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जैन - जागरण के अग्रदूत
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और हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हम सेठीजीकी उस लगनको देखें जिसको लेकर वह पहले पहल धर्मके मैदान में कूदे, फिर समाजके मैदान - में आये और फिर देश के मैदान मे आये, या हम यह देखे कि वे क्या खाना खाते थे, किस तरह की टोपी लगाते थे या वे उस मकान में सोते थे, जिसका पश्चिमको तरफ दरवाजा था, उस मकान मे रहते थे, जिसका पूरवकी तरफ दरवाजा था, जो कॉटोका ही रोना रोते है वो न फूल पाना चाहते - हे और न फूल पाने की इच्छा रखते हैं । हम इसे मूर्खता ही समझते है कि फूल सूखकर जब उसकी पखुडियाँ गिरे, तब इस आधारपर फूलके वारेमे हम अपनी राय बतायें कि उसकी पखुडियाँ जगलमें गिरी थी, या किसी माधुकी कुटी गिरी थी, या मन्दिरमे किसी देवताकी वेदीपर गिरी थी, या राजाके महल में गिरी थी, आदमीके मरनेके वाद उस लाशको चील, वृद्ध खायें तो वही बात, जलाई जाय तो वही बात, दफनाई जाय तो वही वात और बहाई जाय तो वही बात ।
एक शोर है कि सेटीजी दफनाये गये और साथमे यह भी शोर है। "कि उनके दफनाये जानेकी जगहका ठीक पता नही है। अगर यह पिछली वात ठीक है तो वडे कामकी वात है क्योकि इस तरह मरनेके वाद नाम न छोडकर दफनाये जानेसे किसी दिन तो उन हड्डियोपर हल चलेगा और वहां खेती होगी और उससे जो दाने उगेगे उसे जो खायेगा उसमें वैसी - देश-भक्ति आये वगैर न रहेगी। सेठीजीको जो मौत मिली, मौके लिए दिल्ली के मशहूर कवि गालिब तक तरसते गये
" रहिये व ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो । हमसुख़न कोई न हो, और हमजुबां कोई न हो ॥ वेदरोदीवार-सा इक घर बनाना चाहिए । कोई हमसाया न हो और पासवां कोई न हो ॥ पढिये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार । और अगर मर जाइये तो नौहाख्वां कोई न हो ॥"
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