रियोको पटेंमें रखना, अपनी वशावलिपर हल्का तेजाव छिडकना है। विवाहकी आजकी प्रथा किसे सुखकर है? और सक्षेपमें हमारा आजका जीवन किसे पसन्द है ? हम आज जिस चक्रमें उलझे घूम रहे है, उसे तोडना चाहते है, पर तोड नहीं पाते ।
परम्पराके पक्षमें एक बहुत वडी दलील है, उसकी गति । परम्परा बुरी है या भली, चलती रही है, उसके लिए किसी उद्योगकी ज़रूरत नहीं