________________
र मोतीसागर जीका नाम सुना था, दूरसे एक बार देखा " भी था। १९३० के असहयोग आन्दोलनमें तीन माहको मुझे सजा मिली कि जेलमे ही १२४ धाराके अन्तर्गत दो वर्षकी कैदका हुक्म और सुना दिया गया। कही दूसरे कार्यकर्ताओके | साथ भी इस तरहका गैरकानूनी व्यवहार न हो, इसी आशकासे काँग्रेस-कार्यालयसे अपील करनेका आदेश प्राप्त हुआ। अपीलको धन कहाँसे आवे, इस दर्देसरसे तो चुपचाप जेल काटना ही श्रेयस्कर समझा गया। न जाने सर मोतीसागर जीके कानमें यह भनक कैसे पड़ी? चटपट उन्होने नि शुल्क अपीलकी पैरवी की जिम्मेवारी स्वय अपने आप ले ली। जरूरी कागजात भी मंगवा लिये और अपील सनवाईकी तारीख भी निश्चित हो गई। लेकिन भाग्यकी अमिट रेखाएँ कौन मेट सकता है ? अपीलकी तारीखसे दो दिन पूर्व अकस्मात् उनका स्वर्गवास हो गया। मुझे लाहौरसे तार मिला तो मैने विषाद भरे स्वरमें कहा-'यहाँ न्यायकी आशा न देख, वे ईश्वरकी अदालतमें फरियाद करने गये है। इन्साफ होनेपर ही वापिस आएंगे।" लेकिन उनका साधु और परोपकारी मन इस दुनियासे ऐसा उचाट हुआ कि वापिस आनेका नाम तक नहीं लिया।
-गोयलोय ३१ अक्टूबर १९५९
-
-
-