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क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी
मेरे ऊपर अपनी स्नेह छाया नही रख सकेंगी। उनका सरल हृदय भर आया और आँखे छलछला आई, विवेक जागा, " माता ! तुमने क्या नही दिया और क्या नही किया ? अपने उत्थानका उपादान तो मुझे ही बनना है | आपके अनन्त फलदायक निमित्तको न भूल सकूंगा तयापि प्राधको टालना भी सभव नही ।" फलत अनन्त मातृ-वियोगके लिए अपनेको प्रस्तुत किया । वाईजीने सर्वस्व त्याग कर समाधिमरण पूर्वक अपनी इहलीला समाप्त की । विवेकी लोकगुरु वर्णीजी भी रो दिये और अन्तरगर्म अनन्तवियोग-दुःख छिपाये सागरसे अपने परम प्रिय तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरिको ओर चल दिये। पर कहाँ है शान्ति ? मोटरकी अगली सीटके लिए कहा-सुनी क्या हुई, राजपिने सवारीका ही त्याग कर दिया । सागर वापस आये तो बाईजीको "भैया भोजन कर लो" आवाज़ फिर कानोम आने -सी लगी । सोचा, मोहनीय अपना प्रताप दिखा रहा है । फिर क्या है अपने मनको दृढ किया और अबकी बार पैदल निकल पडे वास्तविक विरक्तिको खोजमें । फिर क्या था गांव-गांवने वाईजीके लादलेले ज्योति पाई । यदि सवारी न त्यागते, पैसेवाले भक्त लोग आत्म-सुधारके बहाने उन्हें वायुयान पर लिये फिरते, पर न रहा वाँस, न रही वाँसुरी । वर्णोजी झोपडी-झोपड़ी शान्तिका सन्देश देते फिरने लगे और पहुँचे हजारो मील चलकर गिरिराज सम्मेदशिखरके अचलमे । शायद पूजनीया बाजी जो जीवित रहके न कर सकती वह उनके मरणने सभव कर दिया । यद्यपि वर्णीजीको यह कहते सुना है "मुझे कुछ स्वदेश ( स्वजनपद ) का अभिमान जाग्रत हो गया और वहाँके लोगोके उत्थान करनेकी भावना उठ खड़ी हुई। लोगोके कहनेमे आकर फिरसे सागर जानेका निश्चय कर लिया । इस पर्यायमें हमसे यह महती भूल हुई, जिसका प्रायश्चित्त फिर शिखरजी जानेके सिवाय अन्य कुछ नही, चक्रमें आ गया ।" तथापि आज वर्णीजी न व्यक्तिसे बँधे है न प्रान्त या समाजसे, उनका विवेक और विरक्तिका उपदेश जलवायुके समान सर्वसाधारणके हिताय है ।
-वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
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