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जैन-जागरण के अग्रदूत
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दृष्टिकोण बिलकुल सीधा-सादा था । एक इसी विषय में ही क्यो, जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें वे 'मर्यादा' के हामी और पोषक थे । मदिरोमे स्त्रियां अधिक तडक भडकसे न आये, उनकी गतिमे नारी सुलभ लज्जा हो, न कि उच्छृंखल चचलता, उनकी पैनी दृष्टि सदैव यह 'मार्क' करने के लिए तत्पर रहा करती थी । एक बार, सम्मेदशिखर क्षेत्रपर पजाव प्रदेशकी कुछ स्त्रियाँ कुएँपर बैठी हुई नग्न स्नान कर रही थी । यह दृश्य, सेठजीसे न देखा गया । उसी समय कई थान मँगवाकर, कुछ वल्लियाँ खड़ी करके उनके सहारे एक पर्दा-सा तनवा दिया ।
उनकी धर्म-साधना केवल पूजा-पाठ तक ही सीमित नही थी । सम्भवत. यदि कभी अवसर आ जाता तो धर्मके लिए अपने प्राण दे देने मे भी उन्हे सकोच न होता । एक बार, स्थानीय जैन मंदिरपर, होली खेलनेवाले कुछ लोगोने गोवर फेंक दिया। खबर सेठजी तक पहुँची । सब काम छोड़, उसी समय एस० डी० ओ० के पास दौडे गये । एस० डी० ओ० अग्रेज था, पर चर्चिल - परम्पराका नही । सेठजीका बहुत सम्मान करता था । तत्काल मौकेपर पहुँचकर जांच कराई। अपराधियोकी खोज की। जिन लोगोने यह निंद्य हरकत की थी, उन्हीसे गोवर साफ कराया गया । नसेनी भी उनको नही दी गई। एक दूसरेके कन्धोपर चढकर ही उन्हे गोवर पोछना पडा ।
इसी प्रकार 'हिंसा परमो धर्मः' भी उनका मात्र मौखिक सिद्धान्त ही नही था । व्यवहारमे भी उसका प्रयोग उन्हे अभीष्ट रहता था । एक बार एक गाय भागती-भागती आई और सेठजीके मकान में घुमती चली गई। पीछे-पीछे उसका स्वामी कसाई भी दौडता हुआ आया । सेठजीने स्थिति समझी और नौकरोको आदेश दिया कि वह घरकी अन्य गाय भैसोके साथ 'थान' पर बाँध दी जाय। कसाई, कसाई पीछे था और व्योपारी पहले | मौकेको ताड गया। गायके अनाप-शनाप दाम माँगने लगा, किन्तु सेठजीके आगे उसकी एक भी चालाकी न चली। उन्होने चार भले आदमियोको बुलाकर निर्णय लिया और उचित मूल्य देकर उस कसाईको विदा किया ।