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क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी आस्यान सुना तो वहाँके नैयायिकोसे विशेष ज्ञान प्राप्त करनेके प्रलोभनको छोड़कर सीधे कलकत्ता पहुंचे। और वहाँके विद्वानोसे भी छह माम अध्ययन किया। इस प्रकार यद्यपि वर्णीजीने तब तकः न्यायात्रार्यक तीन ही खण्ड पास किये थे, तथापि उनका लौकिक ज्ञान सण्डातीत हो चुका था। तथा उन्होने अपने भावी जीवनक्षेत्र-जैन समाजमे गिक्षामनार तथा मक सुधारके लिए अपने आपको भली भांति तैयार कर लिया था। जानो और जानने दो
__कलकत्तेसे लौटकर जव बनारस होते हुए सागर आये तो वर्णीजोन देखा कि उनका जन्म-जनपद शिक्षाकी दृष्टिले बहुत पिछड़ा हुआ है। जब नैनागिरकी तरफ विहार किया तो उनका आत्मा तडप उठा । बगाल और बुन्देलखंडकी बौद्धिक विषमताने उनके अन्तस्तलको आलोडिन और आन्दोलित कर दिया। रथयात्रा, जलयात्रा, आदिमें हजारो रुपया व्यय करनेवालोको शिक्षा और शास्त्र-दानका विचार भी नहीं करते देखकर वे अवाक रह गये। उन्होने देखा कि भोजन-पान तथा लैंगिक सदाचारको दृढतासे निभाकर भी समाज भाव-आचारसे दूर चला जा रहा है। साधारण-सी भूलोके लिए लोग बहिष्कृत होते है और आपनी कलह होती है। प्रारम्भमें किसी विधवाको रख लेनेके कारण ही 'विनकावार' होते थे, पर हलवानीमै सुन्दर पत्नीके कारण बहिष्कृत, दिगोडे. मे दो घोडोकी लडाईमे दुर्वल घोडे के मरने पर सवल घोड़े वालेको दण्ड, आदि घटनाओने वर्णीजीको अत्यन्त सचिन्त कर दिया था। हरदीके रघुनाथ मोदी वाली घटना भी इन्ही सब बातोकी पोपक थी। उनके मनमे आया कि ज्ञान विना इस जडतासे मुक्ति नहीं । फलत. आपने सबसे पहिले वंडा (सागर, म० प्रा०) में पाठशाला खुलवाई। इसके वाद जव आप ललितपुरमे इस चिन्तामे मग्न थे कि किस प्रकार उस प्रान्त के केन्द्रस्थानोमें सस्थाएँ स्थापित की जाये, उसी समय श्री सवालनवीमने सागरसे आपको बुलाया। सयोगकी बात है कि आपके साथ पं० सहदेव झा भी थे। फलतः श्री कण्डयाके प्रथम दानके मिलते ही अक्षय-तृतीया
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